Friday, December 16, 2011

अशोक कुमार पाण्डेय की कविता ''यह मेरी लाश है'' को समझने की एक कोशिश

अशोक कुमार पाण्डेय किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. फेसबुक वाले तो अब उनके तेवर और उनकी कलम के धीरे धीरे नशेडी हो गये हैं. कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने कहा - ''आजकल पाडे जी की पोस्ट नही आ रही''. इससे इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उनकी पोस्ट का फेसबुक वालों के लिये मतलब क्या है. बहरहाल, आज मैं उनकी कल की रचना पर बात करना चाहती हूँ. आप सब सोच रहे होंगे कि कल की ही रचना पर क्यों ? दिमाग में यह भी चल रहा होगा कि अशोक ने तो एक से एक रचनाएँ लिखी हैं तो उसपर क्यों नहीं ? कल पर ही क्यों.? इसके कुछ कारण हैं पहला करण तो ये कि पहली बार अशोक ने ये स्वीकार किया कि उनकी ये रचना निराशा की है और वो अभी इस कविता की रचना प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और दूसरा कारण ये कि जब मैं ये रचना पढ्कर उसपर कमेंट कर रही थी ठीक उसी वक्त मेरे एक मित्र ने मुझे एक और रचना पोस्ट की और कहा इसे भी पढो. मैं हैरान थी दोनो कविताओं को देख कर. एक ही वक्त में ऐसी दो रचनायें. प्रस्तुत है दोनों कवितायें. आप भी पढ लीज़िये दोनो -


1. यह मेरी लाश है

यह मेरी लाश है
कुछ नहीं कहेगी
आप चाहें तो ठीक मेरे बगल में बैठ मुझे गालियाँ दे सकते हैं
बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी-अभी कर गया है कोई प्रशंसा
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं
---------------- अशोक कुमार पंडेय
2. मुर्दे ...
---
अब
आजादी की दरकार नहीं है
क्यों, क्योंकि -
यहाँ कोई ज़िंदा नहीं है !
जो भी हैं -
जितने भी हैं, सब मुर्दे हैं !
सब अपना -
ईमान बेच चुके हैं
मुर्दे -
आजाद होकर क्या करेंगे ??
.......................... उदय
यहां मैने उदय की कविता का जिक्र इसलिये जरूरी समझा क्योंकि ये दोनों ही कवितायें एक वक्त में लिखी गयी हैं और दोनो कवि अपने तरह से इस वक्त को बयान कर रहे हैं और दोनो कमोबेश एक ही मनो भाव से गुजरते हुए लिख रहे हैं. तो सोच रही हूँ कि कैसा वक्त है यह ? ये कैसा वक्त है जब सम्वेदना इस उबाल पर है ? कैसा वक्त है ये जब एक कवि जैसे चिघाड्ते हुए कह पडा है कि '' ये मेरी लाश है'' और दूसरा बिफर पडा है कि ''यहाँ कोई ज़िंदा नहीं है'' ? क्या वाकई वक्त ऐसा आ गया है कि अब जरूरी हो गया है सोचना ? आपका, हमारा , हम सभी का, ? क्या सच में ऐसा वक्त आ गया है कि कवि हताशा में मृत होने की कल्पना कर बैठा है ?
इस आलेख में पहले बात अशोक कुमार पाण्डेय की कविता की. ऐसा इसलिये क्योंकि अशोक ने अपनी इस कविता के सन्दर्भ में कुछ बातें स्वीकार की हैं और किसी कवि की अपनी रचना के सम्बन्ध में स्वीकारोक्ति कई बार उस कविता या उसके वक्तव्य को समझना आसान बाना देती है. और वैदेही को जवाब देते हुए अशोक ने कहा कि – वह इस कविता की रचना प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं, दूसरी बात जो उन्होंने स्वीकार की कि यह निराशा की कविता है. यह दोनों ही स्वीकरोक्तियाँ कविता को विस्तार देती हैं. कविता के इस् पक्ष को मजबूत करती हैं कि कवि निराशा में है और उदय की कविता इस बात का समर्थन करती है कि इस दौर के कई कवि निराशा में हैं और उनकी कलम अभी रोने की जगह एक खास तरह की मन्:स्थिति में है जिसे या तो झल्लाहट कह सकते हैं या फिर उसके करीब की स्थिति. इसलिये बहुत जरूरी है कि सबसे पहले हम अपने दौर की बात करें क्योंकि इस दौर की स्थितियां ही कवि की निराशा , उसकी छ्ट्पटाहट और उसके शब्दों के वितान में छिपे रहस्य को हमारे सामने रखेंगी.
पर पहले बात अशोक और उनकी रचना धर्मिता की. अशोक अपने दौर में प्रगतीशीलता के कवि हैं, कांति के कवि है और देखा जाये तो डंके की चोट पर कहने वाले कवि हैं. इसलिये उनकी किसी भी रचना पर कलम चलाते हुए इन तत्वों को नज़रन्दाज़ कर नहीं लिखा जा सकता. ना ही उनसे इससे कम की उमीद की जा सकती है. एक रोचक बात चुकि सन्दर्भ है तो बताती चलूँ कि अशोक को मैं काफी लम्बे अरसे से पदती आ रही हूँ किंतु इस बात की जानकारी कि वो मुझसे उम्र में छोटे हैं तब हुई जब मै फेसबुक पर उनकी मित्र बनी. यह बात यहां मैने इसलिये दर्ज़ की क्योंकि उनका लेखन अपनी पूरी परिपक्वता के साथ अपने शुरुआत से ही खडा है और इसीलिये इस रचना की ‘निराशा’ जैसा वो कहते हैं को भी एक परिपक्व भाव में पढा जाना चाहिये क्योंकि मेरा मानना है कि कविता एक सामान्य कर्म नही है. यह आनेवाली पिढियों के लिये दस्तावेज़ तैयार करने का काम है और इसीलिये धूमिल को कोड करूंगी कि ‘’ एक सही कविता पहले एक सही वक्तव्य है’’. तो अशोक जैसे कवि जब अपना वक्तव्य लिखते हैं तो वह समय के गवाह के रूप में अपनी बात आनेवाली नस्लों के लिये कुछ दर्ज़ करते हैं और इस दर्ज़ दस्तावेज़ के कई मायने हैं. यही कारण है कि उनका ये कहना बडी बात हो जाती है कि ‘’ ये मेरी लाश है कुछ नहीं कहेगी......’’. पर कवि इतना ही नही होता वह अपने समकालीन जी रहे सभी लोगों का स्वर होता है, सभी लोगों की कलम होता है और सभी लोगों की उम्मीद होता है इसीलिये एक ऐसे वक्त में जब इस देश में मह्गाई चरम पर है, रुपये का अवमूलयन हो रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर है, भूख है, गरीबी है, बेकारी है और भी ना जाने क्या – क्या तब कवि का निराशा के साथ लिखना उसकी अकेले की विवशाता नहीं होती वह उस कलम , उस जुबान और उन सम्कालीन लोगों की विवशता और निराशा बन जाती है जो उनसे अपनी उमीदों को जोड कर उनको लिखने के लिये प्रेरित करते हैं, उनको दाद दे प्रोत्साहित करते हैं और आशा बाधते हैं कि उनका प्रवक्ता उनको समय और समय की गम्भीरता का आभास समय रहते जरूर करायेगा. वह आगाह् भी कारेगा कुचक्रों से, आने वाले दुखों से. इसलिये कवि जैसे एक नियुक्त प्रवक्ता होता है समकालीनो द्वारा. और इसी कारण वह बेचैन, निराश हताश हो जाता है और इसीलिये एक जिम्मेदार कवि जब बइन स्थितियों से गुजरता है तो उसका निराश होना लाज़मी है.
तो चलिये इसी सन्दर्भ में अशोक की कविता और इस दौर में उसके मायनो को समझते हैं.
अशोक कहते है-
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं
यह तीन लाइन पूरे वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण लाइन है जो बता रही है कि कवि एक प्रक्रिया के तहत लाश बनते हुए अपने को मह्सूस कर रहा है. मैं अगर इसे व्यापक तौर पर कवि को देखती हूँ तो मेरे सामने उसके इस बयान के बहुत से कारण नज़र आते हैं. आप देखें जो कवि अपने काल खणड की समस्या से अपने को जोड्कर जिम्मेदारी महसूस करते लिखता है सीधे – सीधे सत्ता, सरकार और शासन के सामने आईना लेकर खडा होता है. वो भी जनता की तरफ से जनता का प्रवक्ता बन तो ऐसे में जब देश मुश्किलों के दौर से गुजरे, जनता बेहाल हो, विदेश् की राजनिति आपको डसने के लिये खडी हो, एक के बाद एक ऐसे कानून बन रहे हों जो आने वाले हमारे बच्चों के भविष्य के गर्त का करण होंगी. और लिखने बोलने की स्थिति में अपने को असहाय पाये तो कवि कहेगा ही -
‘’यह मेरी लाश है
कुछ नहीं कहेगी
आप चाहें तो ठीक मेरे बगल में बैठ मुझे गालियाँ दे सकते हैं
बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी-अभी कर गया है कोई प्रशंसा’’
वैसे देखें तो यह एक तरह से अपने लोगों से गुस्सा भी है. एक नाराजगी जैसे अब तुम चाहे जो करो मेरी प्रशंशा या बुराई जब तुम्को कोई फर्क नही तो मुझे भी नही फर्क पडता. जैसे मुझसे तुम्हारा नाता नहीं अब वाले अन्दाज़ में. हो सकता है यह एक स्वीकारोक्ति भी हो कि इस दौर में मैं प्रवक्ता जैसा नहीं रहा और यह हताशा भी. किंतु जो भी है एक इमान्दारी जरूर है जो एक सामाजिक कवि की अपने कर्म के प्रति है. इसीलिये वो आगे कहते है -
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं

जीभ का अचेत होना संकेत है कि मैं इस स्थिति में अचानक नहीं आया हूँ यह प्रक्रिया रही है एक निरंतर पीडा कि मैं वैसा नहीं कह पा रहा जैसा चाहिये या फिर वैसा जैसा मन में था या फिर उतना क्रंतिकारी जो इस वक्त के लोग को आगाह कर सके या फिर जगा सके. कुछ ऐसे भाव जरूर है इसिलिये स्पन्दन और फिर मरने से पहले आंख बन्द जैसे प्रयोग हैं. पर मेरा मानना है कि जीभ बन्द नही हुई बल्कि उसे बन्द कराने की परिस्थितियां उत्पन्न हुईं या फिर की गयीं और धीरे – धीरे स्पन्दन और आंख बन्द करने तक पहुंच गयी.
सोच रही हूँ यह कितनी भयावह स्थिति है इस दौर के लिये. कितनी घोर निराशा की स्थिति कि एक कवि इमान्दारी से स्वीकार कर लेता है कि वह निराश है. यही वज़ह है कि अंजु शर्मा ने कविता की तारीफ करने से इंकार कर दिया और वैदेही ने निराशा की कविता कह अशोक को स्वीकरोक्ति के लिये मजबूर कर दिया . पर मैं इस कविता की तारीफ इसलिये करूंगी कि कवि अपने कर्म को लेकर ईमान्दार है, वह हमारे सामने अपनी निराशा रख रहा है, उसे पता है कि इस निराशा से साथ मिलकर ही निकला जा सकता है. इसीलिये मैं इसे उबाल की कविता कह्ती हूँ क्योंकि ऐसा नही है कि जीभ मर गयी है वह अचेत है और इस अचेतवस्था के कारण जो अभी केवल अभी कवि जानता है को हमें भी जानना होगा. आप देखें ह्र्दय भी बन्द नहीं हुआ है वह भी अचेतावस्था में ही है. और मरने से पहले जो आंखें बन्द होती हैं वो खुलती भी हैं इसलिये यह हमारे लिये निराशा से अधिक चेतावनी की कविता है और इसे हमें समझना ही होगा तकि वक्त रहते कवि वह सब साझा करे जिसने उसे ऐसा करने पर मज्बूर किया (अगर किया तो) नहीं तो जो भी हुआ उसको उसी इमान्दारी से साझा करे जैसी कि कविता इमान्दार है.
इस कविता पर आगे बात जब अशोक इसे पूरी कर साझा करेंगे
......................................................... डा. अलका सिंह

2 comments:

  1. Kavi ki soch kahin bhi ja sakti hai, sab us samay ke haalaat par nirbhar karta hai. jaroori nahin ki koi hamesha khushhaali ki ya dukhbhari kavita hi likhe. yah bhi jaroori nahin ki kavi ki kahee gayi baat universal truth hi ho, kyonki kavita apne aas-paas ke haalat se vichlit ya khush hokar nikalne waale bhaav hain jo ki atmosphere badalne ke saath badal bhi sakte hain. isliye kisi bhi kavi ki kavita ko padhkar is nishkarsh par pahunchna ki is kavita ke bhaav kavi ke chirsthaai bhaav hain, mujhe to theek nahin lagta. vyakti jeevan bhar seekhta rahta hai.. aur paripakv hota rahta hai, yah paripakvta ek kavi kee kavita me bhee dikhaai detee hai. kai baar nirasha ek aisa ghera bana leti hai ki usko todne se behtar uske humjoli ban usse batiyana bhala lagta hai.. lekin parivartan chalte rahte hain aur hum adopt karte rahte hain.. bhaav aate-jaate rahte hain, kavita un bhaavon kee nadee se nikala gaya ek chullu bhar paanee maatra hai.

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  2. आपने इन पंक्तियों को इतनी गंभीरता से विवेचित किया...आभार...हालाँकि निराशा वाली बात मैं अब भी स्वीकार नहीं कर रहा...मैंने लिखा था ' कविता है या नहीं...यह भी नहीं जानता...नीरस है यह पक्का है...कुछ लिख रहा हूँ...लिख-लिख कर मिटा रहा हूँ...उसका एक टुकड़ा यह भी है...अब तक मिटाया नहीं...आगे का नहीं जानता' इसमें निराशा वाली कोई बात नहीं है...खीझ...गुस्सा हो सकता है...लेकिन मैं खुद कविता के पूरी होने के इंतज़ार में हूँ...हाँ वे तीन पंक्तियाँ आपने बखूबी पकड़ी. मेरा भी यही मानना है कि जिस दिन से हम बोलना, प्रतिरोध दर्ज कराना बंद कर देते हैं...हमारी चेतना उस दिन से ही मरने लगती है.

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