Tuesday, August 30, 2011
हसरतें
मैं उसकी पहली संतान थी इसलिए मेरे और उसके रिश्ते मे एक अजीब तरह का अपनत्व भी था. अक्सर वो कहती ' तुमने मुझे पहली बार माँ होने का अहसास दिया है इसलिए तुम अनमोल हो मेरे लिए'. यह एक लाइन मुझे उससे ऐसे जोड़ती जैसे मेरी नाल अभी भी उसके गर्भ मे पड़ी हो. मैं अभिभूत होकर उसे निहारती रह जाती. . .
अम्मा साधारण महिला नहीं थी. विचारों से बहुत ही असाधारण थी वो. अपने क्रांति कारी विचारों के ओज और उसे कार्य रूप मे लाने के कारण कई बार उसे परिवार का विरोध झेलना पड़ता था. अक्सर वो समाज, जाती और गाँव के परम्पराओं के सारे नियम कायदे ताक़ पर रख देती.थी. एक बार तो गाँव के एक मंदिर मे वहां के पुजारी से लड़ गयी करण था के पुजारी ने शंकर भगवन के मंदिर मे महिलाओं को पूजा के लिए घुसने से मना कर दिया. इस बात पर महिलाएं पुजारी से नाराज़ हो गयीं और माँ से आकर शिकायत की. वह शिवरात्रि का दिन था अम्मा ने भी व्रत किया था. तैयार होकर वो पूजा के लिए उसी मंदिर मे पहुँच गयी पूजा करने. पुजारी ने आव देखा न ताव फिर बरस पड़ा. बोला महिलाओं पर, बोला - तुम लोंगों को ये पता नहीं कि महिलाओं को शंकर भगवान् की पूजा नहीं करनी चाहिए? महिलाओं के प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाता है. भगवान् नाराज हो जाते हैं. तुम लोग सब अगर पूजा ही करना चाहती हो तो बाहर से ही पूजा कर लो और भोले बाबा को हाथ जोर लो.
मुझे याद है अम्मा की आँखे उस समय जैसे आग के गोले की तरह लाल हो गयी थी. उसकी उंगलियाँ आपस मे भीचने लगी थीं. उसने थाली जमीन पर राखी और पानी से मुंह धुला और पुजारी को ऐसे घूरा के पुजारी के तो होश फाख्ता हो गए. अम्मा ने औरतों से बोला तुम लोग पूजा करो इस पुजारी को मैं देखती हूँ. और पुजारी पर बरस पड़ी - क्या कहा पुजारी जी आपने ? क्या बोला कि औरतों के मंदिर मे प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाता है ? आप जानते हैं जब तक औरतें ये पूजा कर रही हैं तभी तक इस मंदिर और भगवान् का अस्तित्व है जिस दिन छोड़ देंगी उस दिन न मंदिर रहेगा न तुम. समझे. तुम म म म म .......... पंडित को काटो तो खून नहीं लेकिन फिर भी अपनी पंडिताई दिखने से बाज नहीं आया बोला मैं आपकी शिकायत करूँगा ....... अम्मा ने कहा तुमसे पहले ये शिकायत मैं करुँगी के क्या महिलाएं इस गाँव की नागरिक नहीं? क्या मदिर के पुजारी से लेकर घर के लोंगों तक सबको उनका अपमान करने का हक है? पंडित हैरान सा चुप हो गया. २ दिन बाद खबर आयी के वो गाँव छोर कर चला गया है.
एक किस्सा और मुझे याद आता है जब उसने भरी सभा मे सबसे लड़ाई कर ली थी. मेरे बाबा और आजमगढ़ के तत्कालीन सांसद रामधन जी बहुत अच्छे मित्र थे. दोनों की मित्रता मे जात - पात, ऊँच - नीच जैसा कुछ नहीं था. बाबा जब भी कोई कार्यक्रम करते रामधन जी को जरूर बुलाते थे. हम भी उन्हें बाबा ही कहकर बुलाते थे. राम धन जी जाती से हरिजन थे. इसलिए कईयों को बाबा की इस दोस्ती से बहुत ऐतराज था. वो मेरी सबसे बड़ी चचेरी बहन की शादी मे शिरकत करने आये हुए थे. दरवाजे पर द्वारपूजा का कार्य क्रम चल रहा था किसी ने रामधन जी को मिटटी के कुल्लढ़ मे चाय और मिटटी के बरतन मे मिठाई दे डी जबकि दूसरे लोंगों को पलते दी गयी थी. किसी ने आकर अम्मा से कहा के बाहर ऐसा हुआ है उसने घर से बाहर तक सबकी क्लास ले ली. बाहर द्वारपूजा मे जाकर बाबा को बोला - आपने अपनी आँखों के सामने ऐसा होने कैसे दिया ? इसका मतलब आप अपने मित्र की दिल से इज्ज़त नहीं करते. रामधन जी से बोला - आप दरअसल इनके दोस्त नहीं हैं आपकी ये दोस्ती दरअसल राजनीतिक है दिल से नहीं. रामधन कुछ कहते उससे पहले ही वो बोल पड़ी अगर आप सच मे समाज का विकास करना चाहते हैं तो आपको इन लोंगों के आचरण का विरोध करना चाहिए. मित्रता इस बात की इज़ाज़त देती है अगर सच्ची है तो. बाबा और रामधन दोनों बहुत देर तक चुप रहे..
एक वाकया मुझे और याद आता है. १९९० मे जब मंडल आन्दोलन शुरू हुआ मैं M .A . की छात्र थी. आरक्षण को लेकर बहस बहुत तेज थी. खासकर हम छात्रों के बीच. एक दिन मेरा एक क्लास मेट मुझसे घर पर मिलाने आया. हम बैठ कर आरक्षण पर बात कर रहे थे . बात आरक्षण पर और उसके बटवारे पर होने लगी. अम्मा चुप चाप बैठ कर हमें सुन रही थी. जैसे ही बटवारे की बात आयी बीच मे ही बोल पड़ी - ये तो बहुत अच्छा है कि तुम पुरुष लोग २७ और २२ बाँट लो महिलाएं कहाँ गयी? हम सब अचानक शांत हो गए. उस समय तक महिला आरक्षण जैसा कोई सवाल नहीं उठा था
अम्मा के व्यक्तिव के ये पहलू उसे बहुतों से अलग करते थे. मुझे आज भी इस बात का गर्व है के मैं उसकी बेटी हूँ. मैं अम्मा के इसी क्रन्तिकारी रूप का साथ चाहती थी. पर हमरे रिश्तों के डोर एक दौर मे आकर उलझ गयी थी. वो चाहकर भी मुझे आधा अधोरा समर्थन दे पाती थी.
मौन
मौन भी कैसा ग़दर है दोस्तों
शोर कैसा मच गया है देख लो
चुप सधी रणभेरियाँ हैं सड़क पर
दुन्दुभी बजने लगी है देख लो
चाक में पिसते थे दिन रात जो
जग के बैठे हैं पकड़ के आरियाँ
हाथ उनके फड़कते से बढ़ चले
बटवृक्ष कितने कांपते हैं देख लो
साज, सत्ता त्योरियां सब हिल रहीं
तर्जनी के भाव भी फीके पड़े
सड़क जिनके पाँव से यूं हिल रही
आज उनके भाव भी तुम देख लो
देख लो अनजान सी वो उँगलियाँ
देख लो अनजान सी वो त्योरियां
देख लो हर ओर आलम प्रश्न का
धार उनके आँख की भी देख लो
एक सी पदचाप है और एक से नारे लगे
आग उनके पाँव की भी देख लो
अब नहीं रुक्केगा ये हौसला
बढ़ चला है , बढ़ चला है बढ़ चला
रोक सकते हो तो आके रोक लो
मौन भी कैसा ग़दर है दोस्तों
शोर कैसा मच गया है देख लो
.......................... अलका
हसरतें
पापा और मेरा रिश्ता बहुत जटिल रहा है.मैंने जब से इस दुनिया में आँख खोली है तो पुरुष के रूप में जिस पहले इंसान को देखा है वो पापा रहे हैं. उन्होंने मेरी छोटी छोटी जरूरतों , छोटी छोटी आदतों और छोटी छोटी तकलीफों का ख्याल रखा. बोलने की तहजीब सिखाई, भाषा का ज्ञान कराया, उंगली पकड़ कर चलाना सिखाया, वो सब सिखाया जो दुनिया में जीने और अच्छा इंसान बनने के लिए जरूरी है. उन्होंने ही जाने अनजाने मुझे सपनो की डगर भी बताई और उसपर चलाना सिखाया.
कई कई बार उनको माँ और पिता दोनों बनते देखा था. अम्मा जब पढ़ने के लिए स्कूल जाती तो वही मेरी जरूरतों का ख्याल रखते. बुखार आ जाने पर रात रात भर जागते रहते थे पापा. मेरी ऊँगली में लगाने वाली हलकी सी चोट पर एकसाथ कई दवाइयां खरीद लाते. ऐसे थे बचपन के पापा. उनकी आँखों में अपने लिए एक समय तक अम्मा से अधिक ममता देखी थी अपने लिए. हर पल मेरे लिए सोचना और बड़े बड़े सपने पापा के आंखे कल भी देखती थी और आज भी देखती हैं. पर एक लम्बे समय तक हमारे सपने विचार और तर्क टकराने लगे थे.. मेरे लिए उनके सोच की हदें सिमटने लगी थी. वो भी वही चाहते लगे थे जो दुनिया के सब पिता चाहते हैं. और मैं उनसे वक्त, और अपने लिए एक तरह की आज़ादी मांगने लगी थी. वो मेरे सपनो पर मेरी चाहतों पर सवाल खड़े करने लगे थे. अम्मा और उनके बीच कई बार मैं एक उद्दा बन जाती थी. कई बार सोचती क्यों है ऐसा? आखिर क्या बात है? क्या मैं कोई गलत तरफ जाने की जिद पर हूँ ? उस वक्त कई बातें बहुत परेशान करती थी मुझे.. बचपंन की बहुत सी बातें हर वक्त आँखों में तैरती रहती.
मुझे याद आता पापा का लाला- पाला कराना, अम्मा के पास चौके में खड़े होकर मेरे भविष्य के सपने बुनना, बाबा से मेरे लिए लड़ना, उनका इस बात का गुमान के उनकी बेटी दुनिया की सबसे सुन्दर बेटी है. मैं सोच सोच कर रो पड़ती के सब अचानक कहाँ चला गया सब . कई बार अपने आप से सवाल करती क्या लड़कियों को बड़ा नहीं होना चाहिए ? सपने नहीं देखने चाहिए ? सपने देखना गलत है ? क्या मुझे भी सारी लड़कियों की तरह चुपचाप अपने सपनो को दफ़न कर देना चाहिए? न न बिलकुल नहीं .......
मैं कोई तीसरे क्लास में गयी थी - सरकारी स्कूल की छात्र थी, उस समय अंग्रेजी ३सरे क्लास से ही शुरू होती थी. पहले दिन स्कूल गयी और टीचर ने अंग्ग्रेजी की वर्णमाला याद करने के लिए दिया. घर आयी तो पापा ने रोज की तरह सवाल किया स्कूल इ क्या पढाया गया ? मेरा जवाब था आज अंग्रेजी का A B C D याद करना है उनकी आँखें चमक उठीं और आधी रात तक वो मुझे पढाते रहे.
उस दौरान मै हमेशा इस जुगत में लगी रहती के पापा के दिल में अपने सपनो के लिए जगह बनाऊँ पर बात तो अटक ही गयी थी क्योंकि हम नदी के दो छोर पर खड़े थे.
Monday, August 29, 2011
हसरतें
मेरे सपने जैसे जिंदगी थे मेरी . कवितायेँ लिखना, गाना गाना, और अपनी आँखों से दुनिया को देखना लोगों को अपनी कलम के मध्यम से लोगों तक पहुँचाना जैसे सपना था मेरा. रोज मन से पूछती क्या चल पाऊँगी अपने सपनो पर ? क्या जी पाऊँगी अपनी जिंदगी ? मन जवाब देता - हाँ क्यों नहीं? पर कहीं न कहीं मन अपने ही अन्दर टटोलने लगता अपने आप को कि क्या सब आसान है? कई बार मैं खुद से पूछती क्यों अंतर्मन सवाल करता है क्यों उसे शंका है ? क्यों ? जवाब जानते हुए भी कई बार उसे स्वीकार क़रने में वही मन हिचकता है साथ नहीं देता. पर जवाब क्या हैं मैं कई बार आईने के सामने खड़े होकर पूछती. क्या माँ रोकेगी उडान भरने से? फट से मन बोलता नहीं बिलकुल नहीं पर फिर एक बार मन कहता ठीक से सोचो कहीं माँ ही तो नहीं फिर मन बोल उठता - न न .
मन फिर उसके साथ सबंधों की विवेचना करता और कहता - आखिर वो कैसे क़र सकती है ऐसा कैसे रोक सकती है मुझे मेरे सपनो को बुनने से ? कैसे रोक सकती है जबकी उसी ने पूरा है हर रोज मेरे सपनो की डोर को. हर रोज नए नए बीजों को रोपा है मुझमे. मेरी छोटी छोटी उपलब्धियों पर खुश होकर सीना तानकर खड़ी होने वाली कैसे रोकेगी ऊंचाई पर जाने से. मन फिर मुझे कहता वही तो है जो दूसरों से आपके जीवन के लिए याचना करती है. हर देव की चौखट पर सर पटकती है फिर क्यों रोकेगी.
तो क्या पापा ? किशोर मन उछल क़र कहता - नहीं. पापा तो बिलकुल नहीं. फिर मन अचानक सोचने लगता और सहते हुए कहता - क्यों नहीं वही तो हैं जो बाहर जाने से अब रोकते हैं . बात बात पर माँ से सवाल करते हैं. मैं कहाँ कहाँ जाउंगी वो तै करते हैं. क्या सच वो मेरे सपनो के साथ जीने देना नहीं चाहते ? बड़ा सवाल था. बहुत बड़ा पर मेरा मन मानाने को तैयार नहीं होता था. क्यों ? शय इसकी अपनी वज़ह थी.
Sunday, August 28, 2011
शब्द
कुछ शब्द सतह से उड़कर
सामने आ गए हैं
गर्जना क़र रहे हैं
मेरे अन्दर के शून्य को टटोल क़र
उसका खाका बना रहे हैं
बार बार मन पर चोट क़र
सवाल दे रहे हैं
पूछ रहे हैं वो वेदना
जो अब भी कहीं गहरे
तली में,
मौन साधे चीत्कार रही है
क्या है ? क्यों है?
शब्द फिर तडक रहे हैं भड़क रहे हैं
बार बार उड़कर उस तली में जाकर
टटोल रहे हैं
समय के पार का सच
जानने को घुमड़ रहे हैं मेरा चेतन ,- अवचेतन
करने तो मैं खुद ही बैठी हूँ कई पन्ने स्याह
इस चेतन अवचेतन के द्वन्द में फंस क़र रह जाती हूँ
क्यों है ऐसा ?
विचरती हूँ इस सवाल के साथ
खोज़ती हूँ सच की कलम
सच्चे शब्द
और एक पन्ना शफ्फाक
आसान नहीं है ये इतना
जब
जाती हूँ अन्दर उलटने को पन्ने
समय सच और कई तंतु बंधाते हैं
पाश में
रोकते हैं, उलझाते हैं कभी कभी
डराते भी हैं
किन्तु हवा में ये तैरते ये शब्द
गढ़ेंगे वो पन्ना लगायेंगे आग
क्योंकि ये शब्द ही मेरे अपने हैं
हवा में तैरते बल देते हाथ पकड़ क़र
रास्ता बता रहे हैं
वो उतर गए हैं मेरी कलम के पार
.......................... अलका