Thursday, September 29, 2011

मेरी कविता पर उठे सवालों के बहाने से

पिछले दो दिनों तक मेरे एक मित्र ने फेस बुक पर मेरी दो कविताओं " पांचाली और वैदेही संवाद'’ और ‘'ई जिनगी अकारथ हो गईल'’ पर लम्बी चर्चा चलाई थी. मुझे इस बात की ख़ुशी है के यह चर्चा न केवल लम्बी थी बल्कि कविता की बारीकियों से इतर महिला और उसके अस्तित्व और उससे जुडे सवलों पर ठहर गयी. इस चर्चा में कुछ पाठक कविता के विषय और भाव की सरहना करते हुए कविता के पक्ष मेँ खडेँ थे और कुछ तीखे कटाक्षोँ के साथ कविता विशेष कर कविता के विषय के विपक्ष मेँ खड़े थे. जाहिर है कविता के पक्ष मे खड़े लोग उस संवेदना से जुड़े थे जो स्त्री को और उससे जुड़े सवालों को समझने और समझाने मेँ लगे हैं किन्तु एक बड़ा वर्ग आज भी महिला मुद्दोँ पर वही खड़ा है जहाँ एक अबाध संवेदनहीनता का राज है.
यहाँ मेरा कहने का मतलब यह बिल्कुल नहीँ है कि महिला मुद्दोँ और उससे जुडी सम्वेदन् हीनता के दरवाजे पर सिर्फ और सिर्फ पुरुष खड़े हैं. बेशक वहाँ महिलाएं भी उतनी ही तादात मेँ हैँ. और यहीँ से समाज, परिवार और महिलओँ के इससे सम्बन्ध को समझना जरूरी है. यहाँ यह जरूर कहूँगी के कि महिलाएं समाज, परिवार और इन दोनोँ संस्थाओँ के साथ अपने सम्बन्ध मेँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत बनाये गए पदानुक्रम और समाज मे गढ़े गयी परंपरा का हिस्सा हैं. यह समाज और परिवार् द्वारा गढा और तैयार किया गया उंनका उंनका चरित्र है जिसे हम आगे समझने का प्रयास करेंगे.
बाहर हाल, यहाँ मैं अपनी कविता और उसपर आये कमेन्ट के कुछ अंश और सभी का सार आप सबके सामने रखने का प्रयास करती हूँ. मेरी पोस्ट की गयी पहली कविता -
पांचाली!!
सवालों के भंवर में तो मैं भी फंसी हूँ
दो युग बीत गए
प्रायश्चित की इच्छा भी है और एक खंजर भी
जो धंसा है ठीक मन के फाड़ में
पर तुमसे मैं भी सवाल करूँ क्या ?
पूछूं के भरी सभा मे अपनों के ही बीच
नग्न कर दी गयी तुम ?
पूछूं के
सारा पुरुषार्थ कहाँ मर गया था
जब बिलखती रही तुम ?
पूछूं के
एक साथ पांच पांच शौर्यों की क्या थी तुम ?
पूछूं के
तुम्हारे संकल्प को उसी सभा में क्यों नहीं पूरा कर पाए भीम
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
अर्जुन के बाण कैसे रहे शांत
तुम्हारी हृदय विदारक गुहार पर
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
कहाँ मर गया था धर्म राज का धर्म
तुम्हारी असहायता पर
बताओ
यदि पत्नी थीं तुम ?
कहाँ थे नकुल ?
और
कहाँ थे सहदेव?
और तात श्री उनकी तो आँखों का पानी ही मर गया था
चेतना सुप्त थी और भीष्म प्रतिज्ञा की चमक फीकी
कैसे वचन और कैसी मर्यादा मे बंधे थे
क्या धरती तब नहीं हिला सकते थे
जब हो रहा था इतना बड़ा अनाचार ?
क्या सभा में विरोध का भी साहस नहीं जुटा पाए
इस व्यभिचार पर ?
हे पांचाली!
मुझे भी चाहिए बहुत से सवालों के जवाब
उन सभी कथ्यों से इतर जो बचाते रहे हैं धर्म, राज और व्यवस्थाएं
उन छद्मों से अलग जो रचते हैं मार्यादा का जाल
क्या दे पाओगी जवाब?



दूसरी कविता थी -
कल ललमतिया की माई
बुखार में जलती
लाल लाल आंख लिये
कहंर रही थी
मैली कुचैली परदनी पहने
दरवाजे पर
मैने कहा रोज बोखार , बेमारी
और पांच पांच गो बच्चा और फेर ई पेट में?
उसकी बडी बडी आखें
दर्द से कराह उठीं
बोली -
बोटी है औरत के देह बोटी
आद मी के खतिर
का कहें ए मलकिन
रोज मजूरी करत, मांग मांग खात - पहिनत
अकेल्ले जीयत
ई जिनगी अकारथ हो गयील
मलकिन
ई जिनगी अकारथ हो गयील
( दोनों लम्बी कविता है अलका-सिंह .ब्लागस्पाट.कॉम पर देखें )
इन दोनोँ कविताओँ को मेरे फेसबुक मित्र राघवेन्द्र अवस्थी द्वारा अपने वाल पर चर्चा के लिए शेयर किया गया था इस कविता पर जो कमेन्ट आये वो बेहद महत्वपूर्ण थे. दोनोँ ही कवितओँ के केन्द्र मेँ औरत थी. एक इतिहास प्रसिद्ध पात्र और दूसरी एक मजदूर जिसका इतिहास मे कोई स्थान नहीं पर दोनों के पास कहने के लिये बहुत है और वो कह भी रही हैं और उनकी अभिव्यक्ति समाज और एक बडे वर्ग के लिये विवाद और प्रश्ंवाचक कल भी थी और आज भी है. क्यों ? यह एक बडा और बेहद महत्वपूर्ण् प्रश्न रहा है. यह प्रश्न आज भी कितना अपने उसी रूप में विध्यमान है जैस की कल था.
इन कविताओं पर अपनी बात शुरु करने से पहले सबसे पहले मैं यहाँ यह कहना चाहूंगी के "महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार हैं" इसे बस समझने की जरूरत है.
इन कवितओं पर आज के सवाल देखें जो फेसबूक -
1. अल्का जी मैने संजय की बात से सहमत न होते हुए भी यह नहीं मानता कि सीता और द्रोपदी किसी भी तरह से प्रताडित महिलयें थीं.
2. Alka Ji, dukh ki baat yah hai ki mahilaon ko purush se zyada mahilayein hi pratadit karati hain... santaan na ho to sabase zyada taane mahilaon se hi sunane padate hain kisi bhi stri ko aur atyachar bhi mahilayein hi karati hain ek dusare par. (सुनील ठाकुर एक फेसबुक पाठक)
1. हमने पुरे सम्मान के साथ जूझे रखा ...ये तुझे बुरा लगा ..तुमने आज़ादी मागी ...वह हमने खुसु खुसी दी ...अब तेरे लब आज़ाद है ....तेरे चोलियो के दस्त्बर तेरे ..तेरे उरोजो की गरमिया तेरी ..तेरा हुस्न तेरा ..ये कातिलाना अंदाज़ तेरा ......मै तो आईना हू केवल बोलता हू ................
2. द्रौपदी कविता पर अपनी बात रखते हुये संजय राय ने कहा था के – द्रौपदी तो पांच तक ही सीमित थी. आज तो औरत ने अपने शरीर को बाजार बना दिया है. दुनिया का सब्से बडा बाज़ार देह बाज़ाज ही है. (संजय राय - एक पाठक फेसबुक पर )
जब से मैं महिलाओं के विषय को लेकर संवेदनशील हुई तब से ही एक सवाल बार बार लोंगों ने मेरे सामने रखा जो यहाँ सुनील ने भी रखा के महिलाओं को पुरुषों से अधिक महिलाएं ही सताती हैं, ताना मरती हैं आदि आदि.
एक स्कूल् छात्रा के रूप में शायद मैंने भी कई- कई बार उठाये थे कई - कई बार मंच पर बैठे विद्वानों के सामने सुनील की ही तरह इन स्थितियों को रखा भी था . अपने आस पास बहुत बार औरतों को ऐसी अभिव्यक्तियों से लड़ते देखा था. लगता भी था के महिलाओं को सबसे अधिक महिलाओं द्वारा ही सताया जाता है. लम्बे समय तक मैं भी इन विचारों की पक्षधर रही. इसलिए जब सुनील ने बहुत तीखे अंदाज मे अपनी बात रखी तो यह लगा के समाज का एक बड़ा वर्ग ठीक उसी तरह औरत और उसकी परेशनियों के दुश्चक्र को नहीं समझ पाता जैसे सुनील और खुद मैं लम्बे समय तक समझ पाने मे असमर्थ थी. इसलिए यहाँ बात पुरुष बनाम महिला न होकर सिर्फ मुद्दा समझने की है और ये भी के हमारा समाज कैसे बनता और शक्ल लेता है.
सुनील द्वारा रखा गया दूसरा सवाल भी उतना ही महत्व पूर्ण है कि सीता और द्रोपदी किसी भी तरह से प्रताडित महिलायें नहीं थीं.आखिर सुनील ने इस सवाल पर बल क्यों दिया के महिलाओं के अत्याचार में पुरुष का कोई हाथ नहीं और उसकी प्रताड़ना के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं. क्या सुनील और संजय अपनी जगह सही हैं? क्या वास्तव में महिलायें ही महिलओं को प्रताडित करती हैं? क्या द्रौपदी और सीता का चरित्र प्रताडित नहीं था? बडे महत्वपूर्ण सवाल हैं ये. इन सवालों के जवाब खोजने की प्रक्रिया औरत और उसकी वस्तविक स्थिती को सहज ही सबके सामने रखते चलेंगे. ये सभी सवाल उठाने वाले भी इसी समाज के पुरुष हैं जो किसी स्त्री के पुत्र, किसी के भाई, पिता और पति हैं. जाहिर है स्त्री – पुरुष अलग –अलग टापू के जीव नहीं हैं आपस में उनके सम्बन्ध भी हैं तो अखिर क्या है कि स्त्री – पुरुष के प्रश्न पर पुरुष के एक बडे वर्ग के पास मानव आधारित सम्वेदना की कमी हो जाती है?
सबसे पहले थोडा स्त्री पुरुष के जीवन को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में या यूं कहें मानवशास्त्र के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं.
ऐसा इतिहास में दर्ज है और मानव शास्त्र भी कहता है कि स्त्री पुरुष अपने जीवन के आरंभिक दौर में एक समान जीवन व्यतीत करते थे (शिकार युग ). तमाम साक्ष्यों के आधार पर इतिहास और मानव विज्ञान इस बात को मानता है कि शिकार युग में स्त्री – पुरुष के जीवन और समजिक चर्या में कोई अंतर नहीं था. दोनों जंगल में शिकार पर जाते थे और अपनी अपनी जरुरतों के हिसाब से अपना काम करते थे. काम का ऐसा कोई बटवारा नहीं था जिसमें स्त्री - पुरुष के विभाजन को स्पष्ट किया जा सके सिवाय anatomycal biological structure के. यह एक ऐसी स्थिती थी जहाँ घर, परिवार जैसी संस्थाओं का गठन नहीँ हुआ था. मनुष्य ने शिकार युग के बाद कई युगोँ को पार किया. साथ जीने और शारीरिक सम्बन्धोँ और उससे पनपे अनुभव ने दोनोँ को कुछ व्यवस्थायेँ बनाने की अवयश्यकता पर बल दिया. इसलिये जैसे जैसे समय बीता स्त्री पुरुष दोनों ने मिलकर तय किया के स्त्रियाँ (विशेष कर गर्भवती ) शिकार पर नहीं जाएँगी. ऐसा इसलिए था क्योंकि अब धीरे धीरे एक संरचनात्मक व्यवस्था का गठन होने और बनाने की सम्भवना न केवल बलवती होने लगी थी अपितु बनने की प्रक्रिया अरम्भ हो गयी थी. यह इसलिये था कि इसमे स्त्रियों को गर्भ कल में शिकार के खतरों से बचाया ज सके. एक नयी संरचना के क्रिया ने सभी मानव समुदाय के बीच् इसको सर्वोपरी माना गया. स्त्रियाँ गर्भकाल मेँ घर मेँ रहकर एक नयी व्यवस्थ को जन्म देंगी और उसके पश्चात बच्चोँ का पालन करेंगी यह स्त्री-पुरुष दोनो की सहमती से तय हुआ. स्त्रीयोँ की यह स्वीकरोक्ती मानव सभ्यता को सुरक्षित रखने और उसके विकास के लिये हुआ. कालंतर मेँ स्त्री द्वारा की गयी इस स्वीकारोक्ति को विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया से इतर उसका धर्म बन दिय गया. किंतु स्त्रियोँ की रचनशीलता और खाली समय को व्यतीत करने का सबसे रोचक उदहरण भी इसि दौर मेँ देखने को मिलता है क्योंकि इसी दौर में स्त्रियों ने कृषि की खोज की और प्रयोग के तौर पर खेती करने लगीँ. अपने गर्भकाल के दौरान घर बैठने के समय मेँ स्त्रियों ने जंगलों को समझा और उन् बीजों की खोज की जो मनुष्य के उपयोग के थे. उन्होनेँ जंगलोँ मेँ जमीन के छोटे छोटे टुक्डोँ को साफ किया और उसमेँ प्रयोगतम्क खेती करने लगीँ. धीरे-धीरे यह सिधद हो गया कि खेती मनव जीवन का अभिन्न अंग बन सकती है और जिसे उपजा कर खाया जा सकता था. यहीं से स्त्री और पुरुष के जीवन दो धाराओं में विभाजित हो गए. कृषि में स्त्रियों के अभिनव प्रयोग ने एक नए युग को जन्म दिया और अब मानव जीवन कृषि और उसके अधिशेष पर चलने लगा. यहाँ जीवन शिकार युग से आराम दायक और सभ्यता के विकास के लिए समय देने वाला बन गया था.
सम्झने वाली बात ये है के यहीं से संगठित पारिवारिक संरचना का विकास आरम्भ हुआ और परिवार का गठन हुआ. अपने आरंभिक दौर में परिवार इतने अलोकतांत्रिक नहीं थे किन्तु कालांतर में एक पूरी पूरी सोच विक्सित हुई जिसे हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहते हैं. इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक सबसे मजबूत अंग बाज़ार भी बना कालांतर में क्योंकि अब स्त्रियों ने अपने को घर तक सीमित कर दिया था और पुरुष बाहर की दुनिया में व्यस्त हो गया.
यहाँ पहले समझते हैं की परिवार क्या है ?
कई परिभाषाएं ये मानती हैं के परिवार समाज की पहली इकाई है जो मनुष्य की पहली पाठशाला है और जहाँ मनुष्य को पहली शिक्षा मिलती है तो अब बहुत से लोग कहेंगे के माँ ही पहली गुरु है. बात भी बिलकुल सच है . तो समझना होगा के ये पहली इकाई कहाँ से संचालित होती है और कैसे ? क्या यह पूरी तरह लोकतान्त्रिक इकाई है? या फिर इस पहली इकाई से ही हम दो मानसिकताओं और दो समाज के लोग बना दिए जाते हैं- स्त्री और पुरुष ? अब यहीं से पितृसत्ता और समाज में उसकी पकड़ को समझाना होगा.
परिवार के गठन ने अभी स्त्री की नैसर्गिक स्वतंत्रता को खतम नही किया था. अपने आरम्भिक दौर मेँ परिवार दो व्यक्तियोँ यनि एक स्त्री और एक् पुरुषद्वारा उत्पन्न संतानोँ की सुरक्षा के लियी बनयी गयी संस्था थी ताकि स्त्री की गर्भ्काल मेँ तथा शिशुओँ की शैशव काल मेँ सुरक्षा हो सके. किंतु विवाह जैसी संस्था अभी तक नदारद थी. यहाँ मैन एक घट्ना का उल्लेख करन चहूंगी.
संस्क्रित सहित्य मेँ उल्लेख है कि एक रिशि जो अपने मित्रोँ के साथ सन्ध्या ध्यान के लिये बैठे थे के समक्ष के रिशि ने माता से प्रण्य निवेदन किया उनकी माता की स्वीकरोक्ती रिशि को अच्छी नहीँ लगी और उन्होनेँ विवाह् संस्था को जन्म दिया. यह भारत के सम्बन्ध मेँ बात है किंतु अश्चर्य है कि ऐसा हर मानव सभ्यता मेँ हुआ. और इस तरह पितृसत्ता जैसी सोच का बीज बोया गया जिसने स्त्री के उपर प्रतिबध की शुरुआत की. यह स्त्री की योनिकता पर नियंत्रण की शुरुआत थी.अब जब पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया तो वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ इस पूरी व्यवस्था और सोच के तहत रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश की गयी.
दूसरी तरफ पुरुषों को उसी समाज में व्यवस्था सञ्चालन का कार्य सौंपा गया.इसीलिए वो परिवार का मुखिया बना या फिर बनाया गया. उसके मन को भी इस बात के लिए तैयार किया गया के स्त्री पर नियंत्रण बनाये रखने से व्यवस्था में व्यवधान नहीं आयेगा. इस काम में उसकी मदद धर्म जैसी संस्थाओं ने खूब दिया.एक बात जो और यहाँ सम्झने लायक है कि यह व्यवस्था पुरुष के समर्थन मेँ और एक सोच के तहत थी किंतु जब भी इस व्यवस्था से इतर किसी पुरुष ने भी महिलओं के पक्ष् मेँ अपनी बात की है उस समय उस पुरुष का भी इस व्यवस्था से जुडे लोगोँ ने परम्परा और सभ्यता बचाने के नाम पर पुरजोर विरोध किया है. ईश्वर चन्द विद्या सागर इसका सबसे बडा उदाहरण हैँ.
अब बात रही के औरतें ही औरतों को सताती है की -परिवार एक व्यवस्था और एक सोच पर चलने वाली संस्था है और वह सोच है पितृसत्ता. इस सोच का हिस्सा अकेले पुरुष नहीं हैं इस सोच से महिलाओं का भी गहरा सम्बन्ध है. और यदि गौर से देखा जाये तो वही इस संस्था की संचालक और शक्ति हैं. दरअसल धर्म पितृसत्ता का सहोदर है. दुनिया के लगभग सब्हि देशोँ के इतिहास मेँ धर्म ने पितृसत्ता और उससे संचलित होने वलि सभि संस्थओँ क साथ दिया है. मजे की ब्आत ये है कि धर्म की सलीके से पह्रेदारी का पूरा जिम्मा महिलओँ को ही दिया गया है तकि उंनकी उर्जा को पुनर्जन्म और अध्यत्म मेँ लगाकर दुनिया के तमाम मुद्दोँ से दूर रखा जा सके.
जैसा मैंने ऊपर कहा के " पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश की गयी"यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी और दूसरी बात बिना महिलाओं के सहयोग के इस पूरी व्यवस्था को लागु करना बेहद मुश्किल था. इसलिए दुनिया के लगभग हर देश में ऐसे ऐसे साहित्य की रचना की गयी जिसे आदर्श बनाया जा सके और जिसके माध्यम से इन व्यवस्थाओं को लागू किया जा सके. इसी क्रम में भारत में पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गए.
अब यहीँ से संजय का प्रश्न शुरु होता है कि औरत ने अपने देह को बाज़ार बना दिया हैउनका कमेंट देखेँ
हमने पुरे सम्मान के साथ जूझे रखा ...ये तुझे बुरा लगा ..तुमने आज़ादी मागी ...वह हमने खुसु खुसी दी ...अब तेरे लब आज़ाद है ....तेरे चोलियो के दस्त्बर तेरे ..तेरे उरोजो की गरमिया तेरी ..तेरा हुस्न तेरा ..ये कातिलाना अंदाज़ तेरा ......मै तो आईना हू केवल बोलता हू – संजय राय्
संजय कहते हैं तुमने आज़ादी मांगी. उनका ये मानना इस बात का सबूत है के समाज परिवार और उससे संचालित सभी गति विधियाँ अंतिम रूप से पुरुष द्वारा ही संचालित होती हैं. समाज मेँ बसने वाला हर पुरुष स्त्री की स्वतंत्र गतिविधि को लेकर सतर्क है इसलिए वो अपने को मालिक समझ कह बैठता है के उसने आज़ादी दी जबकि वास्तव में आज़ादी देने का हक़ उसे भी नहीं है. यह आज़ादी या तो औरत खुद ले सकती है या फिर पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव और परिस्थितियों के कारण परिवार और समाज देगा.
संजय एक बडा सवाल और उठाते हैँ देह व्यपार की बात कह कर. यह हलंकि एक बहुत विशद् और वयापक विषय है और यह औरत की योनिकता और उस पर नियंत्रन से ही जुडा है साथ की यह युग परिवर्तन औरत् की मांग और व्यक्तिगत स्वतंत्रत से भी जुडा सवाल है. इस सम्बन्ध में यहाँ बस इतना ही के इस समाज ने स्त्री की योनिकता को नियंत्रित करके भी उसे अप्ने तरीके से इस्तेमाल किय है.
आगे गणिकायेँ इस विषय् पर एक लेख जल्द ही
----------------------------------------------डा. अलका सिंह

Wednesday, September 28, 2011

बेचारा कवि

एक बड़ा कवि
गिरा पड़ा धडाम से
और पहुँच गया
सबसे निचली पायदान पे
मजबूर था दिल से
और पैदल दिमाग से
बेचारा
पहुँच गया कामरेडों के गाँव में
उलझ गया मन के जाल में
एक दिन
गुलाबी पग्ग वाले कामरेडों के सरदार ने
फैसला सुनाया बोला
तुन्हें पता नहीं
इस दुनिया के भी कुछ उसूल होते हैं
जात पात और दीन इमान होते है
ऐ ब्रह्मन
बेटियां हमारी भी नाक होती हैं
एक बात और सुन
तेरा कवि कर्म हमारी थुन्नी पर खड़ा है
क्या तू हमारी व्यवस्था से बड़ा है ?
सर पटक कर मर गया कवि
कामरेडों के गांव में
सब हाथ से गया
और आ गया निचली पायदान पे
............................... अलका

Tuesday, September 27, 2011

फिलहाल यह नोट

फिलहाल यह नोट : पिछले दो दिनों तक मेरे एक मित्र ने फेस बुक पर मेरी कविता " पांचाली और वैदेही संवाद' और 'ई जिनगी अकारथ हो गईल' पर लम्बी चर्चा चलाई थी. मुझे इस बात की ख़ुशी है के चर्चा न केवल लम्बी थी बल्कि कविता की बारीकियों से इतर महिला और उसके अस्तित्व पर चर्चा ठहर गयी. कुछ पाठक कविता के विषय के पक्ष मैं और कुछ विपक्ष मे खड़े थे. यहाँ यह समझाना आवश्यक है के कविता के पक्ष मे खड़े लोग जाहिर है उस संवेदना से जुड़े थे जो स्त्री को और उससे जुड़े सवालों को समझने और समझाने मे लगे हैं किन्तु एक बड़ा वर्ग आज भी वहीन खड़ा है जहाँ एक अबाध संवेदनहीनता का राज है. मैं ये नहीं कहती के वहां सिर्फ और सिर्फ पुरुष खड़े हैं वहां महिलाएं भी हैं किन्तु ये जरूर कहूँगी के वो महिलाएं परिवार मे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत बनाये गए पदानुक्रम और समाज मे गढ़े गएपरंपरा का हिस्सा हैं. बाहर हाल, यहाँ मैं अपनी कविता और उसपर आये कमेन्ट के कुछ अंश और सभी का सार आप सबके सामने रखने का प्रयास करती हूँ.

मेरी कविता जो पोस्ट की गयी थी -

1

पांचाली!!
सवालों के भंवर में तो मैं भी फंसी हूँ
दो युग बीत गए
प्रायश्चित की इच्छा भी है और एक खंजर भी
जो धंसा है ठीक मन के फाड़ में
पर तुमसे मैं भी सवाल करूँ क्या ?
पूछूं के भरी सभा मे अपनों के ही बीच
नग्न कर दी गयी तुम ?
पूछूं के
सारा पुरुषार्थ कहाँ मर गया था
जब बिलखती रही तुम ?
पूछूं के
एक साथ पांच पांच शौर्यों की क्या थी तुम ?
पूछूं के
तुम्हारे संकल्प को उसी सभा में क्यों नहीं पूरा कर पाए भीम
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
अर्जुन के बाण कैसे रहे शांत
तुम्हारी हृदय विदारक गुहार पर
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
कहाँ मर गया था धर्म राज का धर्म
तुम्हारी असहायता पर
बताओ
यदि पत्नी थीं तुम ?
कहाँ थे नकुल ?
और
कहाँ थे सहदेव?
और तात श्री उनकी तो आँखों का पानी ही मर गया था
चेतना सुप्त थी और भीष्म प्रतिज्ञा की चमक फीकी
कैसे वचन और कैसी मर्यादा मे बंधे थे
क्या धरती तब नहीं हिला सकते थे
जब हो रहा था इतना बड़ा अनाचार ?
क्या सभा में विरोध का भी साहस नहीं जुटा पाए
इस व्यभिचार पर ?
हे पांचाली!
मुझे भी चाहिए बहुत से सवालों के जवाब
उन सभी कथ्यों से इतर जो बचाते रहे हैं धर्म, राज और व्यवस्थाएं
उन छद्मों से अलग जो रचते हैं मार्यादा का जाल
क्या दे पाओगी जवाब?

2

कल ललमतिया की माई
बुखार में जलती
लाल लाल आंख लिये
कहंर रही थी
मैली कुचैली परदनी पहने
दरवाजे पर
मैने कहा रोज बोखार , बेमारी
और पांच पांच गो बच्चा और फेर ई पेट में?
उसकी बडी बडी आखें
दर्द से कराह उठीं
बोली -
बोटी है औरत के देह बोटी
आद मी के खतिर
का कहें ए मलकिन
रोज मजूरी करत, मांग मांग खात - पहिनत
अकेल्ले जीयत
ई जिनगी अकारथ हो गयील
मलकिन
ई जिनगी अकारथ हो गयील
( दोनों लम्बी कविता है अलका-सिंह .ब्लागस्पाट.कॉम पर देखें )

इस कविता को राघवेन्द्र अवस्थी द्वारा अपने वाल पर चर्चा के लिए शेयर किया गया था इस कविता पर जो कमेन्ट आये वो बेहद महत्वपूर्ण थे.

Alka Ji, dukh ki baat yah hai ki mahilaon ko purush se zyada mahilayein hi pratadit karati hain... santaan na ho to sabase zyada taane mahilaon se hi sunane padate hain kisi bhi stri ko aur atyachar bhi mahilayein hi karati hain ek dusare par...
(सुनील ठाकुर एक फेसबुक पाठक)

जब से मैं महिलाओं के विषय को लेकर संवेदनशील हुई तब से ही एक सवाल बार बार लोंगों ने मेरे सामने रखा जो यहाँ सुनील ने भी रखा के महिलाओं को पुरुषों से अधिक महिलाएं ही सताती हैं, ताना मरती हैं आदि आदि.
एक स्कूल छात्रा के रूप में ये सवाल शायद मैंने भी कई- कई बार उठाये थे कई - कई बार मंच पर बैठे विद्वानों के सामने सुनील की ही तरह इन स्थितियों को रखा भी था . अपने आस पास बहुत बार औरतों को ऐसी अभिव्यक्तियों से लड़ते देखा था. लगता भी था के महिलाओं को सबसे अधिक महिलाओं द्वारा ही सताया जाता है. लम्बे समय तक मैं भी इन विचारों की पक्षधर रही. इसलिए जब सुनील ने बहुत तीखे अंदाज मे अपनी बात रखी तो यह लगा के समाज का एक बड़ा वर्ग ठीक उसी तरह औरत और उसकी परेशनियों के दुश्चक्र को नहीं समझ पाता जैसे सुनील और खुद मैं लम्बे समय तक समझ पाने मे असमर्थ थी. इसलिए यहाँ बात पुरुष बनाम महिला न होकर सिर्फ मुद्दा समझने की है और ये भी के हमारा समाज कैसे बनता और शक्ल लेता है.

सबसे पहले मैं यहाँ यह कहना चाहूंगी के "महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार हैं" इसे बस समझाने और समझाने की जरूरत. आखिर सुनील ने इस सवाल पर बल क्यों दिया के महिलाओं के अत्याचार में पुरुष का कोई हाथ नहीं और उसकी प्रताड़ना के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं.

यहाँ बात को समझाने के लिए मैं दूसरा कमेन्ट को रखना चाहूंगी जो संजय राय जी ने रखा वो कहते हैं -

हमने पुरे सम्मान के साथ जूझे रखा ...ये तुझे बुरा लगा ..तुमने आज़ादी मागी ...वह हमने खुसु खुसी दी ...अब तेरे लब आज़ाद है ....तेरे चोलियो के दस्त्बर तेरे ..तेरे उरोजो की गरमिया तेरी ..तेरा हुस्न तेरा ..ये कातिलाना अंदाज़ तेरा ......
मै तो आईना हू केवल बोलता हू ................ अपने समाज और उसकी संरचना की बात.
(संजय राय - एक पाठक फेसबुक पर )

संजय कहते हैं तुमने आज़ादी मांगी. उनका ये मनन इस बात का सबूत है के समाज परिवार और उससे संचालित सभी गति विधियाँ अंतिम रूप से पुरुष द्वारा ही संचालित होती हैं इसलिए वो अपने को मालिक समझा कह बैठता है के उसने आज़ादी दी जबकि वास्तव में आज़ादी देने का हक़ उसे भी नहीं यह आज़ादी या तो औरत खुद ले सकती है या फिर पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव और परिस्थितियों के कारण परिवार देगा.

पहले समझते हैं की परिवार क्या है ?
कई परिभाषाएं ये मानती हैं के परिवार समाज की पहली इकाई है जो मनुष्य की पहली पाठशाला है और जहाँ मनुष्य को पहली शिक्षा मिलाती है तो अब बहुत से लोग कहेंगे के माँ ही पहली गुरु है. बात भी बिलकुल सच है . तो समझाना होगा के ये पहली इकाई कहाँ से संचालित होती है और कैसे ? क्या यह पूरी तरह लोकतान्त्रिक इकाई है? या फिर इस पहली इकाई से ही हम दो मानसिकताओं और दो समाज के लोग बना दिए जाते हैं- स्त्री और पुरुष ? अब यहीं से पितृसत्ता और समाज में उसकी पकड़ को समझाना होगा.
सबसे पहले थोडा स्त्री पुरुष का जीवन समझ लें इतिहास में या यूं कहें मानवशास्त्र के माध्यम से समझा लें.
ऐसा इतिहास में दर्ज है के स्त्री पुरुष अपने जीवन के आरंभिक दौर में एक सामान जीवन व्यतीत करते थे (शिकार युग )
दोनों शिकार पर जाते थे. काम का ऐसा कोई बटवारा नहीं था जिससमे स्त्री पुरुष के विभाजन को स्पष्ट किया जा सके सिवाय anatomycal biological structure के. जैसे जैसे समय बीता स्त्री पुरुष दोनों ने तय किया के स्त्रियाँ (विशेष कर गर्भवती ) शिकार पर नहीं जाएँगी. ऐसा इसलिए था क्योंकि अब धीरे धीरे एक संरचनात्मक व्यवस्था का गठन हो रहा था और इसमे स्त्रियों को गर्भ कल में शिकार के खतरों से बचाने के उपाय को सर्वोपरी मना गया और यह दोनों की सहमती से हुआ. किन्तु स्त्री द्वारा इस स्वीकारोक्ति का विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी. सबसे रोचक ये है के इसी दौर में स्त्रियों ने कृषि की खोज की. अपने गर्भकाल के दौरान घर बैठने के समय ने स्त्रियों ने जंगलों को समझा और उन् बीजों की खोज की जो मनुष्य के उपयोग के थे और जिसे उपजा कर खाया जा सकता था. यहीं से स्त्री और पुरुष के जीवन दो धाराओं में विभाजित हो गए. कृषि में स्त्रियों के अभिनव प्रयोग ने एक नए युग को जन्म दिया और अब मानव जीवन कृषि और उसके अधिशेष पर चलने लगा. यहाँ जीवन शिकार युग से आराम दायक और सभ्यता के विकास के लिए समय देने वाला था. और यहीं से संगठित पारिवारिक संरचना का विकास हुआ. अपने आरंभिक दौर में परिवार इतने अलोकतांत्रिक नहीं थे किन्तु कालांतर में एक पूरी पूरी सोच विक्सित हुई जिसे हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहते हैं. इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक सबसे मजबूत अंग बाज़ार भी बना कालांतर में क्योंकि अब स्त्रियों ने अपने को घर चलने में लगा लिया था और पुरुष बाहर की दुनिया में व्यस्त हो गया.
अब जब पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिशा की गयी.
दूसरी तरफ पुरुषों को उसी समाज में व्यवस्था सञ्चालन का कार्य सौंपा गया.इसीलिए वो परिवार का मुखिया बना या फिर बनाया गया. उसके मन को भी इस बात के लिए तैयार किया गया के स्त्री पर नियंत्रण बनाये रखने से व्यवस्था में व्यवधान नहीं आयेगा. इस काम में उसकी मदद धर्म जैसी संस्थाओं ने खूब दिया.

अब बात रही के औरतें ही औरतों को सताती है की -परिवार एक व्यवस्था और एक सोच पर चलने वाली संस्था है और वह सोच है पितृसत्ता. इस सोच का हिस्सा अकेले पुरुष नहीं हैं इस सोच से महिलाओं का भी गहरा सम्बन्ध है. और यदि गौर से देखा जाये तो वही इस संस्था की संचालक और शक्ति हैं.
अब सवाल है के ऐसा क्यों है ?
जैसा मैंने ऊपर कहा के " पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश की गयी"
यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी और दूसरी बात बिना महिलाओं के सहयोग के इस पूरी व्यवस्था को लागु करना बेहद मुश्किल था. इसलिए दुनिया के लगभग हर देश में ऐसे ऐसे साहित्य की रचना की गयी जिसे आदर्श बनाया जा सके और जिसके माध्यम से इन व्यवस्थाओं को लागू किया जा सके. इसी क्रम में भारत में पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गए

Monday, September 26, 2011

कवितायेँ ही मेरा लोकतंत्र हैं

वो खुश थे
जब मैं सुर्ख जोड़े मे थी
वो खुश थे जब तक
'उसके' साथ- साथ हंसती रही
वो खुश थे
जब मैं पेट से थी
और
वो खुश थे जब मैं
एक एक कर पूरी तरह बाँध दी गयी
पर
मैं खुश थी
अपनी कलम के साथ
क्योंकि
कवितायेँ ही
मेरा लोकतंत्र हैं
और ठौर हैं
मेरी आज़दखयाली का
...................................... अलका

पहाड़

आदमी को पहाड़ पसंद हैं
पर
पहाड़ों से भी पूछो कि उसे क्या पसंद है
मज़े की बात है
दोनों को पसंद हैं
हरियाली,
झरने,
बर्फ और
ऊंचे ऊंचे दरख़्त
पर समझने की बात है कि
दोनों खड़े है
आमने सामने
शक्ति परीक्षण के साथ
वो पहाड़ को मारता है
और वो विनाश् पर विनाश करता
कहता है
पहाड़ जीवन है
और आदमी
हत्यारा
पहाड़ सोना है और
आदमी डकैत
इसलिए
कोई सुलह नहीं होगी अब
सुरक्षा के सवाल पर
...............................................अलका

मैं प्रेम में तिरस्कृत लड़की

मैं प्रेम में पगी लड़की
सब तोड़कर बंध
खड़ी थी उसके सामने
मन का हिंडोला और
छुम्म छुम्म से सपने के साथ
खड़ी थी
नेह के सारे पैमाने बटोरने के लिए

मैं प्रेम में सनी लड़की
माँ की सख्त निगाहों
को स्तब्ध कर
खड़ी थी उसके सामने
अपने इरादों के साथ
ये कहते हुए के
जीवन और फैसले दोनों
मेरे हैं और होंगे
परम्पराओं मे नहीं है मेरा विश्वास

मैं प्रेम में तिरस्कृत लड़की
छिल गयी थी
उस 'ना' की दरातों से
छन्न सा हो गया था
मन का हर कोना
जिससे रिसती है अब भी
पीर लौट आयी थी तब
मर्माहत सी
फिर
अपने पास
मैं प्रेम मे तिरस्कृत एक लड़की

......................... अलका

Sunday, September 25, 2011

मेरा वक्त हो चला है

(यह कविता आज बेटी दिवस पर खास उन माता पिताओं के नाम जो भूण हत्या के लिये तैयार रहते हैं)

१.
चलती हूँ माँ
मेरा वक्त हो चला है
अपना खयाल रखना
मेरी बेवक्त मौत पर ना सिसकना
सिसक ही तो सकती हो तुम
रोने की आज़ादी कहाँ है तुम्हें
पिछली बार भी तुम हलक में दबा के आवाज़ को
सिसकती रहीं थी घंटों और
तुम्हारे ही अन्दर
क़त्ल क़र दी गयी थी मैं
बडी बेरहमी से
माँ
अच्छा अब चलती हूँ
मेरा वक्त हो चला है
क्यों सहलाती हो बार - बार अपलक निहारती हो
निर्मोही बनो
मोह ना करो
मेरा वक्त हो चला है

२.
याद है पिछ्ली बार कितना चिघारी थी
रोयी थी मैं
खूब् तड़पी थी एक एक अंग कटने पर
गुहार भी की थी दादी से, बाबा से और पापा से भी
तुम तो बेहोश थीं उस छुरी, कैंची, फोर्सिप के साथ
बेजान सी
बस मह्सूस करती रही होगी
अपने अंश का अंत
और बाकी सब
इंतज़ार में थे
एक बोझ जाने के


3
अच्छा अब बस भी करो
रोना - गाना
एक कहानी सुनाऊं तुमको
जब पिछ्ली बार मैं माँ थी
और तुम बेटी
जन्म पे तेरे
बुझे मन से स्वागत किया था सबने
तीन दिन चूल्हा बुझा रहा मातम में
तेरे दादा ने बिस्तर पकड़ लिया
और दादी ने
मेरी सोयरी में धुआं और तेज क़र
सारे सोठौरे हटा लिये थे
पेट भर खाने और दूध को तरस गयी थी
तेरे बाबू तो जैसे अंतर् ध्यान हो गये थे
अपनी अम्मा और बाबू की मंशा को भाप
वो उंन के दुख मे शरीक थे और मैं
रोज छाती निचोरती तेरे पेट के लिये
जनम जो दिया था अपने टुकडे को
टूटे शरीर और हज़ार ताने
सुनती रही बेटी जनने के
कितना कहूं , का से कहूं


एक कहानी और सुन ले
अपनी हमारी
वो सदियों पुरानी
तू माँ और मैं बेटी
जनम गयी थी मैं
सबकी इच्छा के विरूद्ध
और बस क्या था
बुझा दी गयी मैं
हज़रों तरीके थे
कभी डर से
कभी बोझ समझ्
कभी अपनी ही शान में
बाबा की चौखट पे
हां बाबा की ही चौखट पे




5
अच्छा
मैं चलती हूं उस छुरी और चाकू में वक्त हो चला है माँ
अपना खयाल रखना
सबसे यूं कहना
और घूम घूम कहना
अबकी जो आउंगी
छम्म छ्म्म आउंगी
सोने और चांदी में
झम्म् झम्म् आउंगी
आशा उम्मीदों की चादर में लिपटी
बबुल के अंगना में बहुरि बहुरि आउंगी
गोदी में उनके किलक किलक गाउंगी
सपना ही साथी है
किलक किलक गाउंगी
बहुरि बहुरि आउंगी
बाबूल से ................

बस अब वक्त हो चला है
चलती हूँ माँ
अपना खयाल रखना

------------------------- अलका

Saturday, September 24, 2011

ई जिनगी अकारथ हो गयील

1.
हर रोज ललमतिया खड़ी होती है
सुबह सुबह दरवाजे पर
मन्नी दीदी की फ्राक
भैया के हाफ पैंट उलझे हुए बालों में
छोटके बउआ के साथ
सकुचाती आँखों से मेरी तरफ देखकर
बोलती है
पेट डहकत है बड़ा भूख लागल है मलकिन
बासी रोटी चाहे दू मुट्ठी भात मिली का ?
छोटे छोटे पांच भाई बहनों की
माँ सी, बेचैन
वो बहन
हमेशा आती है बासी रोटी की आस में
चटनी आंचार मिल जाये तो
बड़ी सी मुस्कान लिए लौट जाती है
दुआयें देती
छोटके बउआ के पास

2.
कल ललमतिया की माई
बुखार में जलती
लाल लाल आंख लिये
कहंर रही थी
मैली कुचैली परदनी पहने
दरवाजे पर
मैने कहा रोज बोखार , बेमारी
और पांच पांच गो बच्चा और फेर ई पेट में?
उसकी बडी बडी आखें
दर्द से कराह उठीं
बोली -
बोटी है औरत के देह बोटी
मरद के खतिर
का कहें ए मलकिन
रोज मजूरी करत, मांग मांग खात - पहिनत
अकेल्ले जीयत
ई जिनगी अकारथ हो गयील
मलकिन
ई जिनगी अकारथ हो गयील

3.
आज ललमतिया का बाप
सफेद झक्कास कपडों में
अपनी पूरी पूरी मुस्कान के साथ
खुशहाल सा सामने खडा है
मेरे लिये
उपहार और मीठा लिये
ललमतिया भी साथ है
मनो बचपना लिये अज़ीब आंखों से पिता को
निहारती, चहकती, खिलखिलाती
जैसे कह रही हो
आज रोटी नही मांगूंगी
ना ही बासी भात
जैसे कह रही हो
मेरे पास भी बचपन है
पिता है और उसका साथ

4.
प्रश्चिन्ह लिये मेरी आंखों को देख
उसका पिता बोला
एक साल बाद आया हूँ
सोचा आपसे मिल लूं
सुमतिया बताती है
आपके बारे में
वो पेट से है और दर्द् में भी
इस् लिये आया हूँ
चार दिन की छुट्टी है
सोचा गुजार लूं कुछ दिन उसके साथ

परसों चला जाउंगा
पैसे देकर

5.
वो चला गया
ललमतिया फिर बडी होकर
खडी है दरवाजे पर
उसकी मां अंसुओं से तर – बतर
सिसक रही है
कह्ते हुए - चल गयील मर्किनौना बेईमान
चल गयील ए मल्किन
ई जिनगी अकारथ हो गयील

.......................... अलका

Friday, September 23, 2011

एक संवाद पांचाली और वैदेही का

सदियों से,
सोचते संकोचते
मन ही मन डूबते - उतराते
रोज - रोज जीते - मरते
अपने अंतर्मन को टटोलते
घनी पीड़ा, सुलगते सवाल और कई सांकलों को दबाये
मैं पांचाली
आज ,तुम्हारे द्वार खड़ी हूँ
वैदेही

हम दो युग के दो स्थापित चरित्र
एक ही पीड़ा से गुजरते
आज आमने - सामने हैं
कुछ सवालों के साथ्
माना युगों की दूरी है, छद्म का अंतर है
पर सवाल तो वहीँ हैं जहाँ खड़े थे
त्रेता में , द्वापर में और आज
हम और तुम वैसे ही स्थापित हैं
जैसे त्रेता में द्वापर में और आज
इसलिए उमड़ते हैं
तुम्हारे और अपने चरित्र पर
अपने अपने युग की व्यवस्थाओं पर
और तुम्हरी चुप्पी पर
कई सवाल
जिसको पिढियां कन्धे पर लिये
कल तुम धरती मे समाई थी
एक् अग्नि परीक्षा दी थी
वो आज भी ली जा रही है
हजारों हज़ार लक्ष्मण रेखाएं रोज खिंची जाती है
और बनाई जाती हैं चौखटें
वैदेही क्यों थी चुप्पी तुम्हारी ?
कब तक छाया बनी रहोगी?
कब तक राम को सहोगी ?
तुम्हारे हिस्से के राम राज्य ने
सदियों से कितनो को डंसा है
जानती हो राम की व्यवस्था में कहाँ हैं हम?
कभी जंगले मे, कभी अविश्वास की चिता में और कभी गुहार करते
युग बदले सदियाँ बदलीं क्या वहीँ नहीं हैं हम?
उसी तरह एक हथियार
आधी आबादी को गढ़ने का ?

पांचाली!!
सवालों के भंवर में तो मैं भी फंसी हूँ
दो युग बीत गए
प्रायश्चित की इच्छा भी है और एक खंजर भी
जो धंसा है ठीक मन के फाड़ में
पर तुमसे मैं भी सवाल करूँ क्या ?
पूछूं के भरी सभा मे अपनों के ही बीच
नग्न कर दी गयी तुम ?
पूछूं के
सारा पुरुषार्थ कहाँ मर गया था
जब बिलखती रही तुम ?
पूछूं के
एक साथ पांच पांच शौर्यों की क्या थी तुम ?
पूछूं के
तुम्हारे संकल्प को उसी सभा में क्यों नहीं पूरा कर पाए भीम
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
अर्जुन के बाण कैसे रहे शांत
तुम्हारी हृदय विदारक गुहार पर
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
कहाँ मर गया था धर्म राज का धर्म
तुम्हारी असहायता पर
बताओ
यदि पत्नी थीं तुम ?
कहाँ थे नकुल ?
और
कहाँ थे सहदेव?
और तात श्री उनकी तो आँखों का पानी ही मर गया था
चेतना सुप्त थी और भीष्म प्रतिज्ञा की चमक फीकी
कैसे वचन और कैसी मर्यादा मे बंधे थे
क्या धरती तब नहीं हिला सकते थे
जब हो रहा था इतना बड़ा अनाचार ?
क्या सभा में विरोध का भी साहस नहीं जुटा पाए
इस व्यभिचार पर ?
हे पांचाली!
मुझे भी चाहिए बहुत से सवालों के जवाब
उन सभी कथ्यों से इतर जो बचाते रहे हैं धर्म, राज और व्यवस्थाएं
उन छद्मों से अलग जो रचते हैं मार्यादा का जाल
क्या दे पाओगी जवाब?



जानती हो,
अनुतरित नहीं हैं ये प्रश्न
किन्तु क्या
पूछा किसी ने इस पांचाली से ?
जाना के मैं क्या देखती हूँ ?
ये तुम हो जो मुझसे पूछ रही हो
जानने को उत्सुक हो
मेरी आप बीती
मेरी जुबानी

'द्रौपादी' नहीं थी मैं बना दी गयी
तब किसने पूछा
मेरे मन में क्या है ?
माता कुंती भी चुप रहीं अपने पुत्रों की पशुता के सामने
हाँ ये पशुता ही तो थी
जब पञ्च मृतात्माओं के भोग की वस्तु बनी मैं
जग के लिए उपहास का पात्र
अपनी इक्षा के विरुद्ध
एक आव्ररन था तब
स्त्री होने की विवशता का, उस दी गयी शिक्षा का
और खुद को व्यवस्था का अंग समझने की नसमझी भी

पञ्च शौर्यों की बात की न तुमने ?
मेरे हिस्से का शौर्य लगे थे वो तुमको?
आदि से अंत तक?
शौर्य रहे होंगे वो कुरुक्षेत्र के
भीष्म के, कृष्ण के और उस युग और व्यवस्था के
रहे होंगे धर्म्र राज
भीम शक्ति का स्वरूप महाबलशाली
और अर्जुन सबसे बडे धनुर्धर
पर
सब अर्थ् हीन थे
धर्म भ्रष्ट था और शक्ति हीन
मेरे लिए

और वो तात श्री
क्या बोलते वैदेही
क्या बोलते वो
उनकी आँख का पानी तो उसी दिन मर गया
जब तीन - तीन का हरण कर
बाँट दिया था
उनकी इच्छा के विरुद्ध
मढ़ दी थी उनके गले वरमाला
बिना उनसे पूछे
और जवाब नहीं दे पाए
एक विरोध का
क्या बोलते वो सभा मे ?
और कृष्ण वो सखा तुम्हारे ?
जिसने तुम्हरी लाज बचाई ?
कृष्ण ने मेरी लाज नहीं
बस
मेरे भरम को बचाए रखा
कि मैं भे इस व्यवस्था का अंग हूँ

वैदेही !!
ये जवाब अकेले नहीं दे पाऊँगी मैं
ना ही अकेले सुन पाओगी तुम
युगों का अंतर है
पर हममें नहीं
सदियों की दूरी है
पर हममें नहीं
तुम्हारे हिस्से का रामराज्य उतना ही विद्रूप था
जितना मेरे हिस्से का कुरुक्षेत्र
तुम भी युद्ध में फंसी रही और मैं भी
तुम्हारे अन्दर भी माहभारत है और मेरे अन्दर भी
तुम्हारे राम सत्ता, मार्यादा और रघुकुल के प्रतीक थे
और
मेरे पति मेरे लिए मृतात्माओं की तरह जीवित थे
कहीं कुछ अलग नहीं था
हे सीते!
क्योंकि तुम भी व्यवस्था के लिए थीं और मैं भी
तुम भी गढ़ी गयी और मैं भी
तुम भी मारी गयी और मैं भी
दोनों एक ही चौखट पर खड़े हैं
क्योंकि तुम चुप रहीं और मैं चुप कर दी गयी
तुम राम को सहती रही और मैं मरे हुए के साथ जीती रही

आश्चर्य है!!
कितनी समानताएं हैं हममें
अंतर्मन मे कितना हाहाकार
और
सोचती हूँ बाँट ही लूं
अपने राम का भी सच
दे ही दूं सवालों के जवाब
अनुतरित वो भी तो बनाये
ही गये हैं
राम पुरुषों मे उत्तम थे
किंतु
मेरे लिये सम्वेदना शून्य
निरंकुश
राम राज्य सुरक्षित था सबके लिये
मेरे लिये पूरा असुरक्षित
वो महामानव थे
किंतु मेरे हिस्से के राम ?
मां कौशल्य भी कहां बोल पायीं किसी भी अमानवीयता पर?
कहां बोल पाये वो तात, वो गुरु
मुझे असुरक्षित देख क्र भी

पांचाली!!
ऐसा नहीं था कि मेरे होंठ बुदबुदाये नही
सवाल नही किये
और जवाब नही मांगे
मांगे थे जवाब और पूछे थे बहुतेरे सवाल
किंतु मेरे सारे सवलों को हत दिया गया था
और भून डाला गया
उसी चिता में जिसमें मेरी अग्नि परीक्षा ली गयी थी
ताकि बना रहे राम राज्य
सुरक्षित

तब मेरी समझ में आया
यह व्यवस्था है
सुर और असुरों की
मानवों और दानवों की
लगभग एक सी
हमारे तुम्हारे लिए
खोजो कहाँ हो तुम ?
पहचानो कौन है चुप्?
कौन् है अन्धा?

................................ अलका

Tuesday, September 20, 2011

क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती

कल रात

माँ मेरे सामने खड़ी थी

शांत चुप और सहमी सी

पर मैं दृढ थी

अपने इरादों के साथ

मरने के बाद भी मेरे सपनो में आना

चुप रहना और सहमी नज़रों से निहारना

उसकी आँखों के सवाल और मांगते जवाब

बरछी की तरह बींधते है मुझे

उसको रोज़ देखा था मैंने

मरते हुए ,

अपने स्वाभिमान को सबके पैरों में रखते हुए

हंसने को तरसते हुए

हर दिन उधेड़बुन में लगे

अपनी व्यथा को छुपाते हुए

बात बात पर झिड़की खाते

सिसकते हुए

आज वो चुप सी

निहारती है मुझे कई सवालो, डर और बेचैनी के साथ

पर

मैं शांत थी समुद्र की तरह

और चट्टान थी

अपने संकल्पों के साथ

उसके सवालों पर

क्योंकि मैं सहम नहीं सकती

उस तुनक मिजाजी से न ही चुप होकर

रख सकती हूँ अपना स्वाभिमान उसके पैरों पर

सच

मैं"माँ" नहीं बनना चाहती

न ही सहम के जीना चाहती हूँ
और ना ही सिसकना
किसी बदमिज़ाजी के साये तले

क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती

क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती



----------- अलका

ए आदमी

ए आदमी,
सुना कौन हो तुम?
क्या है तुम्हारी जात ?
कैसे रचते हो तुम अपना संसार ?
संबंधों का ताना और वो रिश्ते
जिसमे कभी पगी तो कभी फंसी हूँ मैं

ए आदमी,
आज अकेली हूँ
सोचती हूँ इतिहास में विचर लूं
अपना तुम्हारा पलट क़र कल देख लूं
मेरे हिस्से क्या आया क्या पाया
बटोर लूं
पर
बबूर सा
चुभता है कुछ, रिसता है कुछ
असंख्य घाव और अनकही
सोचती हूँ आज बांच दूं
मन पे लिखा, तन पे सहा, तनहा, सूना
और प्यार में पगा वो पल - छल
सब का सब

ए आदमी
कल का इतिहास देखोगे ?
कैसे गुजरा है कल देखोगे ?
मेरा संत्रास देखोगे ?
एक बूँद और दर्द देखोगे ?
तुम और हम अनजान
और उस सपने की बिसात
देखोगे?

ए आदमी
तुम शिव थे मैं शिवा
तुम आदम थे और मैं हव्वा
एडम और इव भी कह लो
सभी कहानियों में हम और तुम
नदी के दो पाट से
तुम इस पार मैं उस पार
कभी असमंजस लिए दुविधा में खड़े तुम
कभी साथ चलने को बेक़रार तुम
और मैं ?
कभी शिवा, कभी इव कभी वैदेही सी
कभी इंतज़ार लिए
कभी बस संसार रचते
अनुगामिनी
लोग़ बेचारी सी कहते हैं मुझे


ए आदमी
देखो ना
पाट ही तो हैं हम सदियों से
मैं स्त्री तुम पुरुष
तुम गूढ़, पुरातन और मालिक
मैं अनुगामिनी, चंचला और ऐसे ही
तुम चिरंतन सत्य और मैं माया
तुम सृष्टी के सर्जक और मैं?
शायद तुम्हारी ही सर्जना
कहा गया ऐसा ही कुछ
तुम्हारा अस्तित्व पृथ्वी के जन्म से और मैं तुम्हारे बाद आयी
अकेले ही रच लिया तुमने संसार ?
एक व्यभिचार ?

ए आदमी
तुम शिव हो सत्य हो और सुन्दर भी
तप में लीन?
क्योंकि तुम्हारे तप की तुम्हारी ही परिभाषा है
और मैं
जीने की राह में
अकेली, बेचारी, अतृप्त और पथराई
इस आस में,
भूखी - प्यासी बैठी
कि तुम आँख खोलोगे
पर तुम्हारी तीसरी आँख ही
खुलती है बार - बार
अरे!!
तुम अशांत, अस्थिर चित्त, क्रोधित से ?
क्यों?
मैंने अभी कहाँ कहा सब ?
तुमने अभी कहाँ सुना कुछ ?
तुम कहते आये
मैं चुप रही
तुम करते आये
मैं चुप रही
यह क्रम था मुझे मारने का
और मैं मरती रही


ए आदमी
तुम पति और संगिनी मैं
तुम राम वैदेही मैं
कितना अविरल प्रेम बरसा था उस पल
के मैं करोडो देवों के पैरों तले जा बैठी
पाने के लिए तुम्हे
कितना स्नेह बरपा था एक क्षण
जब तुलसी के हजारों चक्कर काट आयी
वो सिन्दूर, एक विश्वास सा
तुम्हारी बाहें विशाल वटवृक्ष सी लगी थीं
प़र चुप्पी को तोड़कर
सोचती हूँ
तुम्हारा साथ प्रश्नचिन्ह है ?
प्रेम छल
और सिन्दूर टूटा हुआ भरोसा
हर रोज़ डूबती उतराती
एक चिता प़र बैठ परीक्षा देती हूँ
पास होती हूँ और फिर बैठ जाती हूँ
उसी चिता पर
यही सिलसिला जारी है
सदियों से

ए आदमी
माँ थी मैं तुम पिता
मैं ममता और तुम पालनहार
मैं सृष्टी तुम रचनाकार
कहते हैं सब किन्तु
है ना विद्रूप ? और अहं तुम्हारा ?
जबकि
गर्भ मेरा, रचना मेरी और पालन भी मेरा
प़र संताने तुम्हारी
देह मेरी किन्तु शासन तुम्हारा
कष्ट मेरा किन्तु
सारा श्रेय तुम्हारा
मैं खाली हाथ
माँ हूँ बस ममता की मूर्ती
एक कृती और एक किर्ती

ए आदमी
आज बस इतना ही
कल के लिए कुछ बाकी रख लूं
यही एक धरोहर है मेरी
और धन भी
हम नदी के दो पाट है
दो किनारे
एक इस पार एक उस पार
दो कथाएं हैं
एक इस पार एक उस पार
कभी हाथ धरते हैं साथ के लिए
पाटने को नदी
फिर
खोजाते हैं दोनों दोनों को
पर मैं पति हूँ तुम्हे अधूरा सा ,
सच
मैं स्त्री और तुम पुरुष
मैं शिवा और शिव तुम
एक उस पार एक इस पार
ए आदमी
मिलेंगे फिर, कई कथाओं के साथ
कभी कहने को कभी सुनने को




........................ अलका

Tuesday, September 13, 2011

वैदेही

वैदेही
सामने है सबके
विराट,
कई विराम
और अल्प विराम लिए
एक घटक, रक्त की कुछ बूँदें हल की फाल
वैदेही
सामने है
अबोध, साकार
कुछ प्रश्न, व्यवस्था, सत्ता
और राम लिए
वह विदेह ही है पूरी की पूरी
सदेह मे प्रतिस्थापित
समर्पित, निःशब्द, अमूर्त सी
कवि का सबसे भयानक शाहकार
आर्तनाद, हाहाकार
विराट ..... साकार ........विदेह

कौन है राम ?
राजा राम
प्रश्न ही प्रश्न
एक प्रतिउत्तर
मर्यादापुरुषोत्तम, जनविश्वास, एक संकल्प
और वैदेही ?
अनुगामिनी, सह चरणी किन्तु अबला
यही है वैदेही .
पड़ी है . वहीँ .........
चली थी जहाँ से अनाम
हजारों आचार, असंख्य चरित्र और अनगिनत अत्याचार ओढ़े
लक्ष्मण की रेखा तोड़ने की सजा और राम के अग्निपरीक्षा की जलन
सब हैं उसके साथ
पर ,
राम का संकल्प
'क्षत्रियै धार्यते चापो
नार्त शब्द भावेदिती'
निरर्थक
लक्ष्मण की रेखा
बेकार
वैदेही सोचती है खड़ी
क्रोध और घुटन लिए
कब धरती फटेगी ?
कब होगा मेरे हिस्से के इस राम राज का अंत?
ओह! अभी तो
एक रात बाकी है
अभी पूरा श्राप बाकी है
इंतज़ार, इंतज़ार, इंतज़ार
सुनो
हे आकाश, हे पातळ, सभी दिशाओं
सुनो, सुनो,
मेरा संबोधन
सुनो
नहीं चाहिए कोई राम, जनक
और वो एक रेखा
नहीं चाहिए ये चरित्र, ये जीवन दोबारा
जिससे
आनेवाली पीढियां दंश झेलेंगी सदियों
सुनो,
हे धरती फाटो
वैदेही सामने है तुहारे
अपनी चुप्पी और एक क्रोध लिए
सामने है तुम्हरे , सामने है तुम्हारे

--------------------------------- अलका













अलका

Monday, September 12, 2011

हसरतें

मेरी किशोर वस्था दो शहरों मे बीती. इस उम्र का पहला पड़ाव आगरा मे बीता और शेष इलाहाबाद में . दोनों ही मेरे प्रिय शहर हैं. पर इलाहाबाद एक ऐसा शहर है जिससे मुझे नाराजगी भी है और अपनापन भी. शिकायतें भी हैं और इसी से प्यार भी. जब इससे दूर होती हूँ तो जैसे हूक उठती है इसे देख लेने की पर जब यहाँ आती हूँ तो यहाँ के लोंगों और शहर की व्यवस्था से ढेर सारी उम्मीद करने लगती हूँ. जो भी हो ये शहर पूरी तरह मेरे दिल दिमाग मे रचा बसा शहर है जिसका अपना ही एक व्यक्तित्व है अपनी शख्सियत. इस शहर और मुझमे ये दोस्ती इतनी आसान नहीं थी. बिलकुल अच्छा नहीं लगा था ये शहर जब हम आगरा से पहली बार यहाँ आये थे. कुछ नहीं भाता था इस शहर का मुझे. न खाना , न पहनना, न रहने का तरीका, न ही बोलने का लहजा. बहुत कोफ़्त होती थी मुझे, एक तरह की घुटन जो मुझे सांस लेने नहीं देती थी.
यह पापा का फैसला था. उन्हें ये डर था के अगर हम बच्चे आगरा मे रह गए तो अपनी संस्कृति, अपने गाँव और अपने लोंगों से दूर हो जायेंगे और उन्होंने अगर से इलाहाबाद ट्रांसफर करा लिया. हम चोरो भाई बहनों को ये कुछ अच्छा नहीं लगा पर मन मार कार आना ही पड़ा. हालाँकि आगरा मे मेरे ऊपर बंदिशों का कारोबार शुरू हो चुका था किन्तु फिर भी उस शहर से मेरा काफी लगाव था. ६ महत्वपूर्ण साल गुजारे थे हमने यहाँ. यहीं हमारे बचपन ने किशोरावस्था मे प्रवेश किया. यही वज़ह थी के हम दिल से ये शहर नहीं छोड़ना चाहते थे.
हम चूँकि यहीं पर बड़े हुए थे इसलिए यहं की संस्कृति और लोग हमें अच्छे लगते थे. हम जिस कालोनी मे रहते थे वो उस समय नयी बस रही थी. ये जयपुर हाउस के आगे प्रतापनगर कालोनी थे. जब हम वहां रहने गए थे तो कोई ४ - ६ परिवार ही वहां रहते थे. आये दिन वहां चोरियां और डकैती की ख़बरें आती रहती थीं. उस घर मे जब भी हम रात मे सोते अक्सर कराहने और चिल्लाने की आवाजें आतीं. कभी कोई किसी को चाकू मरता कभी कोई किसी को लूट लेता. कई बार महिलायेंहिलाएं दुर्घटनाओं का शिकार बनतीं. अम्मा जब सहम के पापा से कुछ कहती तो वो कहते हमारे घर मे है ही क्या जो कोई हमारे घर में चोरी करेगा? पर अम्मा डरती थी क्योंकि आगरा मे बच्चों की चोरी की बहुत ख़बरें आती थी. वो हर समय मेरे हम भाई बहनों को लेकर बहुत चिंता करती थी.
जब हम आगरा मे शुरू शुरू मे आये थे तब हमें आगरा भी नहीं भाता था. हम पहाड़ों से आये थे. पिथोरागढ़ से. बचपन का बहुत सा हिस्सा वहां बीता था इसलिए पहाड़ों का बहुत असर था हमारी सोच और पूरे आचरण मे जो इस नयी इस नयी सोहबत मे सुखी नहीं महसूस करता था किन्तु बचपन और उसकी सरलता अपने तरह की अनूठी होती है. बहुत सहज, सरल, सुकोमल और सिधी सच्ची.और हम भी ऐसे ही दौर से गुजर रहे थे इसलिए आसानी से बेरीनाग (पिथौरागढ़) को भूलने लगे और नयी संस्कृति को आत्म सात करने लगे. पर ये दो संस्कृतियों का फर्क था एक पंजाब प्रभावी संस्कृति और दूसरी वादियों की शफ्फाक संस्कृति. मन तो दूसरी मे ही रमता था.

जब हम आगरा मे नए नए आये थे तो शाहगंज मोहल्ले में एक मकान मे किराये पर रहते थे. उस माकन मे एक किरायेदार पहले से था कुलमिलाकर हम उस माकन में दो ही किरायेदार रहते थे. आधे मे एक पंजाबी परिवार रहता था और आधे मे हम. वह एक रेफूजी परिवार था जो ८० तक आगरा मे पूरी तरह बस नहीं पाया था .उस पंजाबी परिवार मे ३ बहन और २ भाई थे और बूढ़े माता - पिता. उनकी शाहगंज बाज़ार मे एक छोले चावल की दुकान थी. दोनों छोटे भाई बहन और बोधा बाप उस दूकान पर बैठते थे बूढी माँ दिन भर बड़ियाँ बनाती रहती. बड़ा भाई बाहर कहीं नौकरी करता था. मैंने पहली बार देखा था घर मे बड़े भाई की हैसियत क्या होती है और कैसे वो घर मे छोटे भाई बहनों के लिए पिता की तरह फैसले लेने लगता है. कठिन आर्थिक स्थितियों मे जीने वाले इस परिवार की त्रासदी दो बेटियां थीं. जो दिनभर सदियों में सलमा सितारे टांका करती थीं. पर अम्मा उस परिवार को देखकर हमेशा सहमी रहती थी और मुझे उसकी तरफ से एक सख्त हिदायत थी के मैं उस परिवार के किसी सदस्य से बात न करूँ. मुझे माँ पर रोज़ गुस्सा आता.

एक रात जब हम सो गए तो आंगन के उस पार से खूब आवाजें आने लगीं झगड़े की. एक अनजान आदमी उस परिवार की बड़ी लड़की का नाम लेकर गलियां दे रहा था उसे घसीट रहा था और कहीं चलने को कह रहा था और वो लड़की रोये जा रही थी और अपने ही माँ बाप के सामने हाथ जोड़ कर कह रही थी " मेनू नयी जाना बेबे, मनु नयी जाना'' वो इतनी जोर जोर से चिल्ला रही थी के हम सब जग गए. पापा ने खिड़की से देखा और बाहर आये बोले " क्या इतनी रात मे शोर मचा रखा है आप लोंगों ने ? क्यों रो रही है बच्ची?" उसी समय उसके बड़े भाई ने बीच मे दखल दिया और बीच बचाव करने लगा. बाद मे मोहल्ले वालों ने बताया के उस परिवार ने एक हफ्ते के लिए अपनी बड़ी लड़की को किसी के हवाले कर दिया था पैसे लेकर. पता नहीं ये बात सच थी के नहीं पर ऐसी लड़ियाँ उस घर मे रोज़ होतीं.
उसी समय पापा ने फैसला किया के वो नया माकन खोजेंगे और हम प्रताप नगर कालोनी में आ गए. एक दम सुनसान वीरान कालोनी.

Wednesday, September 7, 2011

एक शाम,,

एक शाम,,

जब उंगली उठाई थी

कुछ लिखने को, और

दर्द बयां करने के लिए

बुरा लगा था -

पिता को , भाई को, उस पूरे

गलियारे को

जो मेरी सुरक्षा की कसमें खाता था

आज

जब लिख डाला है , सब

वो सामने खड़े हैं

गर्व से कहते हुए के

हमने अपने घर से

परिवर्तन को हवा दी है

ये मेरी बेटी है जो

सामने खड़ी है



----------- अलका

मैं यही हूँ

नीड़ है, निर्माण है, रिश्ते हैं और चूल्हा है.

यही मेरी दुनिया है,

ज़माने से बताई गयी.

चिपक गया है ये कारोबार बोझ सा मुझपर

बचपन था, माँ थी और एक डर

बैठा सा,

ऐसे ही तराशा गया जो सपनो के पर फैले

यही दास्ताँ है औरत की जो बनाई गयी

कलम थी, पन्ने थे, एक अहसास

निकलने को बेताब

लिखा है जो कुछ

सच है, परत -दर- परत

छुपा है जो कुछ समझ सको तो निकालो

शब्द हैं, भाव हैं, मायने हैं बहुत

मैं औरत हूँ लिख रही हूँ

अपना बयान

दर्ज करना हो करो न करो

चूल्हे का और मेरा रिश्ता

मैं यही हूँ

एक आंच है ज़माने से मेरे साथ



--------------------- अलका

Monday, September 5, 2011

पिता

पिता !!
इंसान से अधिक एक चरित्र है,
जिसे गढ्ता है समाज अपने सांचे मे
सिखाता है उसे,पुरुष होने के अदब्,कायदे,क्रोध
और एक तरह की सम्वेदन हीनता
एक भरम के लिये, एक पखण्ड् के नाम पर,

पिता !!
रिश्ते से अधिक एक डर है,
जिसका रौद्र रचता है कई इतिहास
खींचता है एक लकीर
कभी समाज के सम्मान के लिये, जाति के गर्व के लिये
और कभी अपने दंभ और अभिमान के लिये

पिता !!
पिता पूरी की पूरी एक व्यवस्था है
एक आचार सहिता
जिसे आंख खोलने से लेकर पैरो पर खड्रे होने तक
जीना ही पड्ता है घर और बाहर दोनो
कभी अपने लिये कभी घर के लिये
और कभी उस बडे से डर के लिये
जो छुपा बैठा है अनजाने

पिता !!
एक प्रतिबन्ध है
जिसे पसन्द नही^ बगावत, बहस और स्वतंत्रता
क्योंकि वह् एक पूरी सत्ता है
उसे चहिये सम्मान, अधिकार और बल
व्यवस्थाये बनाये रखने के लिये
घर और बाहर दोनो



पिता !!

एक मुखिया है,
सम्मान है, आदर है और अंत मे एक परम्परा
जो दे जाता है
सब कुछ आने वाले कल को
बनाये रखने के लिये एक व्यवस्था
ताकि बची रहे अस्था पिता के चरित्र में
और बना रहे खौफ घर के मुखिया का
जीता रहे घर इसके साये मे
खुश रहे समाज और बने रहें कायदे

पिता !!
एक पूरा का पूरा मौन है
एक रहस्य एक चुप्पी,
देश के प्रधान की तरह जो तलशता है रास्ते
बच निकलने के सवलो से, जबाबो से
तकि बनी रहे व्यवस्था

जब पूछती हूं बहुत कुछ
और
करती हूं सवाल के -



पिता क्यों है ये साये तुम पर,
तुम्हारे चरित्र और चेतना पर?
क्यो फैला है ये डर, ये दह्शत
तुमहारे आस – पास
क्यो डरते है तुम्हरे ही अपने तुम्हरी
एक नज़र से
उड्ना चाहते है जो आकाश में तलाशते हैं जो रास्ता
डर जाते हैं तुम्हारे
अस्तित्व, आशा और बनाये गये
कायदों से?

कहती हूं -

पिता
मुझे खुशी चहिये, प्यार भी और
मा की ममता सा सुकोमल अह्सास भी
मुझे आत्म् विस्वास चहिये और सुरक्षा का
अंत हीन अकाश भी
मुझे तुम्हारे चरित्र के डरावने सायो से
घुट्न होती है,
चुभते है तुम्हरी सन्हिता के आचार
क़्या बदलोगे इन्हे?
क्या मिल पयेगा मुझे कभी
मागी हुई खुशियो का सन्सार ?


नहीं मिलता है
जवाब
ना आशा, ना आश्वाशन और उम्मीद्
बस दिखता है
आंखों मे जकडा समाज, व्यव्स्था और धधकता सा एक क्रोध अनवरत,
कभी – कभी उससे ना निकल पाने की लाचरगी
पर मैं देख पाती हूं
उसकी कोरों में मरी हुई दो बूदें

इसीलिये
पिता एक अंतर्द्वन्द है, एक सवाल





---------------------------------------- अलका

Sunday, September 4, 2011

हसरतें

जैसे जैसे मेरे लिए घर के दरवाजे और खिड़कियों पे ताला लगाना शुरू हुआ मेरे अन्दर रोज नयी - नयी हसरतें पैदा होने लगीं. इस हसरत को बढ़ाने का काम मेरा एकलौता दोस्त रेडिओ करता था. मुझे गायकों मे मुहम्मद रफ़ी बहुत पसंद थे और गायिकाओं मे गीता दत्त. मैं जैसे उनकी दीवानी थी. जब गीता दत्त का गाना आता 'एल्लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे काहे का झगडा बालम नयी - नयी प्रीत रे' मैं जैसे झूम जाती. कभी कभी महसूस करती जैसे मैं उसपर एक्ट कर रही हूँ और जब रफ़ी साहेब गाते तो मैं आँखें बंद करके उन्हें सुनती. जब हमारे घर मे रेदिओ नहि था तो मैन कान लगाये रहती जब पडॉसी के रेडिअअ पर उंनका गाना बजता तो. मेरी और उस मर्फी रेडिओ की दोस्ती कुछ इस कदर बढ़ गयी थी कि सोते जागते वो मेरे साथ रहता. इस दौरान एक नयी आदत मेरे अन्दर घर कर रही थी. अब मैं बहुत सी बातें अम्मा पापा से छुपाने लगी थी. डर लगता था कि अगर उंनसे कहा तो डांट पड़ेगी. अक्सर मैं अपने कपड़ों को काटपीट कार ऐसा सिलने की कोशिश करती जैसा के मैं पहनना चाहती थी. छुप छुप कर डायरी लिखती. चूल्हे मे कुछ ऐसा बनाने की कोशिश करती जैसा मैं खाना चाहती. सबसे ख़राब आदत जो इस समय बन रही थी वो थी चूल्हे पर चढ़ा कुछ भी हो उसे बिना उतारे चख लेने की. मेंरी ये सारी हरकतें आप्पत्ति जनक थी अम्मा और नानी की नज़रों मे. अम्मा कहती: चूल्हे पर चढ़ा खाना नहीं खाना चाहिए. चूल्हे पर चढ़ा खाना विष्णु भगवान् को भोग लगता रहता है. यह पाप है. मेरी समझ मे उसका ये शास्त्र नहीं आता था और मैं ये गलती बार बार कर देती थी. पर अम्मा की नज़र भी कम तगड़ी नहीं थी वो पकड़ ही लेती थी और धर देती थी दो चमाट.
इन दिनों मेरी जिंदगी मे अजीब -अजीब घटनाएँ भी घटने लगीं थीं और नए- नए अनुभव भी मेरी झोली मे आने लगे थे. पुरुष को मैंने पिता और भाई के रूप मे ही अब तक जाना था जो मुझे दुनिया से मुझे बचाता था (छिपता था). जो अगर कोई बुरी नज़र से मुझे देखने की कोशिश करे तो उसकी आँखे फोड़ने को उतारू हो जाता था. मैं कैसे उठूँ कैसे बैठूं या क्या पहनू इसके नियम बानाता था. मैं क्या देखूं ये भी उसके दायरे मे आता था. पुरुष को मैंने कुछ इसी रूप मे जाना और समझा था चाहे अपने लिए या फिर अपने आस -पास की दूसरी महिलाओं के सन्दर्भ मे भी. पर इस दौर मे मुझे पुरुष के और उसकी आँखों के साथ एक और अनुभूति होने लगी थी जो मुझे हर रोज रोम - रोम पुलकित भी करती और डर भी पैदा करती. ऐसी अनुभूति जिसे किसी के कहने से अनायास ही शर्म का अनुभव होने लगता था. मैं इस अहसास को किसी के साथ बांटना नहीं चाहती थी.
मैं आगरा के भगवती देवी जैन श्चूल मे ९ वीं के छटा थी मेरा घर मेरे स्कूल से काफी दूर था इसलिए मैं बस से स्कूल जाती थी. बस हमें पहली ट्रिप मे लेती थी इसलिए १० बजे के स्कूल के लिए भी हमें ७ बजे सुबह तैयार होकर खड़ा हो जाना पड़ता था. मैं हर रोज ७ बजे तैयार हो कर एक खास जगह पर खड़ी हो जाती थी. एक दिन मैंने देखा कि जहाँ मैं खड़ी होती हूँ उसके ऊपर की छत पर से कोई मुझे बराबर देखे जा रहा है. मैंने नज़र घुमा ली और सोचने लगी ये आदमी क्यों देख रहा है मुझे? थोरी देर मे बस आयी और मैं उसपर चढ़ कर चली गयी. दूसरे दिन मैंने देखा के वो दो आँखें लगातार मुझे घूर रही हैं. तीसरे दिन भी और फ़िर रोज़ रोज़. मन मे डर भी लगता पर कहीं न कहीं एक सुखद अनुभूति भी होती. अम्मा से कहूं ? और अन्दर से जवाब आता नहीं. एक और बड़ा परिवर्तन मेरे अन्दर आने लगा. मैं स्कूल जाने के लिए जब तैयार होती तो बहुत ध्यान देने लगी अपने पर. अम्मा अपने बिस्टर से मुझे बराबर घूरती रहतीं. उनकी दोनों ऑंखें डर पैदा करती थी मुझमे. पर मन था कि मानता नहीं था. एक दिन मेनन जब दो की जगह एक छोटी करके स्कूल जाने लगी तो अम्मा उबल पड़ी - बोलीं स्कूल जा रही हो या तफरी करने ? मैंने उनको टालते हुए जवाब दिया टाइम नहीं है न दो छोटी करने मे समय लगेगा और वो चुप हो गयीं. पर कहीं नकहीं वो मुझ पर शक कर बैठीं कि कोई न कोई बात तो है. आज सोचती हूँ माँ की निगाहें कितनी तेज होती हैं अपने बच्चों को लेकर. उन्होंने पापा से कुछ भी शेयर नहीं किया पर मुझपर नज़र रखने लगीं.
यह अनुभूति कुछ इतनी सुखद थी के मैं भी उन दो नज़रों का इंतज़ार करने लगी. स्कूल जाने से पहले एक बार उन आँखों को देखने की ख्वाहिश मन मे पैदा होने लगी. जिस दिन वो आँखे मुझे नज़र नहीं आतीं या चुप चाप पढ़ रही होतीं मुझे बहुत दुःख होता और गुस्सा भी आता. अब मैं अपने चेहरे के निखार, अपने बालों की सुन्दरता का खास ख्याल रखने लगी. हर रोज़ उबटन , तेल और नयी नयी तरकीब की जुगत मे लगी रहती जिससे मैं और सुन्दर दीखने लगूं.

Saturday, September 3, 2011

बैरगिया नाला और उसका रहस्य

बैरागिया नाला की कहानी बेहद रोचक है. यह बात उस समय की है जब यात्रा बहुत कठिन हुआ करती थी. लोग़ अक्सर पैदल या बैल गाड़ी से यात्रा करते थे. तब बैलगाड़ी भी वैभव का हिस्सा होती थी आम लोग़ खाने पीने का सामान लेकर पैदल ही यात्रा करते थे. इलाहाबाद और बनारस दो ऐसी जगहें थी जहाँ तीर्थ यात्री बहुत आते थे. सामान्य यात्रायें भी यहाँ बहुत होती थी. इन दोनों नगरों के बीच एक नाला पड़ता था जिसे बैरागिया नाला कहते थे. इस नाले की खासियत यह थी के इसे पार किये बिना इलाहाबाद के लोग़ बनारस नहीं जा सकते थे नहीं बनारस के लोग़ इलाहाबाद जा सकते थे. इसी नाले के पास धुनी राम के ३ दोस्त रहने लगे. ये तीनो दोस्त बैरागी के भेष में रहते इसलिए लोग़ उन्हें बैरागी कहते और नाले को बैरागिया नाला कहके पुकारते.



उन्हीं दिनों बैरागिया नाला के पास से ये ख़बरें आने लगीं के वहां यात्रियों को लूट लिया जा रहा है. कौन लूट रहा है ये लम्बे समय तक राज रहा. लोग़ एक तरफ तीर्थ यात्रा का मोह नहीं छोर पाते और दूसरी तरफ अपने लुटने को भगवन भरोसे डालकर यात्रायें करते रहते. एक दिन यात्रियों के एक समूह ने कुछ गौर किया. चूँकि उस समूह ने उस दिन बहुत सावधानी नहीं बरती थी इसलिए उसने यात्रा करने वाले दूसरे समूह से इसपर चर्चा की. धीरे धीरे यह बात आग की तरह फ़ैल गयी औ लोगों ने तय किया कि बैरागिया नाला की तरफ से जाने वाले लोगों को इस धटना पर ध्यान देने को कहा जायेगा. अगले समूह ने ध्यान दिया औ पाया कि नाले पे रहने वाले ३ साधू ही लोगों को लूटते हैं. लोगों ने उनको सबके सामने लाने की योजना बनाई और चल पड़े नाले की ओर. यात्रिओं ने तीन समूह बनाये ऐसा इसलिए क्योंकि नाले के संरचना कुछ इस तरह की थी के एक बार में कुछ खास संख्या में ही लोग़ जा सकते थे. जैसे ही नाले के अन्दर पहला समूह दाखिल हुआ तीनो अपनी आदत के मुताबिक लोगों को लूटने लगे. पहले समूह ने अपनी योज़ना के अनुसार बाहर के समूह को आवाज़ दी और बाहर से बारी बारी से सारे यात्री अन्दर आ गए और तीनो की खूब पिटाई की और बैरागिया नाले का आतंक ख़तम हुआ.



इस पूरे घटना क्रम में उन तीन चोरों द्वारा यात्रियों को लूटने की तकनीक इस घटना का सबसे रोचक हिस्सा है. तीनो चोर्रों ने उस नाले पर चोरी की एक रणनिति बनाई थी. एक चोर 'दामोदर' चिल्लाता जब यात्री उसे आते हुए दिख जाता.दामोदर का अर्थ था जिसके उदर में दाम हो - मतलब यात्री मालदार है. दूसरा चोर चिल्लाता 'नारायण' मतलब यात्री नाले के भीतर पहुँच गया है. नारयन क अर्थ था यात्री नारी मे आ चुक है. यनि नारायन . तब तीसरा आवाज़ देता बासदेव मतलब अब मारों (बासदेव का मतलब था चोरों के लिए के अब बांस से मारो). लोगों ने जब चोरों के ही तरीके से उन चोरों को मारा तब ये कहावत चल पड़ी -



बैरागिया नाला जुलुम जोर

नव पथिक नचावत तीन चोर

जब एक एक पर तीन तीन

तब तबला बाजे धीन धीन



(ये घटना मुझे मेरे पापा ने सुनायी थी और मैं आप सब से इसे शेयर क़र रही हूँ )







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हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल HBFI: ब्लॉगर्स मीट वीकली 6 की ख़ास बात

हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल HBFI: ब्लॉगर्स मीट वीकली 6 की ख़ास बात

Friday, September 2, 2011

हसरतें


किशोर मन बहुत अजीब - अजीब सपने देखता है, उसपर भरोसा करता है और उसे जीने की कोशिश करता है. इस उम्र के सपने सचमुच एक परी कथा की तरह होते हैं, मचल मचल क़र बाहर आने को बेताब रहते है. कभी कभी इतना चंचल के हवा की रफ़्तार भी धीमी लगाने लगे. मन होता है पूरी दुनिया को बता दिया जाये के उनके मन मे क्या है.कोई बार इन सपनो का मजाक उडाता है , चुटकियाँ लेता है , ताने कसता है या फ़िर तड़ी लगता है तो मन मे गुस्सा, दुःख और आक्रोश एक साथ उठ कड़े होते हैं. कई बार मन इतना मजबूत भी होता है के दूसरों की बात सुनाने को तैयार नहीं होता मेरा मन ऐसे ही कुलांचे भरता था, बार बार मन मचला करता था पर बड़े लोंगों की अनदेखी जो बेरूखी सी लगती थी. एक अजीब से डर पैदा करती थीइकल भर. जबान से कुछ भी निकल भर पाने भर से जैसे हवा मे कई तरह के भाव तैरने लगते थे. ओखे किसी की त्योरियां टेढ़ी दिखाती तो किसी के होटों पर तिरछी मुस्कान और किसी की मुठ्ठियाँ भींच जाती. माँ की बीमारी और काम के बोझ के बीच मेरे ये अनोखे सपने ही मेरे सबसे अच्छे साथी थे. मैं हर पल इनको सहेजे रहती क्योंकि मैं जिन्दा ही इसी से रहती थी.

मैं जो अपनी छोटी छोटी हसरतें पाल रही थी उसका घर मे विरोध भी था. उसे मेरा बचपना नाम देकर कभी टालने की कोशिश होती कभी उसीपर डाट पड़ने लगती. ये करो, वो किया के नहीं वहां जाओ. आदि आदि. पापा तक मेरे इस विकास की खबर नहीं पहुंची थी. अब मैं उनसे अपने मन की बात छुपाने लगे थी. एक ख़ास तरह का डर पापा से लगाने लगा था क्योंकि जैसे जैसे मैं बड़ी हो रही थी वो दोस्त और पापा की दहलीज पार क़र पिता बनते जा रहे थी ठीक वैसे ही जैसा पिता उन्होंने अपने बचपन से लेकर आज तक अपने आसपास देखा था. गुर्राई आन्खोवाला दमदार पिता जिसके सामने सबकी घिघ्घी बंध जाये. मेरे लिए अब उनका ये नया अवतार था.

सच क्या उम्र होती है ये - नया नया शौक चर्राया था उर्दू लिखने बोलने और पढ़ने का. ग़ालिब और मीर तकी मीर और फ़राज़ को पढ़ना, सुनना और गुनगुनाना मुझे एक ऐसी रंगीन दुनिया मे ले जाता जहाँ अपने सपनो की मै ही हीरोइन होती. जहाँ मैं अपने आप पर ही मुग्ध रहती. पहली बार जब चार लाइन लिखीं तीन तो माँ के रोंगटे खड़े हो गए. कड़क आवाज़ मे बिस्तर पर से ही पूछा - ये क्या है बुलबुल ? मैंने मचलते हुए कहा - पढो न अम्मा मैंने लिखा है. पढो न कैसा लिखा है ? अम्मा से मैं डरती बहुत थी पर लिखने -पढ़ने की दुनिया मे नहीं वहां मुझे उससे बहुत प्रोत्साहन मिलाता. जब कक्षा ३ मे थी तभी उसने 'स्वप्न वासवदत्ता' पढ़ा दिया था मुझे. हर रोज मुझे निशान लगाकर देती और समझ न आने पर बैठ क़र समझाती मुझे. एक एक करके उसने मुझे संस्कृत के कई ग्रन्थ पढ़ा दिए थे. जैसे किरात अर्जुनियम, बाण भट्ट की 'कादंबरी' आदि. संस्कृत साहित्य मे अन्य बातों के साथ प्रेम का रंग बहुत ही गहरा है. स्वप्न वासवदत्ता मे यह और भी उभर क़र आता है. संस्कृत साहित्य की रूमानियत से मैं अभिभूत रहती. इसलिए जब लिखना शुरू किया तो उसका साया मेरे एक एक शब्द मे झलकता था . माँ ने ये बात समझ ली थी इसलिए उसने मुझे उर्दू और हिंदी साहित्य की तरफ मोड़ा वो बंगला साहित्य की भी दीवानी थी सो आशा पूर्णा देवी की 'प्रथम प्रतिश्रुति' मेरे सामने पटक दी और बोली औरतों की दुनिया की हकीकत को समझो. फ़िर 'बकुल कथा' वो सपनो की रंगीन दुनिया से मुझे हकीकत के जंगल मे ले जाना चाहती थी जहाँ औरत वासवदत्ता जैसी नहीं थी ना ही शकुंतला की तरह थी जहाँ उसका दुष्यंत उसे लेने आता है. अम्मा ने अपने आस पास की औरतों को मेरा विषय बनाने का काम करना शुरू क़र दिया. पर मन था की मानता नहीं था मैं रूमानियत की दुनिया से बाहर ही नहीं आना चाहती ही नहीं थी. बड़ा मज़ा आता था सपने देखने और सोचने मे.

माँ की बीमारी के दौरान नानी लम्बे समय तक हमारे साथ रहीं. नानी एक अलग दुनिया की जीव थी. अलग संसार और अलग तहजीब की. उनकी दुनिया मे तो मुझे सांस लेने मे भी घुटन होती थी. वो बिहार के एक जमीदार परिवार मे पैदा हुई थी जहाँ के संस्कार हमारे शहरी जीवन और सोच से मेल नहीं खाते थे. कहने को तो वो पढ़ी लिखी थी पर औरतों को लेकर उनके ख्याल बहुत ही पारंपरिक थे. जोर से बोलना, हँसाना - खिलखिलाना, बहस करना, तन क़र चलना और पिता के सामने खड़े होना उनकी डिक्सनरी मे नहीं था और मैं हर रोज उनके नियम तोड़ती. कभी कभी वो माँ पर बिफर उठतीं - पाल रही हो ना बेटी पता नहीं किस घर मे बसेगी ? ना खड़े होने का सलीका ना बोलने का सलीका ना ही कपडे पहने का सलीका ? इससे ज्यादा सलीकेदार तो हमारे घर मे काम करने वाली लड़कियाँ हैं. अम्मा चुप होकर सो जाती. दरअसल ये एक जेनेरेसन गैप था. नानी का जमाना उन्हें कई बातों की इज़ाज़त नहीं देता था. पर मैं कहाँ उनके ज़माने और उनकी बात मानने वालों मे थे. मुझे उनकी एक नसीहत अच्छी नहीं लगती थी. वो जब मुझे कंधे झुका के चलने की बात करतीं मैं उनके सामने से हट जाती. कई बार उनकी अनसुनी करके अपना विरोध भी जाहिर क़र देती. अम्मा से अक्सर पूछती कैसे जीती थी तुम इस तानाशाही मे ? वो चुप चाप मुझे निहारने लगती. कभी कभी जब अपने सपने मुझसे बाँटती तो मन झूम जाता. आने आकाश मे उड़ने लगता और आश्चर्य से कहता अम्मा भी तो ऐसी ही थी मैं कोई गलत नहीं क़र रही. आज सोचती हूँ तो लगता है अज्ज़ब तरह से बड़ी हो रही थी मैं. एक अजीब तरह का सम्बल तलाशती रहती थी मैं अपने सपनो को पर देने के लिए.

Thursday, September 1, 2011

हसरतें

जब हमारी पीढ़ी किशोरावस्था की दहलीज़ पर पहुंची तो बाहर की दुनिया के आकर्षण बहुत दूसरे तरह के थे. लोंगों से बात करने तथा मिलने जुलने के लिए इन्टरनेट की दुनिया नहीं थी न ही टेलिविज़न ऐसा था जिसे देख कर आप कभी भी मन बहला सकें. टीवी तो कोई दो चार घरों मे ही थी वो भी कुछ बड़े शहरों मे.ही. उस समय पापा की पोस्टिंग आगरा मे थी. हम कई घरों पर लम्बे लम्बे एंटीना देख कर मचल जाते थे और कई बार हम सब पापा से जिद करते कि हमें टीवी चाहिए. सच कहूँ तो टीवी उस समय महगे सामानों मे गिना जाता था और बहुत पैसे वाले ही इसे रखते थे. शायद पापा का बजट इसकी इज़ाज़त नहीं देता था सो पापा टीवी तो नहीं लाये पर हाँ एक मर्फी रेडिओ जरूर हमारे लिए लेकर आ गए. हम भाई बहनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा.उस डब्बे के भीतर से आने वाली आवाजें हमें बहुत आकर्षित करती थी. हम स्टेशन बदल बदल के कई कार्य क्रम सुनते. पापा रात मे बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का हिंदी और उर्दू कार्यक्रम सुनते थे और साथ मे हमें भी सुनते थे. जैसे ही उससे आवाज़ आती - ये बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की हिंदी सेवा है हम सब रेडिओ से चिपक जाते. बीबीसी के कई एंकर और उनकी आवाज़ हमारे ज़ेहन मे बसे हुए थे. हमारे साथ के बच्चे बीबीसी नहीं सुनते थे उनकी दुनिया खेल कूद और तमाम अन्य कामो में गुजर जाती. तब हम बड़े गर्व से उन्हें बीबीसी की ख़बरें सुनाया करते थे. हम उनको बताते के दुनिया मे क्या हो रहा है. अचानक हमें अपने उम्र के लोगों से अधिक जानकारी होने लगी थी जिसका हमें खासा गर्व था.
यह वही समय था जब मेरे ऊपर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए थे. मेरा शरीर लोंगों को नज़र आने लगा था. खासकर पड़ोसियों और रिश्तेदारों को. वो अम्मा को थाली भर भर कर नसीहतें देने लगे. ये मैं इसलिए बता रही हूँ क्योंकि रेडिओ की दुनिया ने मुझे सपनो के एक नयी दुनिया दिखाई थी मैं उस दुनिया का हिस्सा बनाने के सपने देखने लगी थी पर मेरी उम्र के इस दौर ने मेरे लिए एक जेल बनानी शुरू कर दी थी. मेरा खेलना कूदना, सहेलियों के घर जाने सब पर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए थे अजीब मुसीबत थी. अचानक मेरी जिंदगी मे इतने दरवाजे और चौखटें खड़ी हो गयी तीन के उसे पार करना मुझे कठिन लगने लगा था. पहली बार लगा बचपन ख़तम हो गया और मैं किसी नयी दुनिया मे पहुँच गयी हूँ. अम्मा पापा कोई भी न तो मेरी कोई बात सुनाता और न ही मेरी बातों को गंभीरता से लेता. लगता था रिश्तों के सारे अनुभव एक नयी परिभाषा मे बदल गए हैं. पर एक बात मुझे बहुत खुशनुमा अहसास देती थी. अपने शरीर के बदलने का अहसास. अपने चहरे एक नए निखार का अहसास. जब मैं आईने के सामने खड़ी होती घंटों अपने को निहारती. बड़ा अजीब सब कुछ था. दिमाग मे सवाल थे कि कम ही नहीं होते थे. आँख के आंसू ख़त्म नहीं होते थे. अम्मा का चेहरा और उसपर खिची लकीरें बहुत तकलीफ पहुंचती थी. सबसे अधिक दुःख था पापा का अचानक बदल जाना.
मुझे याद आता था पिछला सब कुछ. अपनी जिंदगी का वो सरल दिन. ये भी कि जब मैं डीबेट मे भाग लेती और पुरस्कार जीत कर लाती तो पापा का उत्साह दुगुना हो जाता और वो मुझे अगली डीबेट में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते. समझ नहीं आता था के अब मेरी उन सभी गतिविधियों को जैसे रस्सियों से गतरा जाने लगा था. अजीब उम्र थी ये जब मैं इस सारे बद्लाओं को न तो समझ पा रही थी ना ही प्रतिरोध कर पा रही थी.
अम्मा इसी समय बीमार हो गयीं ऐसी बीमार कि लम्बे समय तक बिस्तर पर रहीं और अचानक घर की जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर आ गिरीं.