Friday, September 23, 2011

एक संवाद पांचाली और वैदेही का

सदियों से,
सोचते संकोचते
मन ही मन डूबते - उतराते
रोज - रोज जीते - मरते
अपने अंतर्मन को टटोलते
घनी पीड़ा, सुलगते सवाल और कई सांकलों को दबाये
मैं पांचाली
आज ,तुम्हारे द्वार खड़ी हूँ
वैदेही

हम दो युग के दो स्थापित चरित्र
एक ही पीड़ा से गुजरते
आज आमने - सामने हैं
कुछ सवालों के साथ्
माना युगों की दूरी है, छद्म का अंतर है
पर सवाल तो वहीँ हैं जहाँ खड़े थे
त्रेता में , द्वापर में और आज
हम और तुम वैसे ही स्थापित हैं
जैसे त्रेता में द्वापर में और आज
इसलिए उमड़ते हैं
तुम्हारे और अपने चरित्र पर
अपने अपने युग की व्यवस्थाओं पर
और तुम्हरी चुप्पी पर
कई सवाल
जिसको पिढियां कन्धे पर लिये
कल तुम धरती मे समाई थी
एक् अग्नि परीक्षा दी थी
वो आज भी ली जा रही है
हजारों हज़ार लक्ष्मण रेखाएं रोज खिंची जाती है
और बनाई जाती हैं चौखटें
वैदेही क्यों थी चुप्पी तुम्हारी ?
कब तक छाया बनी रहोगी?
कब तक राम को सहोगी ?
तुम्हारे हिस्से के राम राज्य ने
सदियों से कितनो को डंसा है
जानती हो राम की व्यवस्था में कहाँ हैं हम?
कभी जंगले मे, कभी अविश्वास की चिता में और कभी गुहार करते
युग बदले सदियाँ बदलीं क्या वहीँ नहीं हैं हम?
उसी तरह एक हथियार
आधी आबादी को गढ़ने का ?

पांचाली!!
सवालों के भंवर में तो मैं भी फंसी हूँ
दो युग बीत गए
प्रायश्चित की इच्छा भी है और एक खंजर भी
जो धंसा है ठीक मन के फाड़ में
पर तुमसे मैं भी सवाल करूँ क्या ?
पूछूं के भरी सभा मे अपनों के ही बीच
नग्न कर दी गयी तुम ?
पूछूं के
सारा पुरुषार्थ कहाँ मर गया था
जब बिलखती रही तुम ?
पूछूं के
एक साथ पांच पांच शौर्यों की क्या थी तुम ?
पूछूं के
तुम्हारे संकल्प को उसी सभा में क्यों नहीं पूरा कर पाए भीम
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
अर्जुन के बाण कैसे रहे शांत
तुम्हारी हृदय विदारक गुहार पर
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
कहाँ मर गया था धर्म राज का धर्म
तुम्हारी असहायता पर
बताओ
यदि पत्नी थीं तुम ?
कहाँ थे नकुल ?
और
कहाँ थे सहदेव?
और तात श्री उनकी तो आँखों का पानी ही मर गया था
चेतना सुप्त थी और भीष्म प्रतिज्ञा की चमक फीकी
कैसे वचन और कैसी मर्यादा मे बंधे थे
क्या धरती तब नहीं हिला सकते थे
जब हो रहा था इतना बड़ा अनाचार ?
क्या सभा में विरोध का भी साहस नहीं जुटा पाए
इस व्यभिचार पर ?
हे पांचाली!
मुझे भी चाहिए बहुत से सवालों के जवाब
उन सभी कथ्यों से इतर जो बचाते रहे हैं धर्म, राज और व्यवस्थाएं
उन छद्मों से अलग जो रचते हैं मार्यादा का जाल
क्या दे पाओगी जवाब?



जानती हो,
अनुतरित नहीं हैं ये प्रश्न
किन्तु क्या
पूछा किसी ने इस पांचाली से ?
जाना के मैं क्या देखती हूँ ?
ये तुम हो जो मुझसे पूछ रही हो
जानने को उत्सुक हो
मेरी आप बीती
मेरी जुबानी

'द्रौपादी' नहीं थी मैं बना दी गयी
तब किसने पूछा
मेरे मन में क्या है ?
माता कुंती भी चुप रहीं अपने पुत्रों की पशुता के सामने
हाँ ये पशुता ही तो थी
जब पञ्च मृतात्माओं के भोग की वस्तु बनी मैं
जग के लिए उपहास का पात्र
अपनी इक्षा के विरुद्ध
एक आव्ररन था तब
स्त्री होने की विवशता का, उस दी गयी शिक्षा का
और खुद को व्यवस्था का अंग समझने की नसमझी भी

पञ्च शौर्यों की बात की न तुमने ?
मेरे हिस्से का शौर्य लगे थे वो तुमको?
आदि से अंत तक?
शौर्य रहे होंगे वो कुरुक्षेत्र के
भीष्म के, कृष्ण के और उस युग और व्यवस्था के
रहे होंगे धर्म्र राज
भीम शक्ति का स्वरूप महाबलशाली
और अर्जुन सबसे बडे धनुर्धर
पर
सब अर्थ् हीन थे
धर्म भ्रष्ट था और शक्ति हीन
मेरे लिए

और वो तात श्री
क्या बोलते वैदेही
क्या बोलते वो
उनकी आँख का पानी तो उसी दिन मर गया
जब तीन - तीन का हरण कर
बाँट दिया था
उनकी इच्छा के विरुद्ध
मढ़ दी थी उनके गले वरमाला
बिना उनसे पूछे
और जवाब नहीं दे पाए
एक विरोध का
क्या बोलते वो सभा मे ?
और कृष्ण वो सखा तुम्हारे ?
जिसने तुम्हरी लाज बचाई ?
कृष्ण ने मेरी लाज नहीं
बस
मेरे भरम को बचाए रखा
कि मैं भे इस व्यवस्था का अंग हूँ

वैदेही !!
ये जवाब अकेले नहीं दे पाऊँगी मैं
ना ही अकेले सुन पाओगी तुम
युगों का अंतर है
पर हममें नहीं
सदियों की दूरी है
पर हममें नहीं
तुम्हारे हिस्से का रामराज्य उतना ही विद्रूप था
जितना मेरे हिस्से का कुरुक्षेत्र
तुम भी युद्ध में फंसी रही और मैं भी
तुम्हारे अन्दर भी माहभारत है और मेरे अन्दर भी
तुम्हारे राम सत्ता, मार्यादा और रघुकुल के प्रतीक थे
और
मेरे पति मेरे लिए मृतात्माओं की तरह जीवित थे
कहीं कुछ अलग नहीं था
हे सीते!
क्योंकि तुम भी व्यवस्था के लिए थीं और मैं भी
तुम भी गढ़ी गयी और मैं भी
तुम भी मारी गयी और मैं भी
दोनों एक ही चौखट पर खड़े हैं
क्योंकि तुम चुप रहीं और मैं चुप कर दी गयी
तुम राम को सहती रही और मैं मरे हुए के साथ जीती रही

आश्चर्य है!!
कितनी समानताएं हैं हममें
अंतर्मन मे कितना हाहाकार
और
सोचती हूँ बाँट ही लूं
अपने राम का भी सच
दे ही दूं सवालों के जवाब
अनुतरित वो भी तो बनाये
ही गये हैं
राम पुरुषों मे उत्तम थे
किंतु
मेरे लिये सम्वेदना शून्य
निरंकुश
राम राज्य सुरक्षित था सबके लिये
मेरे लिये पूरा असुरक्षित
वो महामानव थे
किंतु मेरे हिस्से के राम ?
मां कौशल्य भी कहां बोल पायीं किसी भी अमानवीयता पर?
कहां बोल पाये वो तात, वो गुरु
मुझे असुरक्षित देख क्र भी

पांचाली!!
ऐसा नहीं था कि मेरे होंठ बुदबुदाये नही
सवाल नही किये
और जवाब नही मांगे
मांगे थे जवाब और पूछे थे बहुतेरे सवाल
किंतु मेरे सारे सवलों को हत दिया गया था
और भून डाला गया
उसी चिता में जिसमें मेरी अग्नि परीक्षा ली गयी थी
ताकि बना रहे राम राज्य
सुरक्षित

तब मेरी समझ में आया
यह व्यवस्था है
सुर और असुरों की
मानवों और दानवों की
लगभग एक सी
हमारे तुम्हारे लिए
खोजो कहाँ हो तुम ?
पहचानो कौन है चुप्?
कौन् है अन्धा?

................................ अलका

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