Monday, October 31, 2011

औरतों की चौपाल

आज औरतों की चौपाल लगी है
और उसमे सब के सब इक्कट्ठा हैं
इस बात पर विचार के लिए के लिए
के
इक अदालत लगाई जाये
जिरह की जाये
और कुछ फैसले लाये जाएँ
सबकी सहमती से
आज अदालत बैठ गयी है
इक पसरे सन्नाटे के बीच
और
आज के अदालत में इल्जाम पुरोहितों पर लगा है
तलब हैं वो अपने पुलिंदे के साथ
उनकी जिरह के लिए
जितने खड़े थे
इक इक कर सब खिसक गए
इस भय में के
कि कहें दुनिया उलट गयी तो
पर औरतें मुस्तैद थीं एक एक जिरह पर पैनी निगाह के साथ
जिरह अभी जारी है
............................................अलका

Sunday, October 30, 2011

इक शब्द

इक शब्द
जिसे जीना चाहती थी साथ साथ
उम्रभर लम्हा लम्हा
क्योंकि यही जाना था और सीखा भी
के यही इक शब्द जीवन को
गति देता है औरत को रंग और रूप देता है
आँख मूँद कर उस शब्द को पकडे
बिना सवाल किये , सोचे
इसी के सहारे उस हाथ को थाम
चली आयी थी इस दहलीज़
कुछ रूमानी सपनो के साथ
इक घर बनाउंगी
अपना
पर वो शब्द और वो साझे सपने
सफ़र के बीच ही बिखरकर
टूट गए
जैसे छन् कोइ शीशा चटक गया हो
मैं उसकी बनाई लकीर पर खडी
बस देखती रह गयी
मेरे ही फर्श पर कतरे गए मेरे ही
कुछ ख्वाब


उस इक शब्द और उसके जाल से
बचते निकलते समझ आया
थोड़ी देर के बाद के
बहुत कुछ और भी है उस ख्वाब और उन सपनो के आगे
उतरकर सपनो की मखमली जमीन से
आसन नहीं होता
सच के दलदल को जीना
ना ही
आसान होता है उस इक शब्द के बुने जालों को साफ़ करना
जुटी हूँ
के साफ़ कर डालूं इक इक रेशा
उस जाल का और फिर से
बुन सकूँ
खुद बनाये इक ख्वाब का घर
जिसमे मैं विचार सकूँ बेखटक
और दे सकूँ पनाह
इक नए शब्द को
नयी डगर के लिए



................................अलका

Saturday, October 29, 2011

कैसा है देश

कैसा है ये देश


अरसे बाद,
दरवाजे पर डाकिया आया है
किसी की चिट्ठी है मेरे नाम
इस बदली हुई दुनिया मे चिट्ठी किसकी होगी ?
ये बेचैनी अब भी होती है उसके आने पर
आज भी है
कभी आशंका, कभी फूल सी खुशबू
और
कभी एक शून्य उभर आने का डर
अब भी चिट्ठी ले आती है अपने साथ
एक युग था जब चिट्ठी और गाँव
साथ साथ जीते थे
चिट्ठी और भाव साथ साथ जगते थे
आज डाकिये के हाथ
इस बदल गए युग में और बदल गयी दुनिया में
दरवाजे पर एक चिट्ठी ?
एक बेचैनी के साथ
मन आज भी उत्सुक है पढ़ लेने को उद्धत
के किस भाव की होगी चिट्ठी ?
x
अरसे बाद,
अन्तेर्देशी देखी है
सहमे हाथों से उसे खोल के देखा
यह एक गाँव की चिट्ठी है
उस गाँव की चिट्ठी जहाँ बहुत कुछ होगा
नया भारत बनेगा और
कल से फार्मूला वन कारें दौड़ेंगी
सालों पहले भी भेजी थी उसने
एक चिट्ठी मेरे नाम
और लिखा था
आज गाँव में फिर पैमाईश हुई है पूरे दिन
कहते हैं यहाँ रोड बनेगे , मौल बनेगे
कई मकान और एक अस्पताल भी बनेगा
एक महीने से यही सिलसिला है ,
किसके लिए बनेगा जब हम ही ना होंगे ?
पूछता था ये गाँव
कहते हैं एक नया शहर बसेगा, लोग रहेंगे तरक्की होगी विकास होगा
किसके लिए जब हम ही ना होंगे ?
पूछता था ये गाँव
आज उसने फिर लिखी है चिट्ठी
मेरे नाम
अपनी छाती पर चलेंगी कारें इस खबर को सुन
लोग देखेंगे तमाशा उनके सीने पर बैठ इसको सुन
और वो कहीं और बसेंगे इसको सुन
अब फिर पूछता है गाँव
कितने ही सालों रोज सुबह
अपने ना होने के डर में जगता और कल होंगे के नहीं इस डर सोता रहा हूँ
कल तक सुनते थे ये देश उनका है
आज मेरी मुट्ठी भर जमीं भी उनकी हुई
और खूब तमाशा देखेंगे लोग
कैसा देश है ये ?


एक चिट्ठी और है
मेरे नाम
दर्द से भरी
यह उस नन्हे बच्चे की माँ की है
जो मर गया अस्पताल में कल
एक अनजानी बीमारी से लड़ता
तड़पकर - तड़पकर
बिना दवा, बिना इलाज़ अस्पताल की गरीबी से
ऐसा हालत कहते हैं
निरक्षर वह माँ डाक्टर का परचा ले उसे पढने की कोशिश करती है
अस्पताल की चौखट पर
सर पटक पटक चिघारती है, बिलखती और फिर
सवाल करती है
देश से, सरकार से और हमारे विकास कर रहे भारत से
हमसे , तुमसे सबसे
कि
क्यों अस्पताल बेबस हैं और सरकारें बेरहम
और हमारी व्यवस्था लचर?
कैसा देश है ये ?

तीसरी चिट्ठी उस छोटे बच्चे की है
मेरे नाम
जो एक सायकिल के टूटे पहिये संग खेलता है
गाँव की सडक् पर बूट पलिश कर
पास के स्कूल को बडी हसरत से निहरता है
और फिर रात में
आधे पेट सो जाता है
वो लिखता है
मैं स्कूल जाना चाहता हूँ
लिखना और् पढ़ना चाह्ता हूँ
हर रोज खाना चाहता हूँ भर पेट खाना
पर ऐसा नही होता
हर रोज
आधी रोती में ही
सो जाता हूँ
कैसा है ये देश ?




और अंत् में
एक चिट्ठी
उस लड्की की है
जो दुनिया देखना चाहती है
खुलकर सांस लेना चाहती है
हवाओं से बात करना चाह्ती है
मुक्त हो उडना चाहती है
डरती है अपने ही लोग से अन्धेरे में
अपनी ही वीरान सड्कों से
फैसले से , खुलकर बोलने से
अपनों से , परायों से
कहती है
कैसी है ये दुनिया
और
कैसा है ये देश?
एक बड़ा प्रश्ंवाचक चिन्ह भी
कि
कब आयेगा हमारा स्वतंत्रता दिवस


अरसे बाद,
आज इन चिट्ठियों को जोड
एक नक़्शा बना रही हूँ देश का

और सोच रही हूँ
कैसा है देश ?




............................................................ अलका

माँ की निशानी

आज माँ की निशानी बेंच दी

पिता का तोहफा भी

जतन से रखा था सहेज कर

के दूँगी उसे

निशानी के तौर पर

क्या करूँ

आज़ाद नहीं हूँ ना मैं

बेबस हो जाती हूँ उसके लिए

जिसका भविष्य और मेरे सपने

दांव पर है

इस कैद में मेरा कहाँ है कुछ

मेरे हिस्से का सब ना जाने कितने की

लालसाओं मे बह गए

और मैं

यहाँ पडी रही ठूंठ सी

मन और हांथों को बाँध

आज सोचती हूँ क्या होगी वो धरोहर

जो उसको भी ऐसे ही रुलाएगी

वो भी सहेजती रहेगी

मेरा दिया और

दे देगी किसी को

मा का है

कह

इसीलिए बेच दी आज माँ की निशानी

और पिता का तोहफा

एक खलिश के साथ

उसके कल के लिए

Thursday, October 27, 2011

एक टुकड़ा चाँद माँगा था कभी

हमने तुमसे दो बोल मांगे थे

जिंदगी के

तुमने पूरी ग़ज़ल

लिख देंगे कहा

हमने एक टुकड़ा चाँद माँगा था कभी

तुमने पूरा चाँद ला देंगे

वादा किया

हमने ऊँगली पकड़ लो कुछ ऐसा कहा

तुमने हौले से

हाथों पे हाथ रख दिया

क्या कहूँ

ये मेरी प्रेम की समझ थी

छिटपुट सी तब

लगता है सचमुच कितने बेमानी थे

वो लफ्ज़, वो वादे वो हाथ

आज टुकड़ा टुकड़ा यादों को

पूरे दिन जोड़ती रही हूँ

वो सारे के सारे पल छिन

जो तुमने दिए थे

आज बौने लगने लगे हैं

उस सच के आगे

जिसको सालों से जिया है मैंने

इसमन के सारे तहखाने सूने लगने लगे हैं

एक छल को याद कर

जिसने कुतर डाली जिंदगी

और उसके सारे अक्स

आज सोचती हूँ

तुम न होते जिंदगी में तो

कितना अच्छा होता

कम से कम मैं

अपने पास तो होती

............................................अलका

Wednesday, October 26, 2011

एक कलंकित इतिहास

एक कलंकित इतिहास फिर लिख दिया
गाँव की चौपाल ने
सारा गाँव नपुंसक सा, मूक दर्शक बन
देखता रहा तमाशा
काली स्याही से लिखे उस अभिशप्त फैसले पर
सजा- ए- मौत का
मदमस्त पुरुषों की ताल ठोकती सेना
एक पति के अपमान करने की जुर्रत के आक्रोश में
सुनायी गयी सजा के वीभत्स दृश्य पर
अट्टहास करती रही
और स्त्रियाँ घूंघट की ओट से
बस कहानियां सुनती रहीं
उस चौपाल की


कहते हैं वो प्रेम मे थी
जी हाँ उसी 'प्रेम' में जिसपर लिखी गाथाओं का
ऋणी है समाज , साहित्य और मानवता
जी हाँ, वही प्रेम
जिसपर कवियों ने कलम तोड़ परिभाशायें दी हैं
काले किये हैं सफे
फिर ये चौपालें क्यों रचती रही हैं
रक्त रंजित इतिहास
समय समय पर
कितना विरोधाभास है हमारे दर्शन और जीवन दर्शन में
कितना विरोधाभास है हमारी मान्यता और वक्तव्यों में

स्त्री दांव पर है
कल भी थी और आज भी है
उसे सजाएँ देती रही हैं ये चौपालें
अपने गुरूर में तन
कभी जन्म लेने की . कभी प्यार करने की
और कभी अपने लिए फैसलों पर चलने की
सजाएँ और भी हैं उसके खाते में जो वो
भोगती है वो समय समय पर
इसलिए फैसले लेने से कतराती रही हैं स्त्रीयां
और सहमी सी अनुगामिनी बन
बिताती रही हैं पूरा जीवन

वह एक दारुण दृश्य था
और एक कलंकित इतिहास
समय सत्ता और मानवता के पन्ने पर
जब अपनी शर्तों पर जीने की सजा
में चार बार मौत के घाट उतारा गया उसे
और
वह बिलखती रही बिलखती रही
यक़ीनन
फिर एक बार लिख दिया गया
एक रक्त रंजित इतिहास
समय के सीने पर
अपने मद में डूबे पुरुष व्यवस्था द्वारा
स्त्री के अपमान का

.............................................अलका

फिर लिख दिया
गाँव की चौपाल ने
सारा गाँव नपुंसक सा, मूक दर्शक बन
देखता रहा तमाशा
काली स्याही से लिखे उस अभिशप्त फैसले पर
सजा- ए- मौत का
मदमस्त पुरुषों की ताल ठोकती सेना
एक पति के अपमान करने की जुर्रत के आक्रोश में
सुनायी गयी सजा के वीभत्स दृश्य पर
अट्टहास करती रही
और स्त्रियाँ घूंघट की ओट से
बस कहानियां सुनती रहीं
उस चौपाल की


कहते हैं वो प्रेम मे थी
जी हाँ उसी 'प्रेम' में जिसपर लिखी गाथाओं का
ऋणी है समाज , साहित्य और मानवता
जी हाँ, वही प्रेम
जिसपर कवियों ने कलम तोड़ परिभाशायें दी हैं
काले किये हैं सफे
फिर ये चौपालें क्यों रचती रही हैं
रक्त रंजित इतिहास
समय समय पर
कितना विरोधाभास है हमारे दर्शन और जीवन दर्शन में
कितना विरोधाभास है हमारी मान्यता और वक्तव्यों में

स्त्री दांव पर है
कल भी थी और आज भी है
उसे सजाएँ देती रही हैं ये चौपालें
अपने गुरूर में तन
कभी जन्म लेने की . कभी प्यार करने की
और कभी अपने लिए फैसलों पर चलने की
सजाएँ और भी हैं उसके खाते में जो वो
भोगती है वो समय समय पर
इसलिए फैसले लेने से कतराती रही हैं स्त्रीयां
और सहमी सी अनुगामिनी बन
बिताती रही हैं पूरा जीवन

वह एक दारुण दृश्य था
और एक कलंकित इतिहास
समय सत्ता और मानवता के पन्ने पर
जब अपनी शर्तों पर जीने की सजा
में चार बार मौत के घाट उतारा गया उसे
और
वह बिलखती रही बिलखती रही
यक़ीनन
फिर एक बार लिख दिया गया
एक रक्त रंजित इतिहास
समय के सीने पर
अपने मद में डूबे पुरुष व्यवस्था द्वारा
स्त्री के अपमान का

.............................................अलका

Tuesday, October 25, 2011

एक माँ की जलती हुई दो आँखों

कल पड़ोस की चौखट पर
नरक चतुर्दशी का दिया ले
एक माँ की
जलती हुई दो आँखों को
राह अगोरते और
ढलक आये आंसुओं को पल्लू में समेट
शून्य में ताक़
कुछ बुदबुदाते देखा
जैसे कह रही हो
मोह , माया और स्नेह का बंधन तोड़
कहाँ चले गए सब
कहां चले गये सब अकेला छोड्
घर की चौखट पर एक दीया हाथ में ले
वो याद करती है
उस बेटे का चेहरा जो कहता था'तोहके छोड़ के कहाँ जाब माई '
और लिपट्कर पुचकारता
'तोहरा सिवा के बा हमरा जिनगी में'
गालों तक ढलके आये आंसुओं को पोंछ
दीये की लौ उसकाते उसकाते
बेटी की फोटो से अपना दुःख दर्द
बतियाने लगती है
और फिर पति की
तस्वीर से धूल हटा
सिसक कर लड़ पड़ती है
'तुहूँ चल गईल अक्केले छोड़ के'
सिसक कर मेरे करीब आ
मेरा हाथ थाम अपना संयम जैसे खो देती है
उसके स्पर्श और नज़रों की भाषा
उतरने लगती है
एक गाथा की तरह मेरे अन्दर
और सोचती हूँ मैं
उम्र गुजार दी उसने
ये घर बनाते बनाते
और आज उम्र के इस पड़ाव पर
इस दीये के साथ भटक रही है
यहां - वहां उदिग्न
खोजती है कुछ खोया सा
कभी अपने ही घर की बैठक में
कभी दालान में और
कभी
अपने बिस्तर की सलवटों में
लगता है जैसे खोजती है
वो वक्त ,वो साथ
वो तिनका तिनका जोड़ना
रोज रोज बनाना
सहेजना, संवारना
बस घर और बच्चों के लिए जीना
बुझाते हुए दीये को खूब तेज कर ठिठक जाती है
कुछ सोचते सोचते
धम्म से बैठ् कर जैसे विचरने लगती है यादों के साये में
जैसे खोजती है वो उजाला
जो रोज बटोर के लाती थी बादलों को चीर
सबके लिये
होठों तक आ गयी पीर को आंचल से दबा
कह देती है है
आज इस दिए की लौ में
सब गुम है
वो बेटा, वो साथ , वो वक्त
पर इस रौशनी
में नहा
सब खुश रहें अपनी अपनी राह
कल पड़ोस की चौखट पर
नरक चतुर्दशी का दिया ले
एक माँ की
जलती हुई दो आँखों को
राह अगोरते देखा ..............................
............................... अलका

Monday, October 24, 2011

आज धन तेरस है

आज लिखना नहीं चाह रही थी सोचा था छ्ठ् तक कुछ नही. किंतु आज उस औरत को देख्कर कलम रुकी ही नही. लगा जैसे सब व्यर्थ की बातें हैं, ये कैसी दीवली है. पता नहीं क्या क्या ----




आज धन तेरस है
धंन धनलक्ष्मी का दिन
और वो शहर के कूडे पर चिंता मग्न
भटक रही है इधर – उधर
जैसे खोजती हो आकाश, पाताल और चारों दिशायें जैसे खोज रही हो अपने लिये गडा धन
उद्दिग्न सी, निराश नंगे पैरों से
खांचती है पूरी जमीन
और
एक एक कूडे को हाथों से छू
तसल्ली कर
आगे बढ जाती
जैसे पाना चाहती हो सोना, चांदी, हीरे- मोती
जब कहीं कुछ नहीं मिलता
बैठ जाती है हांफती
सुस्ता लेने के लिये
फिर निकल पडती है
तलाश में
कहीं कुछ मिल जाये

आज धन तेरस् है
धनलक्ष्मी का दिन
तभी देखती है -
पूरे शहर में चहल है, पहल है
धूम् है, मस्ती है, खाना है पीना है
और खूब उजाला भी
वो दूर बैठी निहारती है सब
और जुट जाती है
खोज में
इस दीवली का तोहफा
अचानक गड जाता है कुछ
पैरों में अज़ीब सा
टन्न की आवाज़ के साथ
वो झुकती है
अपने पैरों को छूती है और उछल जाती है
जैसे
मिल गय था आज वो तोहफा
अचानक
लाल रंग का एक ड्ब्बा
उठा लेती है वो
और चल पडती है घर की ओर

आज धनतेरस है
धनलक्ष्मी का दिन
................................................... अलका

Sunday, October 23, 2011

वो मर गयी

वो मर गयी
चर्चा है शहर में
हर आंख में सवाल हैं औ हज़ारों ज़वाब
जैसे किस्सा गोई हो कोई
एक कुशल बिटिया को एक अंजान के हाथों ब्याह के
कह दिया था पिता ने
विदाई के दिन ही कि
अब
यही है तुम्हारी नियति
तुम्हारा भाग्य भी
बेटी ने सवाल नहीं किया
बस
उसकी सजल आंखें विस्फारित तकती रहीं उन्हें समझने के लिये उनके शब्द
और खोजती रहीं अपने लिये स्नेह की दो बून्द
पिता की आंखें नम थीं
पर चेहरे पर उभरी खुशी के आगे
बहुत कम
जार जार रोते भी उसका एक कोना
सशंकित हो उठा
उसने पलट कर देखा जैसे खोज रही हो
सबकी आंखों में उससे बिछड्ने का दुख
खोज रही थी पिता में कुछ
किंतु
पिता मशगूल थे भाई के कन्धे पर हाथ रख
अपनी ही प्रशंसा में मां कोने में खडी तक रही थी
भाग्य की लकीरों में कुछ् उसने समझ लिया
थोडा थोडा
अपनी नियती का अर्थ और होंठ बुदबुदा उठे
बेटियां सबसे सौतेली क्यों?


उस दिन जब सब
हो गया बर्दाश्त के बाहर
बहुत रोयी थी वो फोन पर
फफक फफक पडी थी
अपना हाल कह कह
गिड्गिडायी भी थी बुला लो माँ बुला लो....................
फोन लटक गया माँ के हाथ से
और बोल पडी
बुला लो मेरी बेटी को
बुला लो
पर फोन हाथ में थाम्ह
पिता ने समझा दिया बेटी को
घर है अब वो तुम्हारा
सहना ही होगा सब
आज वो मर गयी
चर्चा है शहर में
आज फिर पिता की आंखें नम थीं
माँ बेहाल थी
पर
बहुतेरे सवाल थे
बहुतेरे सवाल

......................................... अलका

Saturday, October 22, 2011

गद्दाफी की मौत पर

इतनी भयानक होगी मौत
कभी सोचा भी नहीं होगा उस तानाशाह ने
ना ही सोचा होगा
इतने सुरक्षित महल के बाहर
भागते भागते
यूँ दबोच लेगी मौत
असुरक्षित उसे ?
वक्त का दौर है सब और वक्त की बातें
मृत्यु के क्षण में याद आते हैं उसे
मां के शब्द, उसकी डांट और
अच्छा इंसान बनाने की
सलाहियत
फिर याद आता है
मां की हदों से निकलकर
पिता की दुनिया मे प्रवेश
पुत्र के कन्धों का इंतज़ार करती
पिता की दुनिया
याद आता है उसे
वो बन्दूक की नली पर हाथ रखना
उससे निकलती गोलियों में सुख और शांति खोजना
गर्वोक्तियों के शब्द गढ़ना
गर्व से बढ़कर अभिमान को जीना
और फिर
एक प्रेम याद आता है उसे
वो बवाले नयन
वो बावला मन
गुलाबी होठ , गुलाबी शाम
स्नेह , स्पर्श , आलिंगन , चुम्बन
और एक दूसरे में सिमट जाने की चाहत
फिर वह आगोश
आह !!
कितने ही दृश्य तैरने लगते हैं
उसकी आँखों में
तभी
सर पे तनी गोलियों के बीच उसे
एक सुखद अहसास सा
वो गर्भ भी याद आता है
जिसे तकता रहा था वो
प्रसव तक
हर दिन कामना करता जन लेने का
अपना अंश
मृत्यु के क्षण और जिंदगी की बातें ?
वह सोचता है
के तभी उसे याद आती हैं मां की सलाहियतें
कई बातों पर पत्नी का विरोध
और फिर उसे नज़रंदाज़ कर
पिता की सल्तनत फैलाना
अपनी दुनिया के दिन
मैं सम्राट
सब मेरा है , इश्वर हूँ मैं
तुम गुलाम ,
हजारों आदेश
बंदूकों की ठायं , चीख , पुखार
भीख दया और
मौत की सजाएँ
सब याद आता है
रहम के लिए गुहार करते कितनी ही
जूतियों के बीच हाथ जोड़
चीखते
उस ताना शाह को
सब याद आता है
दिन, महीने, साल
वो पुत्र , सल्तनतें
सब याद आता है
............................................. अलका

मुक्त होना चाह्ती हुँ.

नीड की अपनी स्नेहिल इन छतों से
मुक्त होना चाह्ती हुँ इन रुपहले तंतुओं के पाश से
मुक्त होना चाहती हुँ
पंख मेरे ही नहीं फड्के बहुत के और भी हैं
पांव मेरे ही नहीं उट्ठे बहुत के और भी हैं वर्जनओं के कटीले देश से
मुक्त होना चाहती हुँ

हर चितेरा जिन्दगी में रंग भर देता
कितने सुर्ख और सन्दल सरीखे किंतु उसकी तुलिका के
अन्क से बाहर निकर कर
मुक्त होना चहती हूँ
चाहती हुँ मैं बिखर कर
जिन्दगी को सींच दूँ सीपियों के सब फलक को
तोड्कर बाहर निकल लूं चेतना की ओर् चलती
भवना के तंतुओं से
मुक्त होना चाह्ती हुँ.

........................................ अलका

एक सवाल माँ से

मैनें पूछा था माँ से
कई बार
ये प्रेम क्य होता है ? उसने भयभीत आखों से मेरी ओर देख
एक शब्द बोला
चुप!!! जब दूसरी बार उसे कुरेद्कर पूछा
क्या होता है ये प्रेम बोलो ना थरथराई हुई आवाज में
उसने कहा
खामोश!!! कुछ नही समझ पायी उसके
शब्दों के मायने
इसलिये फिर पूछ बैठी
क्या होता है प्रेम
वह पलट कर बोली
सज़ा!!! और जब चौथी बार डरते हुए
पास जाकर
दोहरा बैठी वही लाईन
के क्या होता है प्रेम
वह मेरे करीब आयी
मेरे सर को गोद में ले
बोल पडी मौत !!! प्रेम के अर्थ तलाशती मुझे
अपने जाने के बाद
उसने आज एक और अर्थ समझाया है
और हवाओं के बीच से
उसकी आवाज़ आयी है
प्रेम का अर्थ है
साहस !!!

शेष है कहीं अब भी कुछ्
............................. अलका

Friday, October 21, 2011

लड़ रहे हैं गाँव

शहर की चाह में औंधे पड़े हैं गाँव
एक दलदली सी राह में उलटे पड़े गाँव


अजब सा जश्न है ये मेरे अपनों का
अदालतों के सामने कैसे खड़े हैं गाँव

दूर दूर तक बसेंगी बस्तियां उनकी
चिराग लेके भी ढूंढें नहीं मिलेंगे गाँव

खेत रोते हैं बारहाँ माटी रोती हैं
बस उनके जालों में फंसे मिलेंगे गाँव

वो बूढ़ा बरगद और वो छोटा मंदिर
ये कैसी आग में झुकते जा रहे हैं गाँव


ये पाप पाप होता रहेगा कब तक यूँ
पीढियां पूछेंगी कहाँ गए हैं गाँव

बचे रहेंगे अगर कट कट के टूटे फूटे से
कैसे कहेंगे लुट गए हैं गाँव

सलाम गाँव को उनकी माटी को
चलो बचाएं लड़ रहे हैं गाँव

..................................................अलका

Thursday, October 20, 2011

मैं बिहार हूँ दोस्त

मैं बिहार हूँ दोस्त
श्रम बेचता हूँ
सस्ता और बिना मिलावट के
शुढ्ध श्रम
परंपरा बना ली है
सदियों से जीता हूँ इसे
भूख, गरीबी, बेरोजगारी और तमाम कमियों के बीच
अपने पैरों पर खड़ा हूँ

मैं बिहार हूँ दोस्त
इमान बेचता हूँ
मेरी गरीबी के बरक्स
जो मिले करता हूँ
सफाई, झाद्दू -पोंछा से लेकर खेतों मे फसलें उगने तक
सब करता हूँ
इस उम्मीद में के एक दिन बदलेगा सब
और हम खड़े होंगे पहली पायदान पर
इसलिए वर्त्तमान के सच को
जीता हूँ

मैं बिहार हूँ दोस्त
जौहर बेचता हूँ
पूरी दुनिया में घूम कर
सीखता हूँ
और बनाता हूँ सपने
गढ़ता हूँ ख्वाब
तभी तो अपमान, जिल्लत और विरोधी नारों के बीच भी
जम कर खड़ा हूँ
पोरसे भर ज़मीन में गड़ा हूँ

मैं बिहार हूँ दोस्त
कम में जीना मुझे आता है
समय को सीना भी जनता हूँ
कठिनाइयों के बीच
एक नदी बहेगी इसका हुनर भी जनता हूँ
बीच में पड़ी कश्ती
सबको इशारा करती है
मेरी मजबूरी का
हिम्मत से लड़ता हूँ
पार ले जाना चाहता हूँ

मैं बिहार हूँ दोस्त
चक्रव्यूह में फंसा हूँ
युद्धरत हूँ
खुद बचाने के लिए
भूख से, अशिक्षा से, रोज की तंगी और बेकारी से
युद्धरत हूँ
युद्धरत हूँ
युद्धरत हूँ
............................................................... अलका

मेरा आसमान

कह दिया कल माँ ने
अधिकार से
बेटी मेरी भी है जना है उसको
कौन है जो फैसला लेगा अकेले?
कौन है जो बेहतर सोचेगा मुझसे ? अचानक लाल हो गये सब
तनी भ्रिकुतियां लिये
और स्वरों को तेज कर
देने लगे दुहाई
कि
लडकी का बढना
और पढ्ना
एक सीमा तक ही अच्छा है
जितना चाहिये था
हो गया
अब बस
अचानक एक सधा स्वर
चुप कर देता है सबको
यह कहकर कि
सीमा तय करुं उसकी
यह मेरा भी हक है
और
आसमान अपना तय करे
यह हक उसका भी
इसलिये
सीमायें हमारी हम खुद तय करेंगे
जहां तक होगा हमारा असमान
बडे अधिकार से
खडी थी आज माँ
घर की दीवारों के बरक्स
..................................................अलका

एक दीवार

एक घर की दीवार अभी तोड़ी ही थी
खुली हवा में सांस लेने के लिए
के ब्याह दी गयी
एक नए घर की चाहर दीवारी में
कैद होने के लिए
चाहर दीवारी भी ऐसी कि
बस फड़फाड़ाने की इच्छा भर से सनक जाती
और किवाड़ों की चों चों बताने लगतीं
रिवाजों के किस्से कहानी और दर ओ दीवार के रंग

एक पिता का भय अभी निकला भी नहीं था के
सामने खडी कर दी गयी
पिताओं की कतार
यहाँ के पिता का अर्थ था
मर्यादा जो उसने मंडप में ही कह दिया था
यहाँ के पिता का अर्थ था
एक अनकही , एक बेडी और लज्जा
सच ये एक एक सुरंग थी
जो अँधेरी भी थी और अनजान भी
और एक अजीब पहेली सी

दो पिताओं के बीच
एक सौदा था यह घर
सौदा भी ऐसा
जहाँ सब मेरा ही गया
तन भी , मन भी और धन भी
सौदा भी ऐसा के जहाँ
मेरे पिता की पगड़ी निढाल है
सौदा भी ऐसा कि
पिता की गाढी कमाई और सबकी जूती
बराबर
और मेरी अस्मिता चाकर

एक घर के रिवाजों के फ्रेम को अभी चटकाया ही था
के दूसरी फ्रेम में मढ़ दी गयी
एक तस्वीर सी
जो बस मुस्कुराती भर थी
क्योंकि यहाँ रोने पर प्रश्न
और बोलने पर पहरे थे
यह एक घर था
बेदर्द
जिसे खोजा भी मेरे पिता ने ही था
इसमे मेरे रहने का
आजीवन किराया भर कर
घर सुसज्जित था इसलिए किराया भी अधिक था
मर्यादा के नाम पर
मुझे अन्दर से मर जाने की दुहाई भी दी थी
मैं एक जो सपनो में जीती थी
नए घर के
ये सब समझने के बाद
अपनी अनंत इच्छाओं पर गर्म पानी ड़ाल
एक समझौता किया था
अनुराग का ?

पर
अब रह रह कर समझौता तोड़ने का
मन करता है
रह रह कर फिर दीवारों को तोड़ने का
मन करता है
रह रह कर उड़ने को मन करता है
अपनी उड़ान
इसलिए मैं जंग करती हूँ
और तोड़ रही हूँ
फिर एक दीवार
......................................................... अलका

Tuesday, October 18, 2011

वो माँ और मैं बेटी

वो जो लिखती थी
रोज मैं उसे पढ़ती थी
वो जो कहती थी
रोज मैं उसे सुनती
वो जो जीती थी
उसकी गवाह थी मैं
गवाह भी ऐसी की सब लिख लिया दिल पर
वो आंसुओं से लबरेज जमीन पर
कुछ उकेरती फिर मिटाती और फ़िर उकेरती
जैसे पूछती हो सवाल खुद ही लिखती हो जवाब
मैं उसे रोज निहारती
और वो मुझे निहारती
दर्द से लबरेज़ उसकी आँखें मुझ पर टिक जातीं
वो मुझे सहलाती
और मैं उसे
हमारा एक रिश्ता था
तन का भी मन का भी और अपने पन का भी
इसलिए
उसका सिसकना, रोना , फडफडाना
पस्त होकर कमरे मे बंद होना
हथेलियों मे मुंह दाब अपने आप को कोसना
सब मेरी आँखों में दर्ज है
उसकी चूड़ियों से मुझे खन्न की जगह
मन की आवाज़ आती थी
जो रोज रात टूटतीं
और हर सुबह लहू लुहान मिलतीं
हर सुबह दोनों जिन्दा हो जाते
एक दूसरे के साथ
वो मुझमे अपना कल देखती
और मैं उसमें
हमारा एक रिश्ता था
वो हर रोज बुनती
और हर रोज मैं गुनती
वो माँ और मैं बेटी
..............................................अलका

बेटों की तलाश एक माँ

कल,
बौखलाई सी भाग रही थी
एक माँ
सडकों पर इधर- उधर
अपने ही जाये दो बेटों की तलाश में
और बुदबुदा रही थी मन ही मन
चल पड़े हैं दोनों
बाप के रस्ते

बरसों परेशां रही हूँ उस करमजले से
रोज रात का देर से आना
पूरी कमाई को शराब मे उड़ाना
घर के खाने की थाली फेंकना
और
बाहर दुकान पर छुछुआना
सारी उम्र यही आदत रही है
मुए की
पर आज ये दोनों भी बाप के रस्ते
निकल पड़े ?

अचानक ट्रक चालकों के झुण्ड में
दिख गए बेटे पर
लात घूंसों से टूट पडी
उस माँ का
स्वर तेज़ हो जाता है
उबल पड़ती है -
नहीं बनने दूँगी करम्कूटों शराबी- कबाबी
तुमको
ना हीं रहने दूँगी अनपढ़ गवांर
काट दूँगी ये जबान
जो लालच से लदे है
काट दूँगी ये हाँथ जो
ठेंगा दिखाते हैं
काट दूँगी ये पांव
जो बाप के रस्ते निकल पडे हैं

बाबू बहुत देह तोड़ी है
इन कमीनो को जनने मे
जाने कितनी बार
कितनो से और
कहाँ कहाँ लड़ी हूँ
कि ये संवर जाएँ
क्यों सिखाते हो इन्हें माँ के सपनों को
आँख दिखाना
क्यों बैठाते हो इन्हें जूठी गिलास के इंतज़ार मे
मेरे दोनों हाथ तुम्हारे पांव पड़ते हैं
लौटा दो इन्हें मेरी नाव पर

और टूट पड़ती है फ़िर वो उनको सवांरने
के लिए
अपने ही दोनों जायों पर
जो निकल पड़े हैं बाप के रस्ते


............................................ अलका

Monday, October 17, 2011

नए घर का जश्न

पच्चीस की उम्र के बाद
बद्ल लिया था मैने
घर
उनकी मनुहार पर जिन्होंने
जन्म दिया था, पाला था और लाडली
कहकर परायों के लिये सहेज़ कर रखा था मुझे
एक दिन बहुत दुलार से
करीब आकर कहा के
मेरे लिये अब जरूरी है
बदलना घर
क्योंकि यही है दस्तूर
मैने सब मान लिया एक कुलीन पिता और संस्कारी माँ के लिये जो याचक थे मेरे सामने
उस रोज


घर बदलना भी जश्न था सबके लिये
पर
घर बदलने के इस जश्न में कहां शामिल् थी मैं कहां शामिल थी मेरी अत्मा
अगर कुछ शामिल था तो
सुर्ख लिबास वाला अस्थि पंजर
और एक मरा हुआ मन
ये घर और वो घर
दोनों की जरूरतें
पिता की तरफ से
मुझे दान कर देने का
दृढ़ संकल्प
मैं ठीक उसी वक्त पिता की आखों की चमक देख बैठी
और गहरे विशाद में डूब
स्तब्ध सोच रही थी
जैसे जीवन का
एक अध्याय खत्म




किसको अह्सास था मेरी पीर का
अरे एक पत्ता भी कराहता है छू लेने भर से
मैं तो जडों से उखडी थी
और
चली आयी थी एक पीर ले
उस घर से इस घर
दस्तूर निभाने
अगला पिछला सब भूल के
चली आयी थी इस उम्मीद से
के
एक घर होगा
मैं हूंगी
कुछ सपने होंगे लाल गुलाबी नीले पीले
जहां कुछ रिश्तों की पग्डंडियां मेरी तरफ आयेंगी
सहेज कर रखेंगी कुछ हम चलेंगे और कुछ वो
और
रखेंगे एक नीव बद्लाव की
पर ये क्या? घिर गयी हुँ रिश्तों के जाल में
जो बदलने पर आमदा हैं मुझे ही रोज थोडा - थोडा




............................ अलका

Sunday, October 16, 2011

औरत से कलम का नाता

सोचती हूँ,
औरत और कलम आखिर क्यों
दूर दूर चलते रहे सदियों तक
दो किनारों से
क्यों कलम के विषयों मे
औरत
केंद्र बिंदु रही है
और लिखती रही कलम
वो पूरा पुलिंदा
औरत पर, औरत के लिए, औरत का
और वो
पूरा का पूरा धर्म ग्रन्थ, नियम कायदे और एक रणनीति
जिसपर चलेगी औरत् अनवरत

सोचती हूँ
कलम का औरत से रिश्ता कितना पुराना है
पर औरत का कलम से ?
अजीब विडम्बना है औरत की
जब भी मांगती थी कलम
सोचती थी लिख दूं
अपना भी दर्शन
अपना विज्ञान
अपना इतिहास
मन के उदगार
रिश्ता , दर्द
और जीवन के
तमाम बिंदु
कलम दूर खडी
उनके हाथ में
मुस्कुराती रही
जो उसे टापू बनाते रहे

आज कलम जब औरत के हाथ में है
एक सन्नाटा है
जब लिखती है वो अपना इतिहास
विरोध के स्वर भी हैं
जब उकेरती है अपने दर्द
अब भी तनती हैं भृकुटियाँ
जब परम्पराओं पर कलम तोड़ती है
धर्मग्रंथों की समीक्षा पर
उखड जाता है समाज
दिशायें ठिठक जाती हैं शब्द शब्द सहस पर
आज
ऐसी है औरत की कलम

सोचती हूँ,
औरत से कलम का नाता
दिन पर दिन रंग लायेगा
वो रचेगी अपना इतिहास
लिखेगी प्रेम गीत
उकेरेगी अपने भाव
और जरूर पूछेगी
को क्यों नहीं दी गयी कलम
सदियों तक उसके हाथ
कहेगी
गर दी गयी होती तो
शायद
संसार और औरत का अभिलेख ही
कुछ अलग होता
...............................................................................अलका

Saturday, October 15, 2011

इतिहास की मुडेर

आज बीस बरस पीछे
अपने ही इतिहास की मुडेर पर खडी
अपने ही अतीत की झोली से एक एक पल
निकाल कर
गहरे मौन में खुद को खोजती रही
बीस बरस के नीले समुद्र सा मेरा इतिहास
खुद में मुझे समेटे
मेरे ही अन्दर बार बार झांकता
ऐसे निकल रहा था कुछ् जैसे
सीप से मोती निकलता हो कोई
आज अजब है मेरा मौन
जैसे गहरी तली में बैठा
भारी मन
जैसे नीरव जंगल
उसका आभास
इतिहास कुरेदता है
मौन पर जैसे एक कंकरी फेंकी हो
और सामने तैरती है
एक कथा
ये आज किसको देख लिया अपने इतिहास में
मेरी ही मुडेर पर जैसे फिर बोल गया कागा
बीस बरस पुराना
वही कागा
पर आज मैं चहकी नहीं
और इतिहास मेरी ही छत पे चढ़ मुझे देख रहा है
मेरे मौन और उसकी प्रतिक्रिया को पढ़ रहा है
बस अश्चर्य से कहता है
वाह !!!
....................................................अलका

Thursday, October 13, 2011

घर

घर !
एक पूरा का पूरा रण था
मेरे लिए
और घर के लोग दूसरे पाले में खड़े सिपाही
वो पहरुए थे
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
दूसरी ओर खड़ी मैं
अपनी चाह और इच्छा से
मजबूर, अडिग
हर रोज उनसे टकराने को तैयार
कभी तन के सवाल पर
कभी मन के सवाल पर
कभी कपड़ों पर
तो कभी अपने इरादों पर
फिर
कभी इस बात पर
कभी उस बात पर
जैसे तय था
टकराना हर रोज
अपने लिये


माँ !
पहली पहरेदार थी
जैसे एक दीवार
पर
कभी समझती सी
कभी समझाती सी
कभी लाल लाल आँखों से
धमकाती सी
कभी अपने ही बरसों पुराने सपनो को लेकर
खुद से लड़ती सहमी आंखे लिए
सामने खडी
दुविधा में हर पल जीती
चिंतित, व्यथित
कभी सख्त , बेहद सख्त
मेरे लिए
वही एक ताना थी जहाँ से
हर रोज तोड़ती थी
मैं वो एक् घेरा
कभी लड़कर
कभी अधिकार से
कभी चुपचाप उसे अनदेखा कर
मेरे लिये वही एक ताना थी
जहाँ नव जाती थी
अक्सर
खुद को उसकी जगह
रख कर

भाई दूसरे पहरुए
पिता सरीखे
इरादों में पक्के
सख्त बुलंद हौसलों के साथ
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
नए पहरेदार
जैसे सारा बोझ उनके कन्धों पर आन पड़ा हो
पर
फिर भी एक दुविधा
उनकी आँखों में हर पल तैरती
एक बड़े आकार का भय भी
शायद
पुरुषों की दुनिया का
जहाँ की हर आँख में
नाखून दिखते हैं
पैने और तीखे
उन नाखूनों से बचाने के लिए
रक्षा में खड़े
भाई
बिफर उठते थे
कभी इक्षाओं की उड़ान पर
कभी इरादों की दृढ़ता पर
और कभी मेरी चपलता
और ठिठोली पर

पिता !
जैसे किले की दीवार
चप्पे चप्पे पर नज़र रखने वाला
सबसे सजग पहरेदार
घर जैसे उसकी जागीर
और मैं उस घर की सबसे कमजोर कड़ी
बहनें उसके खूंटे की गाय
उसके सामने जैसे हिरनी
आपकी इक्षाएं क्या है
बेमतलब
आपके इरादे
बेमानी
और घर एक मंदिर
जो सुरक्षित है
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा को बनाये रखने से
पर
मैं हर रोज़ फांदती
उस किले की दीवार
हर रोज टकराती
उन गर्वीली आँखों से
अनंत इक्षाओं के साथ
कई बार सन्नाटे चीरते
क्रोधित शब्दों की अवहेलना कर


घर के बाकी सब चौकस
चौकीदार
मेरी गलतियों की तलाश में भटकते
इधर - उधर
ताकि परोस सकें कुछ ऐसा
जो पहरे लगा सके मुझ पर
उमर भर के,
घर में बसना आज भी
एक प्रण है
मेरे लिए
हर पल एक रण
पूरा का पूरा रण
................................................ अलका

Tuesday, October 11, 2011

एक खिड़की

एक अधखुली खिड़की और उलझे बालों वाली वह
दोनों हर रोज
तेज तेज साँसों के साथ
जंग करती हैं
एक फोफड के पार की दुनिया से नाता जोड़ने को
अपनी खिड़की से कई बार देखती हूँ
एक बौराई सी आँख
उसमें अम्बार सी चाह
अलबेले सपने
फटे पुराने कपडे
तकरार और एक करारा थप्पड़
आंसू और मुरझाया हुआ एक बिस्तर
अगली सुबह
फिर वही चाह
फिर वही जंग
और बौराई सी आंख

अपनी खिड़की से देखती हूँ एक और खिड़की
एक पूरा दृश्य
रगीन लिबास में लिपटे मेहदी वाले हाथ
सिन्दूर
पायल और दो जोड़े ऑंखें
निहारती हैं जो खिड़की के पार
हुलसकर ताज़ी हवा के लिए
तभी अचानक बन्द हो जाती है खिड़की
खटाक
जैसे सिटकनी चढ़ा दे गयी हो
दो पहर बाद
खुल जाती है खिड़की चुप चाप
धीरे से
ताज़ी हवा और परिंदों से
नाता जोड़ने के लिए

एक खिड़की और देखती हूँ
जो बन्द है ज़माने से
सूरज को तरस गयी सी
जहाँ से बार बार आती है
एक भयानक आवाज़
जैसे मातम मानती सी

इन सबके बीच
एक घर खुला देखती हूँ
खिड़की दरवाज़ों के साथ
जिसमे बन्द है उम्मीद
एक दस्तक
सभी खिड़कियों तक पहुँचने की
.................................................................अलका

Monday, October 10, 2011

एक दुहस्वप्न

मैं देख रही हूँ
दो सभ्यताओं का द्वंद युद्ध
दो संस्कृतियों की टकराहट
दो धाराओं का जीवन
दो आचार
दो विचार
एक तरफ दिशाहीन किन्तु प्रगति
एक तरफ मृत्यु किन्तु अंतहीन

मैं देख रही हूँ
एक दुह्स्वप्न
एक अन्धकार
घुप्प अँधेरा
मन मे उपजते कई सवाल
किन्तु परिभाषा से परे
एक विकास
और उसके पीछे भागते लोग

मैं देख रही हूँ एक शहर
चकाचौंध
उसका फैलना
रफ़्तार
जश्न
लूट - खसोट
महंगाई
और मरते हुए बच्चे
बेबस ऑंखें
भूख से तड़पते लोग
और एक बड़ी सी लाचारी


मैं देख रही हूँ
मरता हुआ एक गाँव
एक पेड़
सिसकती हुई गाय
बागीचे
कठपुतली चौपाल
हर रोज खेतों का कटता अंग
लहलहाते खेतों पर रोज़ रोज़
नए प्रतिबन्ध

उसे छटपटाते, चिघारते और लाचारी से
नतमस्तक होते
खेतिहर से मजदूर बनते
चौराहे पर रोज खुद को बेचते
चूल्हा जलाने का इंतज़ार करते
थाली मे भोजन की आस मे बैठी ऑंखें
विकास की भेंट चढी
एक एक थाती


मैं देख रही हूँ
एक शहर
एक गाँव
अपना देश
दो जीवन
एक मरता
एक किलकता
एक लंगड़ा एक भगाता
एक कंगाल
एक मालामाल
मैं देख रही हूँ निःशब्द , मौन
इतना बड़ा व्यभिचार
दो नीतियाँ
एक देश

मैं देख रही हूँ


मैं देख रही हूँ
ऐसा ही कुछ हर पग
कितने ही रंग कितने ही बदरंग
पर
नहीं देख पायी खुशहाल कोना
किलकता बचपन
हर रोज बढ़ते पांव
एक प्रतिकार

मैं देख रही हूँ
एक मल्ल युद्ध
.......................................अलका