Thursday, September 1, 2011

हसरतें

जब हमारी पीढ़ी किशोरावस्था की दहलीज़ पर पहुंची तो बाहर की दुनिया के आकर्षण बहुत दूसरे तरह के थे. लोंगों से बात करने तथा मिलने जुलने के लिए इन्टरनेट की दुनिया नहीं थी न ही टेलिविज़न ऐसा था जिसे देख कर आप कभी भी मन बहला सकें. टीवी तो कोई दो चार घरों मे ही थी वो भी कुछ बड़े शहरों मे.ही. उस समय पापा की पोस्टिंग आगरा मे थी. हम कई घरों पर लम्बे लम्बे एंटीना देख कर मचल जाते थे और कई बार हम सब पापा से जिद करते कि हमें टीवी चाहिए. सच कहूँ तो टीवी उस समय महगे सामानों मे गिना जाता था और बहुत पैसे वाले ही इसे रखते थे. शायद पापा का बजट इसकी इज़ाज़त नहीं देता था सो पापा टीवी तो नहीं लाये पर हाँ एक मर्फी रेडिओ जरूर हमारे लिए लेकर आ गए. हम भाई बहनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा.उस डब्बे के भीतर से आने वाली आवाजें हमें बहुत आकर्षित करती थी. हम स्टेशन बदल बदल के कई कार्य क्रम सुनते. पापा रात मे बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का हिंदी और उर्दू कार्यक्रम सुनते थे और साथ मे हमें भी सुनते थे. जैसे ही उससे आवाज़ आती - ये बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की हिंदी सेवा है हम सब रेडिओ से चिपक जाते. बीबीसी के कई एंकर और उनकी आवाज़ हमारे ज़ेहन मे बसे हुए थे. हमारे साथ के बच्चे बीबीसी नहीं सुनते थे उनकी दुनिया खेल कूद और तमाम अन्य कामो में गुजर जाती. तब हम बड़े गर्व से उन्हें बीबीसी की ख़बरें सुनाया करते थे. हम उनको बताते के दुनिया मे क्या हो रहा है. अचानक हमें अपने उम्र के लोगों से अधिक जानकारी होने लगी थी जिसका हमें खासा गर्व था.
यह वही समय था जब मेरे ऊपर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए थे. मेरा शरीर लोंगों को नज़र आने लगा था. खासकर पड़ोसियों और रिश्तेदारों को. वो अम्मा को थाली भर भर कर नसीहतें देने लगे. ये मैं इसलिए बता रही हूँ क्योंकि रेडिओ की दुनिया ने मुझे सपनो के एक नयी दुनिया दिखाई थी मैं उस दुनिया का हिस्सा बनाने के सपने देखने लगी थी पर मेरी उम्र के इस दौर ने मेरे लिए एक जेल बनानी शुरू कर दी थी. मेरा खेलना कूदना, सहेलियों के घर जाने सब पर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए थे अजीब मुसीबत थी. अचानक मेरी जिंदगी मे इतने दरवाजे और चौखटें खड़ी हो गयी तीन के उसे पार करना मुझे कठिन लगने लगा था. पहली बार लगा बचपन ख़तम हो गया और मैं किसी नयी दुनिया मे पहुँच गयी हूँ. अम्मा पापा कोई भी न तो मेरी कोई बात सुनाता और न ही मेरी बातों को गंभीरता से लेता. लगता था रिश्तों के सारे अनुभव एक नयी परिभाषा मे बदल गए हैं. पर एक बात मुझे बहुत खुशनुमा अहसास देती थी. अपने शरीर के बदलने का अहसास. अपने चहरे एक नए निखार का अहसास. जब मैं आईने के सामने खड़ी होती घंटों अपने को निहारती. बड़ा अजीब सब कुछ था. दिमाग मे सवाल थे कि कम ही नहीं होते थे. आँख के आंसू ख़त्म नहीं होते थे. अम्मा का चेहरा और उसपर खिची लकीरें बहुत तकलीफ पहुंचती थी. सबसे अधिक दुःख था पापा का अचानक बदल जाना.
मुझे याद आता था पिछला सब कुछ. अपनी जिंदगी का वो सरल दिन. ये भी कि जब मैं डीबेट मे भाग लेती और पुरस्कार जीत कर लाती तो पापा का उत्साह दुगुना हो जाता और वो मुझे अगली डीबेट में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते. समझ नहीं आता था के अब मेरी उन सभी गतिविधियों को जैसे रस्सियों से गतरा जाने लगा था. अजीब उम्र थी ये जब मैं इस सारे बद्लाओं को न तो समझ पा रही थी ना ही प्रतिरोध कर पा रही थी.
अम्मा इसी समय बीमार हो गयीं ऐसी बीमार कि लम्बे समय तक बिस्तर पर रहीं और अचानक घर की जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर आ गिरीं.

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