Friday, January 20, 2012

एक नदी का जख्म

माना कि
हम
उसे पूजते रहे हैं सदियों
पर
अब भी सब अनजान हैं
कुछ बातों से
और सबके नाम लिखी उसकी एक पाति से
जिसमें लिखा है
उसका बचपन , यौवन और सुनहरे दिन
अंतिम अध्याय
अथाह दर्द और
अग्रह से भरा है
यह वसीयत है एक नदी की
जिसे पढकर
गयी थी उसके पास मिलने
हुलस कर नहीं आयी वो
मेरे पास पहले की तरह
दूर से ही
घुटनों पर खडी हुई
निहारा
और वहीं पसर गयी
इतनी वेदना !!
इतना अश्य दर्द !!!!
सोच ही रही थी कि उसने
बुलाया, कहा कि
फुर्सत से आओ
तो कभी बात हो
दिल खोलकर
तो दिखाऊँ अपना जख्म
मुझे पूजने से पहले इसे
देखना जरूर
एक बार
यह भी देखना कि
इतने साल कैसे रही हूम मैं
और कितना सहा है
व्यवभिचार
माँ थी मैं ऐसा सब कहते थे
फिर भी बालात होता रहा ये
अत्याचार
मुझे पूजने से पहले
सुनना जरूर एक बार
जानती हूँ मृत्यु के कगार पर हूँ अपनी पीडा से अधिक इस पीडा में हूँ
कि मेरे जाने के बाद फिर जुलसेगी ये भूमि
और इंतज़ार करना होगा
सगर के पुत्रों को
सदियों एक भगीरथ का
.......................... अलका

Thursday, January 19, 2012

अदम होने का मतलब

अदम को श्रद्धांजलि देते हुए एक लेख लिखने की कोशिश कर रही हूँ और सोच रही हूँ कि क्या विषय चुनूँ जो उनके रचना संसार का सबसे शानदार पक्ष हो सबसे जानदार पहलू. सच कहूँ तो हज़ारों बार उनकी कविताओं को पढा है, दिल से पढा है. खूब वाह- वाही भी की है. दोस्तों को उनके शेर सुनाकर उनके बीच अदम गोंडवी को जानने पर काँलर खडा किया है किंतु आज जब उनकी कविताओं से गुजरी रही हूँ तो सोच में पड गयी हूँ कि उनके काव्य संसार से उनका कौन सा पक्ष सबसे मजबूत है जिसे विस्तार दूँ इस लेख में. आज मह्सूस हो रहा है कि कितना मुश्किल होता है एक कवि के न रहने पर उसकी कविताओं पर कलम चलाना.
अदम मेरे कुछ बेहद पसन्दीदा शायरों में से रहे हैं इसलिये मैं इस समय दोहरी कठिनाई से गुजर रही हूँ. ऐसा इसलिये नहीं कि मैं उन्हें नायाब हीरा सिद्ध करने की कोशिश में हूँ बल्कि सोच रही हूँ कि क्या इस कवि को आज तक जो समझ पायी थी उनपर लिखने के लिये उतना काफी है? क्या मैं लिख पाउंगी कुछ ऐसा जो अदम के लिये अदम की आवाज़ में होगा? यह सवाल एक बडा सवाल है क्योंकि पिछ्ले कुछ दिनो में मैने अदम को जितना पढा है उतना ही उनपर लिखे आलेखों को भी पढा है. इसलिये दो चार शब्द जो उनकी रचना के इर्द – गिर्द मेरे कान में गूंज रहे हैं वो हैं – जनवादी कवि, गंवई कवि, समाज वादी कवि आदि आदि. सच कहूँ तो मुझे उनको गंवई कहा जाना हमेशा से खटकता रहा है. मुझे समझ नहीं आता कि यह नाम उनको क्योंकर दिया गया? आज तक कविता, उसकी भाषा और कविता के पीछे के दर्शन को जिनता समझती आयी हूँ उस समझ के हिसाब से मेरा मन कहीं से भी उनको एक गंवई कवि कहने से कतई इंकार करता है. कई बार मन करता है कि पूछूँ लोगों से कि वो अदम को गंवई क्योंकर कहते हैं? बार – बार उनकी कविताओं को पढ्ती हूँ, कई - कई बार उनकी किताब के पन्ने पलटती हूँ पर मुझे उनकी भाषा, हिन्दी – उर्दू के उनके ज्ञान, उन शब्दों के प्रयोग के सलीके, कहीं से भी उनके गंवई होने की बू नहीं आती और ना ही सामाजिक सरोकारों को लेकर उनकी समझ मुझे निराश करती है. तो आखिर गंवई कैसे ? मैं यहां उनकी भाषा, हिंदी उर्दू के उनके ज्ञान, शब्दों का चयन, उसके प्रयोग के सलीके के मुत्तलिक दो शेर उदाहरण के लिये रखना चाहूँगी –
1. मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

2. यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
ये दोनो शेर अदम की शायरी भाषा के उनके ज्ञान और अदब के सलीके का बेह्तर नमूना है. पहले गज़ल का हर मिसरा इस बात की ताकीद करता है कि इस कवि का हिन्दी ज्ञान बेमिसाल था तो दूसरी गज़ल का हर मिसरा उनके उर्दू तालीम पर फख्र करता है. आप देखें तो मुक्तिकामी.................... ये गज़ल ना केवल शुद्ध हिन्दी में है बल्कि भारतीय इतिहास और उसकी जतिलता की उनकी समझ का एक नमूना भी है और दूसरी गज़ल का यह शेर और इसके साथ के सभी शेर जिन्दगी के प्रति उनके दर्शन और उसकी समझ का एक नमूना है. देखें बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

अदम के रचना संसार के ऐसे ही बहुत से शेर मुझे अदम को जानने, उनको समझने को मजबूर करते हैं. आश्चर्य होता है कि इतने बारीक नज़र वाले बेमिसाल शायर को वह मुकाम् हिन्दी कविता में क्यों नहीं मिला जो उनके समय के दूसरे कवियों को मिला? आखिर क्या कारण हो सकता है ? कहीं मन में से दबी सी आवाज आती है शायद उनकी बेबाकी इसका कारण हो. कभी लगता है शायद उनका कम पढा लिखा होना इसका कारण हो. ये सवाल मन को परेशान करते हैं और अदम की पूरी शख्सियत का सच खोज़ने का बहाना देते है. देखा जाये तो अदम की भाषा, उनकी शिक्षा के स्तर और उनके रहने के ठेठ अन्दाज ने लोगों के बीच उनकी जो पह्चान बनायी है वह उनकी सोच, सामाजिक बुराइयों, शोषण, गरीबी और उसके कारणों के पीछे के सच और भ्रष्ट राजनिति जैसे विषयों की बारीक समझ से बिल्कुल अलग है. किंतु उनकी कवितायें और जीवन जीने का तरीका मेरे दिमाग में उनकी एक अलग ही तस्वीर पेश करता है और इसीलिये मैं अदम की दृष्टी और मिज़ाज़ को समझने के लिये देश की आज़ादी के ठीक 2 महीने बाद 22 अक्तूबर 1947 से उनको जानने की कवायद शुरु करती हूँ.
विकीपीडीया और कविता कोश के माध्यम से इस बात की जानकारी मुझे मिली कि रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी का का जन्म: 22 अक्तूबर 1947 को ग्राम परसपुर, जिला गोंडा में हुआ था. इस जानकारी के बाद मेरी निगाह दो जगहों पर जैसे अटक जाती है पहली जो चीज़ मुझे खींचती है वह है अदम की जन्म तिथि और दूसरी पैदा होने वाली जगह. मेरे लिये ये दोनो बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अपने अध्ययन काल में मैने गोंडा जिले का जिक्र पढा था काकोरी कांड के एक शहीद लाहिरी के सन्दर्भ में. और दूसरा महत्वपूर्ण जिक्र इस जिले का पढा था 1857 के गदर के दौरान इसीलिये अदम को जानने समझने की मेरी ललक इस कदर बढ गयी है कि मैंने इस जिले के इतिहास के कई पन्ने पलट डाले.. मैं हमेशा अवध के इतिहास से अभिभूत रही हूँ आज अदम के बहाने गोण्डा के उन दस्तावेजों तक भी पहूँच गयी हूँ जिससे कमोबेश थोडा अनजान रही थी. दूसरी तरफ गोंडा के समाजिक ताने – बाने को देखा जाये तो वह एक समृद्ध अवधी छाप छोडता है जहां धार्मिक उफान की जगह मिलजुल कर रहने और एक दूसरे को जीने सहने को रिवाज है. किसी भी शख्सियत पर उस स्थान का बडा प्रभाव होता है जहां वह पैदा हुआ और पला बढा और अदम का पूरा जीवन गोण्डा में ही बीता इसलिये इसकी विरासत और आर्थिक सामाजिक विसंगितियों से मिली समझ दोनों उनके रचना संसार में दिखती हैं. इस बात का सबे बेह्तर नमूना है उनका ये शेर -
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
पर दूसरी तरफ अदम की जन्मतिथि मुझे अदम की इस विरासत को थोडा और समझने को मजबूर करती है. अदम तब पैदा हुए जब देश को आज़ाद हुए मात्र 2 महीने 7 दिन हुए थे. इस तरह देखा जाये तो अदम का बचपन किशोरावस्था और युवावस्था और देश निर्माण, गरीबी सब हम कदम थे. वह जब 5 वर्ष के हुए तो इस देश में लोकतंत्र अपनी शब्दिक परिभाषा के साथ खडा हो चुका था किंतु दूसरी तरफ देश के सामने विकट स्थितियां मुंह बाये खडी थीं. जैसे देश कैसे बनाया जाये? किस दिशा में बढा जाये? कानून क्या हों? गरीबी कैसे मिटे? लोगों के स्वास्थ्य तक कैसे पहुंचा जाये. बच्चों की शिक्षा भी एक बडा मुद्दा था. और इसी समय देश में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की गयी लग भग यही दौर रहा होगा जब अदम पहली कक्षा के छात्र रहे हों शायद. कितना साम्य है अदम और इस देश के विकास में. पर मुझे अदम की शायरी दोनो में एक बडा फर्क मह्सूस करने को मजबूर करती है. इस उमर में जाहिर है अदम की समझ इतनी नहीं थी कि वो संविधान का मतलब समझ सकें और ना ही इतनी कि वह पंच वर्षीय योजना का अर्थ जान सकें किंतु उनकी इतनी उम्र जरूर थी कि वह अपने आस – पास को मह्सूस कर सकें जो उनके मन में कौतूहल पैदा करे , अपनी मां और बडे बुजुर्गों से सवाल पूछ सकें. यह उमर जरूर थी कि वह अपने पडोस की काकी की खाली पतीली देख सकें और साथ में खेलने वाले बच्चों की पनीली आंखों को पहचान सकें और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ यह् सवाल उन्होने पूछे जरूर होंगे अपनी मां से कि घीसू के घर का चूल्हा ठंढा क्यों है ? क्यों पडोस का बच्चा रोता है ? मुझे पता नहीं कि अदम ने कौन सी गज़ल कब लिखी किंतु मैं ये मह्सूस करती हूँ कि पंचवर्ष्रीय योजनाओं ने अपनी जिम्मेदारी को भले ही उन पैमानो पर ना निभाया हो किंतु अदम ने यह लिखकर कि
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
इमानदारी से अपनी जिम्मेदारी भी निभायी है और इस बात का आभास कराया है कि उन्होने अपने गांव के घरों , उनके हालत उनके गोदाम और चूल्हे देखे हैं. उन्होने इमानदारी से हमें बताया भी है कि गांव के हालात अच्छे नहीं हैं. यह भी बताया कि हमारे देश के 6 लाख से उपर के गांवों के लाखों घरों में आज भी चूल्हे ठंढे हैं और दूसरे लाइन में वो वह यह भी कह देते हैं कि मैं ऐसे हालात में कुछ और नहीं लिख सकता और ना ही कुछ और सोच और कर सकता हूँ. आप इस गज़ल का अंतिम शेर पढिये वह अदम की जात और सम्वेदनशीलता बखूबी बताता है कि-.
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
यकीन मानिये इस पहले शेर को पढकर मुझे अपना गांव याद आता है. जहां के कई चूल्हे जलने का कोई वक्त नहीं था. वो दो हरवाह और उनका मुहल्ला याद आता है जहां बच्चे तब एक वक्त की रोटी ही पाते थे. यहां मैं एक खुलासा करती चलूं कि अदम जिस इलाके से आते थे वह गंगा यमुना का उपजाऊ मैदान का इलाका है किंतु इस पूरे इलाके की एक बहुत पीडा दायक हकीकत भी है. यह इलाका जहां एक तरफ बाढ की विकट स्थितियों का सामना करता है वहीं अंशिक सूखे का शिकार भी होता रहता है. इस पूरे इलाके का एक सच और भी है जिससे नयी पीढी शायद ही परिचित हो. मेरे बुजुर्ग बताया करते थे कि इस पूरे इलाके में एक लम्बे समय तक आबादी का एक बडा तबका दोनो वक्त खाना नहीं खाता था. वह यह भी बताया करते थे कि बहुत कम घर ही ऐसे थे जहां लोग दोनो वक्त खाना खाते थे. लोग एक वक्त रस - दाना (गुड का रस और कोई भी भुना अनाज़ )करते थे और एक वक्त खाना खाते थे. यह स्थिति बडी जातियों की भी थी. हरिजन और अन्य जातियों की स्थिति और भी खराब थी. जब इस शेर को मैं अपने और अदम के गांव से दूर भारत के दूसरे गांव में ले जाकर देखती हूँ तो पाती हूँ कि बेतुल, खंडवा, चिन्दवाडा जैसे भारत के अन्य इलाकों में आज भी कई घरो के चूल्हे अभी या तो ठंढे हैं या उसके कगार पर फिर खडे हैं. इन इलाकों में आज भी आदिवासी जो खाते हैं वो उनके पारम्परिक खाने की दुखद तस्वीर ही पेश करता है. हिमाचल के सुदूर चम्बा में भी स्थि तियां बहुत खराब हैं. कई बार इन इलाकों में बच्चे भूखे स्कूल आते हैं और स्कूल में मिलने वाले भोजन का इंतजार करते हैं इतने संवेदंशील कवि को मैं कविता और उसके अर्थों के साथ जब थोडा और समझने की कोशिश करती हूँ तो एक बार फिर उनसे देश को और उसके हालात को जोडती हूँ.
1964. 1966 और फिर 1967 का अदम यानि युवा होता अदम. लिखने के लिये पूरी तरफ तैयार एक युवा कवि जो कहता है कि ‘’मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।‘’जैसे संकल्प लेता हो उस खाने में खडे होने के लिये जहां से देश का एक मतलब होता है. सोचती हूँ इस वक्त में क्या देख रही थीं उनकी आंखें ? क्या समझ रहा था उनका दिमाग ? अगर आज़ाद भारत के इतिहास को उठाकर देखें तो यह तीनो वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं. 27 मई 1964 को देश के पहले प्रधान्मंत्री नेहरू जी की मृत्यु हुई यह वह दौर था जब देश सबसे गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा था. 1962 का युध्द भारत हार चुका था. बजट घाटा, व्यापार घाटा , गरीबी, भूख सब देश का एक चेहरा बनता जा रहा था. इस दौर में भारत सबसे बडे खाद्य संकट से गुजर रहा था. इससे निज़ात पाने के लिये 1966 में प्रधानमंत्री बने लाल बहदुर शास्त्री ‘जय जवान जय किसान का नारा दे रहे थे’ और शहर वालों को गमले में खेती करने के लिये प्रेरित कर रहे थे ताकि इस संकट से उबरा जा सके.
तो अदम का साहसी मन क्या विचार कर रहा होगा? कुछ लिखा होगा तो क्या लिखा होगा क्योंकि उसी दौर में शायरी लिखने और पढने का शौक रखने वाले अदम जो समकालीन सहित्य पढ रहे थे वहां कैफी आज़मी, अली सरदार जाफरी जैसे शायर अपनी कलम से इन्हीं विषयों पर आग उगल रहे थे. इस तरह अदम को देश और उसके हालात से जोड्कर देखते हुए अचानक मुझे अदम के दो शेर याद आये है इसे पढते – सुनते आगे बढते हैं कि-
1. इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नीक का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
2. जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
इस शेर पर बात कभी और पर मैं अभी देश के हालात और अदम को जोड्कर देखती हूँ तो कई सवाल मन में उठते हैं. सोचती हूँ कि इतनी पैनी निगाह और बेबाक शायर को आखिर कार पढाई किस हालात में छोडनी पडी होगी. सोचती हूँ क्या अपने मनमाने पन के कारण? या फिर घर के हालात के कारण? या फिर गांव के आस पास स्कूल नहीं था इस कारण? मैं इन तीनो सवालों के सही सही जवाब नहीं जानती. पर जवाब खोजने की कोशिश में मैं उस दौर के युवाओं के जवाब से समझने की कोशिश करती हूँ.
अदम मेरे पिता से उम्र में कोई 8 साल छोटे हैं. मेरे पिता की पैदाइश सन 1939 की है. मैने बचपन से अपने पिता के मुँह से उनके बचपन और उनकी पढाई की दस्तान सुनी है. मेरे पिता उस दौर की जो कहानी बताते हैं उसके मुताबिक उस वक्त अधिक लोगों का सिर्फ पांचवी पास होने के दो कारण थे पहला गांव या आस पास के गांव तक 5वीं तक की शिक्षा का ही इंतज़ाम था किंतु उससे उपर की शिक्षा के लिए ये इंतजाम कम ही था. दूसरी जो महत्वपूर्ण बात वो सामने लाते हैं वो है आम परिवारों में शिक्षा का खर्च उठा पाने की साम्रर्थ्य का ना होना वो कहते हैं कि.अगर माँ-बाप कोशिश भी करते अपने किसी बच्चे को पढाने की तो उन्हें इसके लिये अपने अधिशेष का एक बडा हिस्सा बेचना होता था जो रोजमर्रा के जीवन पर बहुत असर डालता था. ऐसे में अधिकतर बच्चे और माता पिता दोनो यह स्वीकार कर लेते थे कि बस इतनी ही शिक्षा उनके हिस्से में थी.
कितना दुखद और त्रासद इतिहास है बच्चों की शिक्षा का ? फिर अदम के रचना संस्कार में इतनी परिष्कृत भाषा और पैनापन कैसे और कहां से आया ? कैसे उनके पास इतिहास का इतना विशद ज्ञान आया? कैसे आया सवाल और आग्रह करने का यह सलीका? क्योंकि जब अदम कहते हैं कि
“फटे कपड़ों में तन ढाँके गुजरता हो जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती है.”
यह शेर मुझे हमेशा एक तरह के आग्रह का आभास देता है तो एक तरह् का जावाब भी देता सा लगता है उन लोगों को जो उनके मटमैले कपडों के कारण उनको गंवई जैसी उपमा से नवाजते थे. इस शेर का अर्थ तलाशने से पहले मैं यहां उनके मट्मैले कपडों की बाबत एक बात बताती चलूँ कि अदम जो मटमैले कपडे पहनते थे कपडों का वह मटमैलापन आज़ादी के समय और उसके बाद भी एक लम्बे दौर तक गांव के पढे लिखे लोगों का जैसे परिधान था जैसे ड्रेस और जो दूसरी महत्व्पूर्ण बात है वो ये कि गांव में धुले जाने वाले कपडों की सफाई का उच्चतम पैमाना भी यही था और आज भी कमोबेश है.
बहरहाल बात अदम के आग्रह और सवाल करने के सलीके की हो रही थी तो यह शेर मेरे मन में बार बार सवाल उठाता है कि किससे कह रहे हैं वो ये बात? और क्यों कर रहे हैं ये बात ? क्या उनकी युवा अवस्था के बाद देश के हालात ऐसे हो गये थे कि यहां एक वर्ग सुनने वाला और एक वर्ग कहने वाला पैदा हो गया था? क्योंकि यह शेर लिखना न तो श्रोताओं को वाह -वाह कहने पर मजबूर करना है और ना ही खुद के सुकून के लिये लिखना है. तो आखिर क्यों लिखा उन्होने ऐसा? और मेरी नज़र उनकी एक बहुत मशहूर गज़ल -

काजू भुनी प्लेगट में व्हिस्कीन गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्केह समाजवादी हैं तस्कसर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में


पर जाती है. सच कहूँ तो इस पूरी गज़ल को मैने कई बार पढा है और जब जब मेरी नज़र दूसरे शेर के अंतिम मिसरे पर गयी है तब तब मुझे फटे कपडों मे तन ढांके ....................... अदम के गांव जाती है याद आ जाता है और मैं समझ पाती हूँ कि उनका पहनावा भारत के लोगों की अर्थिक त्रासदी के प्रतीक के तौर पर था जिससे हो न हो वह भी गुजरते हों. किंतु जब वो काज़ू भुनी प्लेट की बात करते हैं तब लगता है कि उनकी आंखों ने लगातार देखा कि ऐसे दृश्य देश में आम होते जा रहे हैं. उनके दौर के लोगों के आज़ादी के सपने मरते जा रहे हैं. देश में फाइलों का मौसम गुलाबी होने लगा है और सारे दावे किताबी होने लगे हैं. शायद यही कारण था कि उन्होने सबसे पूछा कि ‘’आप कहते हैं सरापा गुल्मोहर है जिन्दगी ‘’ जितना मैं अदम को पढने के बाद समझ पा रही हूँ वह मुझे एक तरफ अश्चर्य में डालता है वहीं दूसरी तरफ सोचने को मजबूर भी करता है कि आजीवन गंवई का ठप्पा लेकर अपनी बात कहने वाला ये शायर कद में उन सब से कितना बडा और बारीक समझ रखने वाला था जो उनको सुनते थे और जो आसपास बैठ्कर कविता पढते थे . आप देखिये जितनी बारीकी से बेमिसाल बिम्बो को उभार कर काजु भुनी प्लेट का जिक्र किया है उतने ही दिल से बहुतों दिनो तक सवाल भी किया है कि
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

मजे की बात यह है कि ये सवाल एक तरफ जहां देश के लीडरान से हैं वहीं पढे लिखे कहे जाने वाले शहरी लोगों की जमात से भी थे किंतु यह आग्रह सबसे अधिक अपने जैसे कवियों शायरों से था. जो बार – बार उनके ठेठ अन्दाज के बहाने उनकी कम औप्चारिक शिक्षा , उनके पहनावे और रहने के देसी अन्दाज़ से उनको गंवई कह्कर बुलाता रहा. उससे उन्होने कहा कि

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्संल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मेा के सिवा क्याी है फ़लक़ के चाँद-तारों में

अदम ने अपनी बात बहुत ओज, बेबाकी और साह्स के साथ अपनी हर कविता में रखी है. उनकी हर लाइन इस बात का पक्का सबूत है कि उनको देश समाज और लोगों की समस्यायें साफ साफ दिखती थी और वह उतने ही साफ तरीके से हमारे सामने उन सभी समस्या को रखते भी थे. हर कविता में सबकी आंखों में आंखें डालकर बहुत साहस से कहते थे कि आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को. यही कारण है कि मैं उनको एक सजग चेतना का कवि कहती हूँ और मानाती हूँ कि वह सामाजिक सरोकारों के कवि थे. अदम की यह चेतना उस शेर के तर्ज़ पर बढती है जिसमें फैज़ कहते हैं कि ‘’और भी गम हैं जमाने मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राह्त के सिवा’’ अदम इस बात को कुछ इस तरह कहते हैं कि ‘’सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे,मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है’’. मैं यहं दोनो कवि की तुलना नहीं करना चाहती किंतु यह जरूर कहना चाहूँगी कि दोनों की कविता का एक मुकाम है और वह इस वज़ह है क्योंकि दोनो ने कविता और इस फन को समाज और लोगों की समस्या और उनके नज़रिये से जिन्दगी को देखा है. इसीलिये अदम का लहज़ा सख्त और बातें जलते हुए तेज़ाब की तरह हैं जो कानो से गुजरते ही दिमाग को जैसे मजबूर कर देती हैं कि अदम की सुननी ही होगी और उसपर सोचन ही होगा कि
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए
................................................................................................................................

Tuesday, January 17, 2012

एक गुजारिश है मेरी

हर कलम से एक गुजारिश है मेरी
जब भी रहना किसी हाथ
उतरकर रुह में उसकी जिन्दगी कुछ ऐसे लिखना
कि जब भी पढे कोई आंख या पलटे पन्ना
तो हर लफ्ज़ को समझे
किसी जिद की तरह

जब भी भूख लिखना तो लगे पेट डहकता है मेरा
गरीबी लिखना तो लगे मेरे अपने हैं बिना रोटी के

जब भी लिखना कोई नज्म कोई गीत प्रेम का लिखना
दोस्त मेरे उस नज़्म के मायने लिखना

बच्चे लिखना तो दूध और दाना लिखना
नगे फिरतों का आसरा भी लिखना

जब कभी इससे कोई औरत लिखना तो लगे खडी बराबर में
वो जो जीती है, उसके जीवन के मायने लिखना

देश लिखना तो कई खांचे गढना
नेता लिखना और उनका बहकना लिखना

मैं बहुत दूर में बैठी समझ् रही थी तुझे
तब ही जाना कि अब क्या क्या लिखना

कुछ आग लिखना है थोडा पानी भी
रात भर बरसी बूँदों का काफिला लिखना

तू कलम है और ये जिद है तेरी
ऐसा ही कुछ फलसफा लिखना

यह लिखना जरूरी है कि यह दौर है ऐसा
हर्फ हर्फ इस दौर का माजरा लिखना

जब भी इतिहास इस दौर का देखे दुनिया
एक तेरा ईमान जिन्दा है लिखना

..................................................अलका

Thursday, January 12, 2012

यही होगी हमारे बीच परिवर्तन की बयार

हमारे देश में
एक पुत्री का पिता
ऐसे चित्रित किया जाता रहा है
जैसे सबसे बेचारा प्राणी हो दुनिया का
और बेटियां ऐसे जैसे सबसे बेबस और् दुखियारी जीव हों
दुनिया की

जब भी सोचती हूँ ठिठक जाती हूँ
पिता के बारे में
कई बिन्दुओं पर रुक रुक कर सोचती हूँ
सवाल करती हूँ उनसे भी , खुद से भी
और पूरी दुनिया से
ऐसा क्यों है ?

जब भी देखती हूँ पिता को
लगा है एक वक्त तक
मन की चौखट पर दरबान् से खडे रहे हैं
जब भी सोचती हूँ लगता रहा है
जैसे उनकी आंखें कुछ तलाश रही हैं
जैसे कोई ऐसा जो पुल बन सके हम दोनो के बीच
जब भी देखती रही हूँ आशा से उनकी ओर
उनकी आंखें जवाब से बचती रही हैं
चुप रह जाती हैं मेरे सवालों पर
जैसे बच रही हैं मुझसे
जैसे चोरी कर रही हों


मेरे जन्म पर उदास हुआ होगा उनका चेहरा
पता नहीं
पर मह्सूस करती हूँ उनके अन्दर एक हूक आज भी
तब जब मेरी सफलताओं पर हुलस कर कह उठते हैं
‘’ काश तुम मेरा बेटा होती”’ यह वक्तव्य अन्दर तक धंस जाता है
बहुत कुछ बजता रहता है अन्दर देर तक
जैसे तीर सा कुछ चुभा हो

उनकी ऐसी ही कुछ आदतें
मुझे संतान के दायरे से निकाल बेटी बना देती हैं
और मैं सवाल पर सवाल के साथ
दूर खडी समझती रहती हूँ
बेटी होने का अर्थ कि
मैं और वो बहुत करीब हैं दिल के
पर विचारों से कितने दूर
कितने करीब हैं रिश्ते में
सम्बन्धों में कितने दूर

याद आते हैं कुछ पल छुट्प्न के
तब हमारे बीच रिश्ते
तक कितने सरल थे जब मैं तोतली जबान में सम्वाद सीख रही थी
तब भी सरल थे जब स्कूल में कदम रखा था और तब भी सरल थे जब 8 वीं में गयी थी
पर 10वीं की दहलीज ने जैसे 10 मत्भेदों की नीव रख दी हमारे बीच
जैसे 10 पर्वत श्रृंखलायें

मेरे और उनके बीच अब भी एक दरार है
जिसे भरने के एक तरफा प्रयास में जुटी हूँ
कि समझा सकूँ उनको
बेटी का मन
उसका आकाश
उसकी दुनिया
और उसके कदमों की भाषा भी
जानती हूँ एक दिन उनके मन के अन्दर भी विचारों की कुदाल चलेगी
उस दराद को भरने के लिये और तब तक
चलाती रहूंगी अपनी
छोटी सी कुदाल
उस दरार को पाटने के लिये
यही होगी हमारे बीच
परिवर्तन की बयार
........................................ अलका

Wednesday, January 11, 2012

दस दिन हो गये

आज दस दिन हो गये
बिल्ली ने दूध पर धावा नहीं बोला
नाही कुत्तों ने रोटी मांगी है और ना ही
वह काली गाय खडी हुई है दरवाजे पर
इस लम्बी गली में एक दम सन्नटा पसरा पडा है
रात की बची रोटियाँ ले मैं उनके इंतज़ार में घंटॉं खडी थी आज
पर गली में एक परिन्दा भी नहीं आया पर मारने
आज़ीब दिन हैं ये सर्दियों के
सोच रही हूँ
कैसे होगी वो बिल्ली जो दिन भर में एक किलो दूध तो डकार ही लेती है
वो कुत्ते जो दिनभर रोटी के इंतजार में मेरा दरवज़ा नहीं छोड्ते
वो चिडियाँ वो काली गाय
मुझे तो जैसे आदत हो गयी है इस सब की

माँ कहती थी
एक की कमाई में कई का हिस्सा होता है
वो सच थी क्योंकि हर रोज ये सब लडते थे मुझसे
रोटी के लिये, दूध के लिये, दाना के लिये
बिल्ली और मैं तो जैसे खेल खेलते थे
वह मलाई मारने के लिये दौड्ती
मैं बिल बिल कह बचाने के लिये
वो दूध पर जैसे नज़्र गडाये रहती
मैं बचाने पर
यह हमारा दिन भर का खेल और आदत थी
कुत्ते तो जैसे टिके रहते दरवाजे पर
जब तक रोटियां ना मिले
देखते ही ऐसे चिल्लाते जैसे मांग रहे हों अपना हक
ना देने पर तो आग्रह जैसे सम्वेत क्रोध में बदल जाता
यह भी मेरे जीवन का एक अहम खेल था अहम हिस्सा

वो काली गाय!
उसका तो जवाब नहीं
एक मिनट इधर उधर नही हो सकता घडी से
ठीक चार बज्कर दस मिनट शाम
खडी हो जाती थी दरवाजे पर
रोटी के लिये

दस दिन हो गये हैं
सब गायब हैं
कुत्ते – बिल्ली, चिरिया- चुरमुन सब
आज मैं उनके भी इंतजार में हूँ
पका रही हूँ सबकी रोटियाँ
माँगेंगे सब अपना – अपना हक
और हम फिर खेलेंगे खेल
पहले की तरह
.................................................... अलका

Sunday, January 8, 2012

लावारिसों की दुनिया

लावारिसों की दुनिया में कभी गये हैं आप ? जी हाँ वही जो पडॆ रहते हैं
रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर
सडको के किनारे, अस्पतालों में
घाटों पर
यहां वहां , इधर उधर ?
देखा है कभी उनको बरसती रातों में
कपकापाती ठंढ में और चिलचिलाती गर्मियों में ? नहीं देखा है तो देख आइये
कुछ कदम चल
मह्सूस कीज़िये उनकी जिन्दगी और देश के सच को एक साथ
पूछिये खुद से सवाल क्योंकि
वो भी एक दुनिया है इंसानो की
जहां हर चीज़ के लाले हैं
हर मौसम खौफनाक् है
हर व्यवस्था ढीली है
और वो हालात से मजबूर् जी रहे हैं
क्योंकि नागरिक वो भी हैं कोई मह्सूस नहीं करता ना ही मह्सूस करता है उनके नागरिक अधिकार
इसलिये देख आइये देश का वो भी हिस्सा जो हमारे गौरव पर
टाट के पैबन्द सा है , एक बडा प्रश्ंचिन्ह है
देख आइये जाकर आज ही अपने शहर के अस्पताल में शहर के स्टॆशन पर इधर –उधर
हर जगह मिल जायेंगे बस देखिये तो जरा
आंख खोलकर
बहुत बडी दुनिया है उनकी भी
जहां लाचर और बीमार बूढे भी हैं
फूल से बच्चे भी, अपने होश खो चुकी औरतें भी हैं और बहुत युवा और युवतियां भी
सब हमारे आपके कारण की रहते हैं वहां
जीते हैं मौत हर दिन
बडे ही दर्दनाक स्वर में कराहती है मानवता यहां
न घर है ना खाना ना कपडे हैं यहां
बस देख आइये एक बार
देख आइये
पूछ आइये उनका हाल
लौट कर आप भी सवाल करेंगे
खुद से,
इस देश से और करोडों के हेर फेर वाले हमारे जन प्रतिनिधियों से
कि कौन हैं ये? और हैं इनके अधिकार ?
और ये भी कि क्या हम रहते हैं ऐसे देश में
जो कलाण्कारी राज्य है ? जरूर पूछेंगे ऐसे ही कुछ सवाल
जरूर पूछेंगे
........................................................... अलका

कुछ गुण सीखे थे उससे

इस बार सर्दी में माँ को खूब याद किया
कुछ गुण सीखे थे उससे
विरासत में
सर्दी से लडने के , उससे निपटने के
उसने भी सीखे थे अपनी माँ से
उसकी माँ ने अपनी माँ से
ऐसे ही पिढियों ने पिढियों से
कुछ गुण सीखे थे
परम्परा के नाम पर
उस गुण को आजमाया इस बार
जैसे दूध में हल्दी, जैसे शह्द और अदरक़
जैसे सोंठ, तुलसी, कुटकी
और जौरांकुश की पत्तियाँ
सब काम आती हैं सर्दी से लडने के
माँ के इस ज्ञान में अज़वायन भी थी
और काली मिर्च भी
एक काढा था और हींग भी
जो सर्दी को शरीर से खींच
चुस्त कर देता है तन को
इस बार सर्दी में उसकी कही बहुत बात
याद करती रही और आज़माती भी रही
बार बार
क्योंकि बेअसर हो चुकी थीं डाक्टर की अंग्रेजी दवायें
और बेअसर हो चुका था कफ सीरप
हर कैप्सुल के हो रहे थे साइड इफेक़्ट
बस याद आ गयी माँ और उससे सीखे गुण
कुछ नुस्खे जो असर कर गये
माँ से,
वह बांट गयी है इसको इस विश्वास से कि मैं भी
बांट दूंगी इसको ताकि चलती रहे ये परम्परा
माँ के नाम पर
.................................. अलका

Saturday, January 7, 2012

कहो ना ऐसा क्यों है ?

कल मेरे एक मित्र ने कहा कि कभी आपने प्यार के अह्सास की कवितायें लिखी हैं ? फिर कहा आप दर्द ही लिखना चाहती है बस. क्या जवाब देती मैं चुप थी. सोचती हूँ कविता और विचार दोनो वक्त, अनुभव और उससे जुडे सरोकार का आइना है. आप जब जैसे जैसे अनुभवों से गुजरते हैं वही आप लिखते हैं. यह एक बहुत पुरानी कविता जब पढती थी तब लिखी थी आज आप सबके सामने रख रही हूँ इस खयाल से कि पसन्द आयेगी. हाँ एक बात ये कि मेरा मन तब भी सवाल करता था और अब भी करता है. प्रस्तुत है मेरी कविता आप सब की नजर --




तुम जब अपनी नर्म आंखो से
देखते हो मुझे
मन की जैसे सारी सांकलें खुलकर
बिखर जाती हैं खुद ही
पायलों की रुन झुन सी आवाज आती है
जैसे हौले से हवा गुजरी हो
तुम जब कहीं मेरी आंखो के सामने से
गुजर जाते हो रस्ते में तुम्हारे पीछे चलने को पाँव थिरक जाते हैं मदहोश से
जब भी आवाज सुनती हूँ तुम्हारी
लगता है पुकारा है मुझको ही
यह मेरे अहसास नयी कोपलों से
अंखुआये हैं
तुम्हारे देखने के बाद ही
कहो ना ऐसा क्यों है ?
कि जाग उठती हूँ बेवक्त
गुनगुनाती हूँ एक गीत
नया नया आंखें चुराती हूँ माँ से
सहम जाती हूँ पिता से
भाइयों से दूर
गुम रहती हूँ
चाँद सितारों में बोलो ना क्यों हर तरफ बस हम तुम हैं? जैसे आदम और हौवा
जैसे शिव और शिवा
बोलो ना क्यों?

....................................... अलका

एक छोटी किताब देखोगे?

मेरी एक छोटी किताब देखोगे?
जिन्दगी तमाम देखोगे ?
जहां कैद हैं हम, तुम और्
वो लम्हें
जिन्हें जीने से पहले कितना
मह्सूस किया था हमने कतरा - कतरा डूब डूब कर
जिया था हमने
वो वक्त , वो दिन, वो रातें
पढोगे ?
जहां हर्फ - हर्फ बिखरी हैं पूरी
एक जिन्दगी मैं, तुम और तमाम सपने

आओ ना फिर लौट कर चलते हैं उसी देश
जहाँ लरजता था, बरसता था बस
प्यार ही प्यार्
कदम दर कदम
पढोगे पन्ना - पन्ना जिसे
लिखा है कई बार मन से
कई बार खुशी से
और कई बार आंखों में आंसू भर

कई बार् पहरों बैठी रही पुराने वक्त मे पड
बतियाती रही तुम्हीं से
पलट पलट कर पन्ने पुराने
यादों की चिन्दी चिन्दी जोडती रही हूँ सालों
तब लिखी है ये किताब देखोगे?

कितने ही तो पन्ने बचे रह गये हैं कोरे ,
कुछ आधे – अधूरे
मेरे सारे सवाल देखोगे? जिन्दगी का हिसाब देखोगे?
मेरी एक छोटी किताब देखोगे? ...........................................................अलका

Friday, January 6, 2012

कभी देखा नहीं था

कभी देखा नहीं था
किसी बच्चे को सुबक - सुबक कर रोते हुए
ठंढ से

नहीं देखा था किसी मां को पनीली आंखों से
आपने बच्चे को सीने से भींचते हुए
ठंढ से

आज देखा है इस शहर् में एक माँ और बेटे को
आपस में सिकुडते हुए
एक दूसरे को सांसों को
गर्मी से सहरा देते हुए
और अन्दर तक घुस जाने वाली
सर्द हवाओं में
कराहते हुये

उफ!!!!
नहीं देखी थी वैसी माँ अधमरी सी
नहीं देखा था वैसा बच्चा बेजान
जैसे चुक गया हो इस देश का अनाज
सड गये हों सारे भंडार
क्या कहूँ
नहीं देखा था ऐसा देश
नहीं देखा था ऐसा कल्याण
नहीं देखा था किसी बच्चे को इस कदर
सुबकते हुए ठंढ से और
आंखों ही आंखो में मां से
गुहार करते हुए एक कतरा गर्मीके लिये

नहीं देखा था !, नहीं देखा था ! नहीं देखा था ! शर्म सार हूँ
अपने आप से
कि बन्द थी आंखे शर्मसार हूँ कि
लिख नहीं पायी शर्मसार हूँ कि
कह नहीं पायी लानत है

लानत है इस देश पर
लानत है ऐसी सरकारों पर
लानत है इस व्यवस्था पर
लानत है
...........................................अलका

Thursday, January 5, 2012

अशोक कुमार पाण्डेय 'का कृतज्ञ पुरुष का आख्यान और मेरी बात

आज फुर्सत में 'अशोक कुमार पाण्डेय 'का आलेख ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान '' बहुत ध्यान से पढ़ा. पढ़कर अच्छा लगा कि किसी ने मेरे लिखे एक आलेख को गंभीरता से पढ़ा गंम्भीरता से लिए लिया और उसपर गंभीरता से लिखकर बाइज्ज़त टैग भी किया. इसलिए अशोक जी की मैं ह्रदय से आभारी हूँ. किंतु इस आलेख को पढने के बाद मेरा स्त्री मन थोडा सोच में है. सोच में इसलिये क्योंकि अशोक कुमार पाण्डेय लिखते हैं कि ''देवताले की स्त्री विषयक कविताओं पर बात करने से पहले मैं दो बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ – पहली यह एक पुरुष की कविताएँ हैं और उन्हें कभी परकाया प्रवेश की ज़रूरत महसूस नहीं होती. दूसरी बात जो बहुत जोर देकर पाण्डेय जी कहते हैं कि '' ये एक कृतग्य और भावुक पारिवारिक कवि की कविताएँ हैं. ''


कुछ और वक्तव्य हैं जो जिसे रेखंकित करना मैं जरूरी समझती हूँ -


1. ''हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श के प्रवेश के पहले ही देवताले और रघुवीर सहाय जैसे कवियों की कविताओं में स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है.''


2. ''महिलाओं का श्रम और उसकी उपेक्षा देवताले की कविताओं में बार-बार आते हैं. और शायद इसीलिए स्त्रियों के प्रति वह एक गहरे कृतज्ञता के भाव से भरे हुए हैं. ''

3. ''जैसा कि मैंने पहले कहा कि ये एक पुरुष की कविताएँ हैं. इनमें स्त्री के उस श्रम के प्रति एक करुणा और एक क्षोभ तो है, लेकिन इससे आगे जाकर स्त्री को चूल्हे-चौकी से आजादी दिलाने की ज़िद नहीं. जहाँ औरत आती है वहाँ सुस्वादु भोजन मन से खिलाती हुई (माँ के सन्दर्भ में और फिर पत्नी के सन्दर्भ में भी इन कविताओं में स्नेह से भोजन परसने के दृश्य आते हैं) औरत सामने आती है. उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.''


मैं आज इन वक्तव्यों को समझने की कोशिश में उलझ गयी सी हूँ. उलझ इसलिये गयी हूँ क्योंकि मेरा स्त्री मन अब पुरुष कविता को नये सिरे से समझने को बेताब है क्योंकि आज तक जो भी लिखा और पढा गया है उसे 90 प्रतिशत पुरुष् ने ही लिखा है. स्त्री ने भी उस लिखे को बहुत सहज़ रूप से एक पाठक की तरह ना केवल पढा है बल्कि उसे सहज़ता से स्वीकार कर दाद भी दी है. आप अगर पूरा भारतीय साहित्य देखें तो पायेंगे कि आज तक किसी भी साहित्य के अन्दर स्त्री के मुह से जो कुछ कहलवाय भी गया है वो भी पुरुष रचित ही है 90 प्रतिशत. तो फिर ‘’यह एक पुरुष की कविताएँ हैं’’ इस वक्तव्य को मैं कैसे और किस रूप में देखूँ ? कैसे समझूँ इसे ? क्या इसे मैं एक पुरुष का अब तक के पुरुष लेखन का गौरव बोध की तरह देखूँ है (इसे एक तरह का अभिमान भी कह सकते हैं)? या कवि चन्द्र्कांत देवताले के एक बचाव पक्ष के वकील की तरह इस बयान को देखूँ ? या फिर एक पुरुष कवि के एक बेहद इमानदार कथन की तरह देखूँ? बहुत से सवाल हैं जो मन को विचलित भी कर रहे हैं और सोचने पर मजबूर भी क्योंकि यह कथन किसी एक कवि या सहित्यकार पर लागू नहीं होती. यह एक ऐसा कथन है जिसपर हिन्दी साहित्य और उसकी आलोचना का अब तक का सारा खाका पलट सकता है. यह कथन कबीर से लेकर अब तक के सभी कवियों को एक नये सिरे से समझने और सोचने को भी प्रेरित करता है.
सच कहूँ तो मेरा स्त्री मन जैसे विचलित भी है और बहुत उद्धत है कि सम्पूर्ण सहित्य कम से कम हिन्दी साहित्य को एक बार स्त्री की नज़र से विवेचित करूँ और सबके सामने रखूँ. हलांकि अशोक कुमार पाण्डेय की मैं शुक्रगुजार हूँ कि पहली बार किसी पुरुष कवि ने किसी कवि पर चर्चा के दौरान् कहा है कि उसकी कवितायें एक पुरुष की कविताएँ हैं. कह्कर ये साफ तो कर दिया कि पुरुष लेखन की भी एक सीमा है और उसपर भी वैसे सवाल खडे किये जा सकते हैं जैसे कुछ दिनो पहले निरंजन शोत्रिय ने स्त्री रचनाकारों को लेकर खडा किया था कि स्त्री लेखन चुल्हे चौके से आगे नहीं बढ पाया है.

मेरे मन में इस कथन को लेकर जो पहला बोध हुआ या कहें की जो पहली शंका उठी की कहीं पुरुष लेखन के गौरवबोध का वक्तव्य तो नहीं है वह तब थोडा कमजोर लगता है जब मैं अशोक कुमार पांडेय जी को व्यक्तिगत स्तर पर लेकर सोचती हूँ किंतु जैसे ही मैं पुरुष के सामूहिक वक्तव्य के रूप में इसे देखती हूँ मुझे अपनी शंका निर्मूल नहीं लगती. ( इस आलेख पर हुई चर्चा के दौरान अन्य कवि लेखकों की आम सहमति और समर्थन के बाद ऐसा ही लगता है. आप देखें गीता पंडित को छोड्कर किसी ने पुरुष लेखन के इस कठन पर कोई टीका तिप्प्णी नहीं की) यह बात निरजन श्रोत्रिय और कई अन्य मित्रों की वाल पर स्त्री लेखन के सम्बन्ध में हुई चर्चा से जाहिर होता रहा है. तो इस कथन को लिखते समय यदि यह भाव ना भी रहा हो लेकिन इस कथन ने इस भाव को भी स्वतह ही रेखंकित किया है. इसके समर्थन में कई बडे लेखकों कवियों के वक्तव्य को देखा जा सकता है.

तो क्या यह कथन कवि चन्द्र्कांत देवताले के एक बचाव में था? यकीनन यह बचाव ही था. न केवल यह कथन बल्कि पूरा आलेख ही उनके सम्रर्थन और बचाव में था. आप उपर दिये सभी वक्तव्यों को इस सन्दर्भ में देख सकते हैं. कुछ शब्द देखें जो कवि की पुरजोर वकालत करते हैं. सबसे पहले शीर्षक्- ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान में कृतज और आख्यान , स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है में . आदमकद और फिर पुरजोर बचाव कि - . उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.''

किंतु इसके साथ ही भले बचाव में कहा गया किंतु मुझे यह एक इमानदार कथन भी लगता है. इसके साथ साथ यह भी मह्सूस होता है कि पुरुष ने अपनी सीमा को स्वीकारना आरम्भ कर दिया है. क्योंकि जिस सन्दर्भ और जिस अन्दाज़ में पुरुष कविता हैकि बात कही गयी है वो बात अंत्तत: न केवल चन्द्र्कांत देवताले अपितु सभी कवियों खास कर चन्द्र्कांत देवताले और उनके सम्कालीन कवियों पर लागू होगी.

अब बात ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान ‘’ में कृतज्ञता की. यह पूरा वक्तव्य मुझे झकझोर देता है. मजबूर करता है कि मैं ना केवल चन्द्रकांत देवताले की कविता को समझूँ बल्कि उनके पूरे दौर से भी गुजरूँ. मजबूर करता है कि उनकी कविता को स्त्री के भाव से एक बार पढ्कर देखूँ. सबसे पहले बात चन्द्र्कांत देवताले जी के दौर की फिर उनकी कविताओं की.
अगर विकिपीडिया की माने तो चंद्रकांत देवताले क़ा जन्म सन १९३६ में हुआ था. यानि 2011 के पार अब वह 75 साल के हो गये. मतलब यह कि देवताले जी ने इस देश के कम से कम 50 सालों के इतिहास् को पूरे होश में देखा परखा और जाना है. मसलन जब होश संभाला होगा तो आज़ादी की लड़ाई और गान्धी जी का समय थोडा बहुत देखा होगा फिर , देश का बटवारा, नेहरू का शासन फिर इन्दिरा के शासन से लेकर जयप्रकाश आन्दोलन, मंडल आन्दोलन तथा आज तक की स्थिति से वो निरंतर अवगत रहे होंगे. नारी अन्दोलन से भी क्योंकि यह देव्ताले जी की युवा अवस्था का समय था जब नारी अन्दोलन त में सुग्बुगा रह था और कमला भसीन जैसी महिलायें लोग अपनी बात बात बडी शिद्द्त् से रख रही थीं. उस सुग्बुगाहट की आंच हिन्दी कविता और और उसके कवियों को छू न पायी यह बडा सवाल होगा हिन्दी कविता पर. बहरहाल हम जैसे लोग उस पूरे दौर और उसकी आंच की तलाश पुरुष कविता में अवश्य करने की कोशिश करेंगे क्योंकि यह पुरुष कविता पर स्त्री की समीक्षा होगी. और देवताले जी उस दौर के यदि प्रमुख हस्ताक्षर हैं तो इस मुल्ललिक्क उनकी कविताओं की पड्ताल भी जरूर होगी और सवाल उठेंगे ही.

जैसा कि देवताले जी को जानने वाले जानते हैं कि वो न केवल भावुक कवि हैं बल्कि बेहद सजग और जागृत कवि हैं यही करण है कि उनकी रचनाओं में स्त्री और उसके जीवन का चित्रण बहुतायत में मिलता है. पर मुझे यहाँ कुछ कहना है वो ये कि जिस कविता का सन्दर्भ अशोक जी ने दिया है वह कविता मुझे किसी कृतज्ञता का आभास नहीं कराती.-


पर घर आते ही जोरू पर
तुम टूट पड़ते हो बाज की तरह
मर्द, बास्साह, ठाकुर बन तन जाते हो
अपने माँस के लोथड़ों खातिर
आदमी बनने में भी शर्म आती है
मूंछें शायद इससे ही कट जाती हैं

कन्हैया, मोती, मांगू,उदयराम
अपनी जोरू अपने बच्चे
क्यों तुमको दुश्मन लगते हैं?

मुझे लगता है कि यह निश्चय ही एक पुरुष कविता है जो पुरुष, पुरुष की मन:स्थिति उसके तौर तरीके और अक्सर परिवार के प्रति एक खास वर्ग के पुरुष के रवैये ( वैसे थोडे पोलाइट रूप में यह सब हर पुरुष का रवैया होता है शायद) को बयान करती है. यहां मैं इस कविता की विवेचना में नहीं जाउंगी किंतु इतना दावे से कह सकती हूँ कि मुझ स्त्री को इस कविता में न तो स्त्री दिखती है ना ही कृतज्ञता. किंतु अशोक कहते हैं कि – ‘’इस विडंबना की पहचान देवताले जैसा संवेदनशील पारिवारिक कवि ही कर सकता है.’’ तो क्या इसे एक पुरुष कविता की पुरुष समीक्षा मानूँ?

एक अन्य कविता जिसका जिकर अशोक ने किया है वो है ‘औरत’ निसन्देह यह एक अच्छी कविता है. उसे पढ्कर यह भान होता है कि हमारे समय के कुछ पुरुष इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्त्री की हालत अच्छी नहीं है, यह स्वीकार करते हैं कि स्त्री की आज भी कोई पहचान नहीं .......... और भी बहुत सी स्थितियों को स्वीकार करता है किंतु इस तरह की सोच और स्वीकारोक्ति को क्या कृतज्ञता की परिभाषा के अंतर्गत रखा जाना चाहिये? क्या यह वास्तव में कृतज्ञता की ही श्रेणी में ही आता है ? यदि हाँ तो क्यों? क्या महज़ इसलिये कि उसने औरत की एक स्थिति का चित्रण किया है ? मेरा स्त्री मन यह स्वीकार नहीं करता बल्कि इस युग के पुरुष से बहुत सी अपेक्षायें रखता है और चाहता है कि वह सिर्फ चित्रण ही ना करे वह चूल्हे को बांट्ने के लिये हाथ् भी बढाये, औरत को उस स्थिति से निकालेने की जिद भी करे और उसका हाथ पक्ड उसे बाहर तक लाये भी.

पर मेरे एक कवि मित्र कहते हैं कि 75 के व्यक्ति से आप इससे ज्यादा की क्या उम्मीद कर सकती हैं. मैं बडी सोच में पड जाती हूँ इस तरह के वक्तव्यों पर. कभी कभी मन होता है पूछूँ कि क्या चन्द्रकांत जी जैसे और उनके सम्कालीन कवियों ने लिखना छोड दिया है? या फिर वो इस दौर की उथल पुथल और बदलाव को सकरात्मक नज़रिये से नहीं देखते. अगर देखते हैं तो उन्होने यह भी जरूर देखा होगा कि स्त्री बोल रही है, देखा होगा कि स्त्री लिख रही है, पढा होगा कि वो क्या कह रही है फिर उनकी कवितओं में यह क्यों नही होता कि – आओ बाट लेंगे जिन्दगी के दुख – दर्द, क्यों नहीं होती ये जिद कि- कुछ तुम बदलो कुछ हम, क्यों नहीं पलट जाती दुनिया कि सुस्वादु कुछ मैं बनऊँ आज्?

यदि कवि कर्म में कहीं समाज के प्रति कोई नज़रिया है और स्त्री को लेकर रचनायें हैं तो यह बात तो होनी ही चाहिये. अगर नहीं है तो अपने सम्कालीन कवियत्रिओं को हिकारत की नज़र से न देखकर कि वो चूल्हा चौका ही लिखती है को गम्भीरता से देखकर तो कम से कम लिखा ही जाना चहिये यदि सम्वेदंशीलता और पारिवारिकता की भी बात् की जाये क्योंकि भोजन बनाना भी एक पारिवारिक कर्म है और वह पट्टे की तरह स्त्री के खाते में लिख दिया जाता है तो क्या पुरुष कवि इस बात से डरता है कि गर स्त्री के साथ बाँट्ने की इक्छा जाहिर कि तो कहीं ये जिन्न उसके सर न आ जाये?

रही बात मेरे पिछले आलेख में उठाये गये सवालों की तो वो यथावत वहीं खडे हैं क्योंकि जिन कविताओं को आधार बनकर मैने सवाल उठाये थे वह भी देवताले जी की ही कविताओं की पंक्तियां हैं. एक पुरुष रचना!!!!1
देखें -
1. सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से
नहीं सोचता कभी कोई बात जुल्म और ज्यादती के बारे में अगर नही होती प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है

2. ‘’ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं’’

3. तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
बसंत प्रपात
जीवन तुम्हारी धडकनो से
मैं जुगनू
चमकता
तम्हारी अन्धेरी
नाभी के पास


हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श फिर कभी




........................................ डा. अलका सिंह

Wednesday, January 4, 2012

अंचल के कोर से बन्धी है एक मुनरी

1.
उसके आंचल में मुनरी बन्धी है एक
धिसी - घिसायी अरसे पुरानी
बन्धी है एक मुनरी
अंचल के कोर से
हर रोज अकले में बतियाति है उससे
जब भी फुरसत में होती है
खाना बना के, कपडे पछाड् कर
कई बार काम से लौट कर
चुपचाप पूछती है अपना कसूर
यह दण्ड, दुर्भाग्य सब जैसे वो
जनम जनम की साथी हो, जैसे पक्की सहेली
जैसे कोई ज्योतिषी हे
वो मुनरी है जैसे कोई नगीना
हर रोज उसे निहरती है, उलतती है पुलट्ती है
और फिर सहेज़ कर बांध लेती है आंचल में कलेज़े के
टुकडे की तरह छिपाकर
2.
आज वो फिर बान्ध रही है उसे
निहार निहार कर
जैसे पढ रही हो कोई खत
बहुत पुराना
ढ्लक आये बून्दों को हाथ से पोंछ
फिर निहार रही है उसे जैसे खोज रही है
अपना अतीत जब संग था वो
जब हंसती थी वो
जब एक ही घरोंद को गढ्ते थे वो
साथ साथ एक ही सपने पर चलते थे वो
मुट्ठी में मुनरी को दाब आंखें बन्द कर खूब रोयी है वो
3.
मेरे घर के सामने आज उसने फेंक दी है
अपनी वो मुनरी
बावली थी मैं भाग आयी जाने किस देश
यह कहकर
उसका रोज का रोना जैसे हवा है
और उसका वो आंचल जैसे अकेला
पर उसके पैरों में एक अज़ीब सी हरकत है
एक अज़ीब सा दीवानापन
जैसे लौट गयी हो अपने हंसते बचपन् में
जैसे मां की गोद को बेताब
....................................... अलका