Tuesday, December 20, 2011

हमारे तुम्हारे बीच रिश्तों की जो सरहद है

हमारे तुम्हारे रिश्ते की एक बड़ी सी सरहद है
जहाँ खड़े हैं बहुत से अपने और प्रभावित हैं उनकी जिंदगियां
इसलिए हरबार इस सरहद तक आकर रुक जाती हूँ मैं
झांकने लगती हूँ उनकी आँखों में
और तुम इस सरहद पर खड़े मुस्कुराते हो
मेरे मन की उधेड़बुन को पढ़

हमारे तुम्हारे बीच रिश्तों की खीचतान भले हो
पर मेरे अन्दर के इंसान ने बरसों बरस
इंसान की आँख पढ़ने की कला सीखी है
रोक लेती है वही शायद यहाँ तक आकर तलवार पर हाथ रख लेने से
रोक लेती है मुझे मुट्ठियाँ भींच लेने से

बहुत मुमकिन है तुम खुशफहमी में जीते हो
और सोचते हो कि ये सब होता रहता है
जैसे आम बात , जैसे रोज की बात
किन्तु मेरे अन्दर बहुत कुछ पल रहा है विष जैसा
जैसे एक काला नाग दिनों दिन बढ़ता सा
जो हर दम उठा लेता है फ़न
जैसे डसने को तैयार

कई रोज से देख रही हूँ कई आँख हर वक्त बस मुझे ताकती है
उनमे एक जोड़ी बूढ़ी आखें भी हैं
जैसे पढ़ रही हों मेरे अन्दर फ़न उठाते नाग को
उस विष् को जिसका जहर उतर जायेग तुमसे पहले उनके अन्दर
और बस् एक द्वंद लिपट जाता है जैसे
एक बहस सर उठाती है अच्छे बुरे के विचार से
मेरे अन्दर

इसलिए,
हमारे तुम्हारे बीच रिश्ते की जो सरहद है
वहां हर बार खडी होती हूँ कई आत्माओं के साथ
कई आँखों के सपने के साथ
किसी के बुढापे की लाठी बन और किसी के भविष्य की उम्मीद बन
और तुम
खुश हो जाते हो मेरी इंसानियत को मजबूरी समझ

पर ये नाग जो मेरे अन्दर पल रहा है
बहुत बावला है
तुम्हारी हरकतों के बदले में
हर रोज़ मुझे अपने साथ ले जाता है सेरेंगेती के जंगलों में
जहाँ इंसानियत की किताब की जगह सब केवल
अपने होने की भाषा समझते हैं
नहीं जानती कब तलक पढ़ पाउंगी
इंसानियत की किताब
हमारे तुम्हारे रिश्ते की जो एक बड़ी सी सरहद है
वहां बैठा है अब वो नाग
जो अब बित्ते भर से लाठी भर का हो गया है

...............................................डा. अलका सिंह ............................

2 comments:

  1. बेहद गहन अभिव्यक्ति अलका जी……………अन्दर तक छू गयी।

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