Wednesday, April 24, 2013

क्या मतलब है जब अनुज कहते हैं कि 'धरती उनकी भी है '

‘अनुज कुमार’ इमानदारी से कहूं तो यह मेरे लिये एक ऐसा अनजाना नाम है जिसे मैने इस कविता को पढने से पहले पूरी तरह नहीं जाना था. अनुज मेरे अन्य फेसबुक मित्रों की तरह एक मित्र हैं और इस कविता के साथ उन्होने मेरा नाम टैग किया था. करीब दो दिनो तक काम की व्यस्तता के कारण मेरी नज़र इस कविता पर गयी ही नहीं लेकिन कल जब मैं थोडा फुर्सत से बैठी तो देखा कि एक कविता मेरी वाल पर मेरा इंतज़ार कर रही है. यह सचमुच एक ऐसी कविता थी जो बरबस मेरा ध्यान खींच रही थी. मैने कविता को एक सरसरी निगाह से देखा और चुप चाप सोचने लगी यह अनुज आखिर है कौन ? क्या काम करता है यह ? शिक्षा की किस डोर को कहां तक और कहां से पकडा है इसने. कई बार प्रोफाईल देखने की कोशिश की लेकिन नेटवर्क की खराबी के कारण पूरी प्रोफाईल खुली ही नहीं. बस अनुज का चेहरा और उसका नाम देख पा रही थी. फिर उनको मैं उनको उनकी कविता के माध्यम से समझने की कोशिश करने लगी...... आप भी पढें अनुज की एक बेहद सम्वेदंशील और बडी कविता जो वहां से बोलती है जहां से मानव ने अपना सफर शुरू किया था क्योंकिं यह कविता अपने समय से आगे भी जाती है और बहुत पीछे मिथक से लेकर इतिहास और मानव विकास के पार तक जाती है. बेहद अर्थपूर्ण यह कविता मानव समाज , उसके विकास और उसके इतिहास पर सोचने कोमजबूर करती है. प्रस्तुत है अनुज की कविता धरती उनकी भी है -----------


जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है,

धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.
__________________अनुज कुमार_____

. जैसा कि मैने पहले कहा मैं अभी तक अनुज के लेखन से बहुत परिचित नहीं हूं. थोडा थोडा याद आ रहा है कि शायद अनुज को अशोक कुमार पांडे के ब्लाग असुविधा पर पढा था. पर पक्का याद नहीं है. लेकिन अनुज की इस कविता ने मेरा अनुज से एक अलग ही परिचय कराया है. परिचय यह कि इस कवि से आगे उम्मीद बध रही है. उम्मीद् यह कि इस कवि को अपने समय को बेहतर तरीके से साहित्य में रखना होगा. मैं इस कविता को इतना महत्व इसलिये भी दे रही हूं क्योंकि इस कविता ने मानव इतिहास , उसके विकास, उसके अर्थशास्त्र का सत्य एक साथ हमारे सामने रखा है. इस कविता ने मानव समाज, उसके भाव, उसके दर्द और उसकी सम्वेदना की कई पर्तें खोली हैं. बडी इमानदारी से बताने की कोशिश की है कि हम असल में हैं क्या? हमने मानव विकास के कैसे कैसे खांचे बनाये हैं. हम्ने कैसी दुनिया गढी है. आप भी देखें उनकी कविता का पहला खण्ड ....
जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है,

सामान्य तौर पर देखा जाये तो कविता का यह खण्ड उन लोगों की बात करता है जिनके पेट भरे हैं. जिनका अपने आस पास के संसाधन पर बेहतर कब्जा है. जो अधिशेष पर अपना जीवन यापन करते हैं. जिन्होने इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसा वो चाहते हैं. इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसी दुनिया दिखती है.इस दुनिया को वैसा बनाया है जैसा दुनिया को दरासल कई अर्थों में होना नहीं चाहिये था. मैं बार बार अनुज के अर्थ को दुनिया के रूप में शब्द दे रही हूं जबकि अनुज इसे धरती कहते हैं. तो सोच रही हूं कि अनुज ने धरती क्योंकर कहा होगा ? क्योंकर उन्होने कहा होगा कि धरती शहद हा छत्ता है ? क्योंकर कहा होगा धरती गर्म है? और क्योंकर कहा होगा कि धरती रूमानी है ? इतने सारे सवालों का जवाब खोजते खोजते जब मैं कविता के दूसरे खण्ड में प्रवेश करती हूं मुझे धरती शब्द का अर्थ स्प्ष्ट होने लगता है. मैं मनुष्य को वहां से देखने लगती हूं जब वह धरती पर आया. वहां से देखने लगती हूं जब उसने अपने लिये धरती का अर्थ समझा और जब उसने धरती को धारण किया. इसीलिये जैसे ही कविता का दूसरा खंड आरम्भ होता है इस प्रथम खंड का अर्थ अपना विशेष रूप ग्रहण करने लगता है और कविता अपना असली अर्थ पाठकों पर छोडती है .आप देखें भी देखें कविता का दूसरा हिस्सा ...........
धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.
कविता का दूसरा खंड पढते हुए मुझे अपने वो सारे काम याद आने लगते हैं जो अपनी समाज सेवा के दौरान
मैने किये हैं. वो सारा इतिहास याद आने लगता है जिसे मैने सालों पढा और पढाया है वो सारा अर्थ शास्त्र समझ में आने लगता है जिसने दुनिया को इतना जटिल और गूढ बना दिया है. दर असल कविता का पहला हिस्सा पढते हुए मुझे मानव के विकास काल के इतिहास में मनुष्य का हर पल का संघर्ष दिखता है जहां मनुष्य अपने जीवन को शिकार युग से लेजाकर एक सुगम पठ देता है. कृषि युग में आकर अधिशेष उत्पादन, बाज़ार और फिर शान और शौकत जैसे जीवन को इज़ाद करता है. धीरे धीरे यह विकास एक शक्ल अखित्यार करने लगती है और मनुष्य अपने अपनी जलवायू के हिसाब से जीवन जीने लगता है ..मनुष्य मनुष्य को विजित करने लगता है , हराता है , कुछ विजयी होने का गर्व पालते हैं, और कुछ विजित होने का दुख सहते हैं, इस तरह मनुष्य एक पूरी दुनिया ऐसी बनाता है जिसमें मानव दो भागों में बंट जाता है एक शोषक है जिसने इस धरती के अधिकतम संसाधनों को अपना कहा, अपना बनाया और अपने लिये इस्तेमाल किया. विजयी लोगों का जीवन लिखा, जीया और अपनी आने वाली पीढियों के लिये इन संसाधनों को सहेज़ कर रखने की परम्परा बनायी. भाषा बनायी, साहित्य लिखा , इतिहास बनाया और इतिहास लिखा, इन सबसे बडा उन्होने अपने आस पास के जीवन के तरीके को इतना आकर्षक बनाया कि वही तरीका मान्य और बेहतर माना जाता रहा.
वहीं दूसरी तरफ इसी धरती के मनुष्यों का बडा वर्ग जो इस दुनिया के संसाधनों के 10 प्रतिशत हिस्सेपर अपना गुज़ारा करता आ रहा है कमी उस मानव केलिये पूर्ण मानव नहीं रहा जिसने दुनिया पर अपना एक छत्र राजय बना रखा है .........जब अनुज कहते हैं कि

धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,

..........तो वह इतिहास में पीछे मुड्कर देखने कीबात करते हैं. वो यह बताने की कोशिश करते हैं कि हर इंसान जो धरती पर आया है यह धरती उनकी भी उतनी ही है जितनी अन्य की. मसलन शम्बूक की भी उतनी ही है जितनी राम की, एक्लव्य की भी उतनी ही थी जितनी अर्जुन और कृष्ण. वह राम अराज्य के सत्य की बात करते हैं वह महाभारत और उसके सत्य की बात करते हैं, वह अर्जुन के शूर वीर होने पर प्रश्न भी खडा करते हैं प्रकारांतर से ......और वह द्रोण के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था , उसके सच , उसके एक तरफा होने की तरफ इशारा करते हैं , एक्लव्य के माध्यम से वह पूरे महाभारत काल , उसके सच और हमारे मानस में रचे बसे इतिहास को पुन: खनगालने की तरफ इशारा करते हैं .....मतलब यह कि वह दुनिया को इंसानों की उस जमात के लिये सोचने को मजबूर करते हैं जो हाशिये पर रहा है/ रहता है ............. और वह भी इसी धरती की संतान है ............वह भी अपने तरीके से इस दुनिया में जीता है और इसे अपनी अगली पीढी के लिये छोड कर चला जाता है........... इसी के बहाने वो नस्ल और नस्ल भेद की भी बात करते हैं -----.

जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं, केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है

जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह उस बडी आबादी के जीवन, उसकी मांग और उसके तनाव को रंग देती है. कविता के इस हिस्से ने जिसमें ‘केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.’ का उल्लेख आता है मुझे बेतुल के गोंड और कोरकू आदिवासी याद आ जाते हैं...जिनके घर आज भी ऐसे ही हैं ........ कई बार सोचती हूं कि यदि दुनिया की यह आबादी भी उस समूह की तरह दुनिया के सारे संसाधनों पर बराबरी के हक के साथ सुख भोगती तो दुनिया कैसी होती ? यदि वो भी पेट्रोल की इस दुनिया में इसका उतना ही इस्तेमाल करते जैसे सुखवादी मानव समूह/ देश कर रहा है तो दुनिया कैसी होती ? यहीं पर मुझे निर्मला पुतुल याद आती हैं जब वो प्र्शन करते हैं कि सोचो अगर तुम्हारा घर पहाडी के पार सूदूर होता तो तुम्को कैसा लगता ? तो मैं भी वहीं खडी सोचती हूं कि अगर मानव का यह बडा वर्ग जो धरती को धरती बनाये रखने के लिये जोझ रहा है वो ना होता तो ये दुनिया कैसी होती ?

और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.

...............और फिर अनुज की अंतिम चार पंक्तियां लाज़बाब कर देती हैं ............सोचती हूं , सोचती हूं .सोचती हूं निरंतर कि यह धरती और इसपर सुख से जीने वाले ऋणी है उनके जिनके जीवन सुदूर जंगल में हैं , जो दिबरी की रौशनी में अपनी चीखें पृथवी के गर्भ में डालते हैं और जो कभी सवाल करते हैं तो उनको हमारी उन समूहों की सेना , पुलिस मौत के घाट उतारती रहती है ......................एकलव्य याद है ना आपको

Tuesday, April 23, 2013

मेरे बचपन के दिन

यह हवेली जिसे मैं बार बार महल कह रही हूं गांव से हटकर तमाम बस्ती से दूर बनाया गया एक आलीशान मकान था. हलांकि मकान आधा अधूरा ही बना था लेकिन इसकी रौनक , बनावट और शान देखने लायक थी.मेरे बचपन तक इस हवेली को गांव के लोग बडका कोठा या दरबार कहकर बुलाते थे. इस दरबार के अंतिम दिनों की मैं भी साक्षी रही हूं. इस दरबार यानि बडका कोठा की भी अपनी बडी रोचक कहानी है ..... नानी बताती थीं कि इस कोठा से पहले यहां एक दूसरा महल हुआ करता था जो 1934 के भूकम्प में जमीदोज़ हो गया. 1934 का भूकम्प बिहार् के इतिहास की एक बडी घटना है. 8.1 की तीव्रता का यह भूकम्प 15 जनवरी 1934 में आया था. हलांकि इस भूकम्प से नेपाल, मुम्बई आसाम , कोलकाता , मुम्बई यहां तक कि लहासा तक प्रभावित थे. इस भूकम्प की कहानी मैने अपने सभी बुजुर्गों से सुन रखी है. बिहार में मुंगेर और मुजफ्फर पुर पूरी तर्ह तबाह हो गये थे.
इस घटना का गवाह मेरे ननिहाल का यह छोटा सा गांव अमनौर भी था क्योंकि यह मुजफ्फरपुर के बेहद करीब है. नानी गाहे बगाहे इस भूकम्प का आंखो देखा हाल सुना दिया करती थी हम बच्चों को क्योंकि यह उसके जीवन में किशोर वय की घटी सबसे भयानक और दिल दहला देने वाली घटना थी . इस घटना ने उसके जीवन पर खासा असर डाला था. नानी कोई 12 साल की किशोरी थी जब यह भूकम्प आया था. वह बताती थीं कि ‘’ वह जाडे के दिन थे , जनवरी का महीना, कडाके की ठंढ .....अचानक धरती हिलने लगी . कोई समझ ही नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है . ऐसा लग रहा था कि सारा गांव झूला झूल रहा हो.......... अचानक्क लोगों ने चिल्लाना शुरू किया ...भूकम आयेल बा , भूकम्प ...........बाहर निकल लोगन ..............जल्दी ............. उस समय नानी अमनौर के जिस आलीशान मकान में रहा करती थीं उसे लाल महल कहते थे. यह महल अचानक हिलने लगा और थोडी ही देर में ढहने लगा......सब तरफ धूल ही धूल ........चिल्लाहट........बचाओ बचाओ की आवाज़ ........... आज़ीब दृष्य था ...........वो कहती थी ............इस भाग दौड में घर के सभी लोग बाहर निकल गये ........... नौकर चाकर सब लेकिन उस महल में एक 6 महीने की बच्ची की रोने की आवाज़ आने लगी ..........अचानक नानी देखा कि उनकी छोटी बहन को तो कोई लेकर ही नहीं आया ........................ इस छोटी बहन का मोह नानी को इतना था कि वो भूकम्प में गिरते ढहते महल में घुस गयीं और अपनी छोटी बहन को लेकर ही लौटीं..........................वो कहती थीं .........जैसे ही मैं लल्ली को लेकर बाहर आयी महल ऐसे गिरा जैसे कभी उसका कोई नामो निशान ही ना रहा हो वहां ......................
जब भी भूकम्प का जिकर होता नानी की आंखों में एक अज़ीब सा भाव देखती मैं. उस भाव में बहुत सी कहानियां होतीं ....एक अज़ीब सा दर्द और ढेर सारे किस्से............ उनके होठ थरथराने लगते थे ..... होठ कांपने लगते थे और आंखों में एक भय भी उभर आता था ............वो कहती थी ...........भूकम्प के जाने के बाद जैसे पूरे गांव में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था. लोग एक दूसरे को खोज रहे थे. कुछ मकान के नीचे दब गये थे. कुछ जमीन की बडी बडी दरारों के बीच दब गये थे ...........जो बच गये थे वो रहने, खाने और अपने को बचाने का ठिकाना खोज रहे थे.............. कितने ही बच्चे , बूढे, महिलायें किसी को मिली ही नहीं .............सब तरफ अज़ीब तरह का मातम पसरा था. बच जाने की खुशी से ज्यादा लोगों को खोने का गम था .................. और मैं अपनी छोटी बहन को गोद में ले सोच रही थी कि अब हम रहेंगे कहां ? खायेंगे क्या ? सोयेंगे कहां ?
अपने बारे में सोचते सोचते जब मैं आस पास देखती तो मुझसे भी बदतर हालत में पडे लोग थे, कोई जखमी था तो किसी बच्चे की मां नहीं थी ...............ऐसा मरघट किसी ने देखा नहीं होगा जैसा उस भूकम्प के बाद लोगों ने देखा था ................

Monday, April 15, 2013

जब जब सोचती हूं तुम्हें

तुम्हें सोचती हूं
जब जब
याद करती हूं
वक्त खुद ही उकेरने लगता है
बीता हुआ कल
एक अक्स ,कुछ शब्द

पीछे मुडकर
जब जब तुम्हे देखती हूं
एक परछाई की पदचाप
उभरने लगती है
मैं सुनने की कोशिश करती हू उसे
ठिठक जाती हूं
बीती हुई आहटों के साथ

जब जब
लिखती हूं तुम्हें
तुम पहाड बन जाते हो
एक किताब
जिसके पन्ने पलटने से
सिहरन होती है
खुशी और भय दोनों
मैने तुम्हें और उस वक्त को
अपनी किताबों में
बन्द कर रखा है
तब से
इतने सावल जो करने हैं तुमसे
पूछना है
अक्षर अक्षर बीता हुआ कल

मन
सुनना चाहता है तुमको
अपने लिये
.......................................अलका








Thursday, April 11, 2013

मेरे बचपन के दिन

सामंती व्यवस्था वाले इस गांव का पन्ना मेरी स्मृतियों में हमेशा कुछ इसी तरह की ही घटनाओं से खुलता है. कभी बचपन के दोस्त, कभी नानी, कभी अन्यों के साथ बनते – बिगडते रिश्तों और उसके अहसासों के पन्ने लिये जहन में तैरता रहता है.., मैं इन पन्नों को इस समय पकड की कवायद कर रही हूं......क्योंकि सामंती व्यवस्था वाले इस गांव , इस घर और यहां के लोगों के साथ मेरा जो आत्मीय रिश्ता था वह करीब होते हुए मेरे मस्तिष्क को सवाल करने के लिये मजबूर करता था ....................जैसे जैसे मेरी समझ विकसित होती गयी मैं इस घर के लोगों के साथ के अलग अलग रिश्तों के अर्थ को समझने के लिये दिमाग पर जोर देने लगी. उसी घर की एक बूडी इस घर को अपने पुरखों का पुरुषार्थ बताते हुए बखान करती और उसी घर से जुडे कई अन्य इस घर और हवेली को अपने लिये रोजगार की जगह बताते. मैं उनके वक्तव्यों, उसके मर्म और उसके अंतर को तब समझने में असमर्थ थी... लेकिन इतनी जरूर था कि मैं इन सभी को रेखांकित कर मां से इसका अर्थ पूछने से बाज नहीं आती थी ......... मां मुझे छोटी बच्ची समझ मेरे सवालों को शायद नज़रन्दाज़ कर देती ...या फिर मेरे छोटे दिमाग में बडी बातों का बोझ डालने से बचती थी.
इस गांव और इस हवेली से जुडे रिश्तों का बखान करते हुए नानी इसका एक गौरवशाली इतिहास बताती थी. उसके अनुसार मिर्जापुर जिले के रहने वाले दो सिपाहियों परस राय और परशुराम राय ने इस गांव को बसाया था. दोनो शिवाजी की सेना के बहुत बहादुर सिपाही थे. इन दोनो में से किसी एक को पूर्व के काला देव की उपाधि दी थी शिवा जी ने. सेना से निवृत्ति के बाद दोनो ने अपना राज्य स्थापित करने की इच्छा से बिहार के इस इलाके की तरफ आये. यहां आकर उनके मन को इतना सुकून मिला कि उन्होने इसका नाम अमन –उर यानि अमनौर् रख दिया और यहीं बस गये.
सही मायनों में देखा जाये तो यह इलाका प्राकृतिक रूप से बेहद खूब सूरत है. आम, लीची, जामुन , ताड और खज़ूर के पेडों और तमाम अन्य वनस्पतियों से लदा यह इलाका मन को बहुत आकर्षित करता है. वैसे भी आप जब उत्तर प्रदेश का बलिया जिला पार कर माझी के पुल पर पहुंचते हैं तो एक अलग ही अह्सास से भर उठते हैं और अमनौर तक पहुंचते पहुंचते यह अह्सास और भी अधिक घनीभूत हो जाता है.
इस राज्य और इसके इतिहास से जुडे कुछ साक्ष्य और किंवदंतियां भी हैं जिसे वहां पर रहने वाली एक खास जाति जिसे पवंरिया कहते हैं उनके पास सुरक्षित है. पवंरिया चारण और भांट टाईप की तरफ की एक जाति है जो कई अवसरों पर इस राज्य का गुङान करती है. जिसे पवांरा कहते हैं. वह इतिहास की इन सारी कथाओं को गा गा कर सुनाते हैं ( अब वह ऐसा करते हैं कि नहीं पता नहीं) मेरे बचपन तक यह परम्परा कायम थी और यह ही उनका रोजगार था. मैने अपने बचपन में अपने छोटे भाई के जन्म पर यह पंवारा देखा और सुना था...... अभी भी इसकी एक लाईन याद है जिसे अक्सर हम परिहास में गाते हैं कि ................महराज घर में बेटा भयेल बा शुभे लगना. ................इस गांव में कई ऐसी जगहें हैं जिसे यहां के राजपूत यहां के इतिहास के साक्षय के रूप में जोड्कर देखते हैं जो इन पवंरिया लोगों की कथाओं में भी सुरक्षित थे.
जैसा कि अक्सर इस तरह की किम्वदंतियों से जुडे गांव में होता है वैसे ही यहां भी गांव की बसाहट में था. गांव में अधिकत्र परिवार कर्मवार क्षत्रियों का है. इनके अनुसार उन्होने अन्य जातियों को प्रजा के रूप में बसाया है. इस तरह गांव की बसाहट में कुर्मी, यादव, ब्रहमन, माझी, दुसाध, मेहतर, लोहार, धोबी, तमोली, तेली, कानू, जायसवाल जैसी जितनी भी जातियां होती हैं सब थीं. मेरे बचपन तक यह सभी जातियां अपने अपने परम्परागत घन्धे के साथ जुडकर काम करती थीं. इन सभी जातियों के लिये यह हवेली दिन भर के रोजगार के लिये एक महतव्पूर्ण जगह थी.

Monday, April 8, 2013

मेरे बचपन के दिन

अब मुझे सज़ा मिलने वाली थी .............सज़ा ......एक कडी सज़ा ......... मेरे अन्दर अज़ीब अज़ीब भाव आ रहे थे. डर भी लग रहा था और समझ में भी नहीं आ रहा था कि घर पर क्या होगा. 5-6 साल के बच्चे का मन दुनिया को समझने की जुगत में लगा रहता है. यह जानने की कोशिश में लगा रहता है कि इस दुनिया में उसके कौन सी हरकत मान्य है और कौन सी अमान्य.


मैं कई तरह के बाल उहा- पोह में थी कि मेरी इस गलती के लिये नानी की सज़ा क्या होगी मेरे लिये ? सच कहूं तो मुझे अपनी ये गलती गलती लग ही नहीं रही थी क्योंकि आज़मगढ में तो अक्सर मैं ऐसा करती थी और मां मुझे कोई सज़ा नहीं देती थी. उल्टे सवाल करती थी, आज क्या क्या खेला? कहां कहां गयी? किस किस दोस्त के साथ खेला? वगैरह वगैरह ...... मैं सोच रही थी जीजी डांटेंगी या फिर् मेरी मां से शिकायत करेंगी, या फिर रात का खाना बन्द करने की धमकी देंगी जैसा कि वो अक्सर करती थीं.......... यही सब सोचते सोचते मैं दुरूखे पर आ गयी थी और उस व्यक्ति ने मेरी बांह जो उपर से पकड र्खी थी छोड्कर अब कलाई पकड ली थी और मेरी तरफ अज़ीब भाव से देखते हुए कहा ...... अब घरे आ गयीनी नूं जाईं अब बबुई जी के दरबार में ..... मैं उसकी बात सुन उसे पलट कर देखते हुए आगे बढ ही रही थी कि मेरी घिग्घी बन्ध गयी.........जैसे शेर के सामने मेमेना ...... रास्ते भर मिलीं सारी की सारी घमकियां एक एक करके आंखों के आगे आ गयीं. नानी से मेरी इतनी अधिक मानसिक दूरी थी कि मैं उनसे कुछ कह पाने में सह्ज़ नहीं थी दूसरे मेरे अन्दर एक तरह का बाल स्वाभिमान (ईगो) भी था. मैं बस आंख नीची किये उनके सामने खडी रही ......कोई पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि सज़ा सुना दी गयी ..........भंडारी को यह हुक्म दे दिया गया कि मुझे घर के भंडार घर में बन्द कर दिया जाये...........और मैं उस घर में बन्द कर दी गयी. घर के अन्य किसी सदस्य ने इसका कोई विरोध भी नहीं किया. यहां तक की मां ने भी नहीं.
मेरा बच्चा मन जिस लोक राग में रमा लगा बाज़ार तक चला गया था वह मुझ बच्चे को ही नहीं नानी के कानों को भी खूब भाता था. मैने अक्सर उन्हें भगत लोगों को रोककर देवी गीत सुनते देखा था. प्रशंसा करते देखा था तो फिर सज़ा किस बात की थी यह समझ्ने के लिये नानी ने मुझे खासा वक्त दिया था.
मैं भंडार घर में बन्द कर दी गयी थी. भंडार घर का माहौल मेरे जैसे बच्चे को डराने के लिये काफी था. बडे बडे बोलो में भरे मकई, चावल, दाल, चना, तेल , सरसों, तीसी और भी तरह के दूसरे सामान..............कमरे में बन्द होने के बाद मेरा खूराफाती दिमाग यह सोचने में लगा था कि यहां बितने वाला वक्त आखिर कैसे काटूंगी........ यह सोचने में भी लगा था कि आखिर कब तक बन्द रहूंगी.........सारे बच्चे ऐसे ड्अरे सहमें थे कि कोई दरवाजे तक आने की हिम्मत नहीं कर रहा था .................और मैं सोच रही थी कि क्या करूं अब ?
मैने उस कमरे की उंची ऊंची खिडकियों की तरफ देखा और उसी पर जाकर बैठ गयी..इस जुगत में कि अगर चट्खनी खुल गयी तो मैं यहां से ही निकल भागूंगी लेकिन वो इतनी ऊंची थीं कि मेरे बस की नहीं थीं ..........फिर भी मैं कोशिश कर रही थी ............ बीच बीच में चूहों की ची ची से मैं सिहर जाया करती थी .............और मां का इंतजार करने लगती थी .......................... अचानक मेरे गुस्से ने अपना काम करना शूरू किया और फिर मैने हनुमान जी की तरह उस घर में रखे कई बोरों को नुकसान पहुंचाया .........सरसों का तेल गिराया..............उसपर तरह तरह के सामान को गिराया जो भी हाथ में मिला उससे बोरियां फाड डालीं फिर सब्से उंचे बोरे पर चढ कर बैठ गयी ........................ कोई दो तीन घंटे बाद दरवाज़ा खुला ............... और मुझे बाहर निकाला गया .....................
इस घटना ने मुझे कई नसीहतें दी थीं......... इस घर के तौर तरीकों और कानून कायदों का अहसास कराया था .............

Saturday, April 6, 2013

एक महल की दास्तान ..............मेरे बचपन के दिन

सोचती हूं, नानी और अपने रिश्ते की कहानी से ही शुरू करूं इस दास्तान को. उनकी और अपनी वैचारिक लडाई से. इस लडाई की बहुत सी वज़हें थीं. सबसे बडी वज़ह देश काल और परिवेश का था. दरअसल अमनौर छपरा जिले से कोई 25 किलोमीटर पर बसा एक ऐसा गांव है जिसकी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. अंग्रेजों के समय में उनकी जमीदारी प्रथा के अंतर्गत यह एक छोटी सी स्टेट थी जो किसानो से ;लगान् वसूल कर अंग्रेजों को देती थी. इसलिये इस गांव की संरचना , जातीय गणित , सोच और जीवन जीने का तरीका बेहद सामंतवादी था. जातियों के बीच के अंतरसम्बन्ध बेहद जटिल और बहुत हद तक शोषण पर आधारित स्त्रियों की सोच समाज में उनकी स्थिति सब बेहद जटिल थे. नानी और मेरे बीच जो वैचारिक मतभेद और अन्तर् विरोध था वह इन्हीं के इर्द गिर्द था. नानी अमनौर के उस बबुआन की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं जो एक खास तरह के समाज में जीने की आदी थीं और मेरा पालन पोषण शहर के एक ऐसे माता पिता के साथ हो रहा था जो दोनो नौकरी पेशा थे. फिर आज़म गढ के गांव और उसका समाज बिहार के इस गांव से बेहद अलग सोच वाले थे जो रैयत व्यवाडी व्यव्स्था के अंग थे.
आज जब भी नानी का चेहरा आंखों के सामने आता है एक घटना जैसे चिपकी चली आती है जहन में... एक हल्की सी मुस्कान, तैर जाती है होठों पर, अपनी चंचलता , बचपना और शरारत के बीच नानी का वो क्रोध और वो सजा अब बहुत गुदगुदाती है. सोचती हूं कि अब वह पीढी भी खतम हो गयी जो पहले बच्चों में बेहतर संस्कार डालने के लिये ऐसी ऐसी सजायें देती थीं कि अब भी उसे सोचकर रुह कांप जाये. मैने यहां ऐसी कई सजायें काटी हैं......
वह नवरात्र का महीना था. नवदुर्गे के दिन. बिहार में नवरात्र का महीना कुछ अलग ही रौनक वाला होता था तब. मैं कोई 6-7 साल की ही थी. दशहरे की छुटियों में गयी थी नानी के घर. उस दौर में इस हवेली की लडकियां चाहे वो 5 – 6 साल की भी हों तो उनका बाहर जाना एक तरह से प्रतिबन्धित था. हर लडकी और उसको खिलाने वाली को यह सख्ती से सिखाया जाता था कि बेहत्र हो कि वो घर के भीतर ही खेलें. किंतु मैं इस जमात से अलग घर के अन्दर के वातावरण से अलग बाहर खेलना पसन्द करती थी. मुझे बाहर ताड खज़ूर के पेड देखना, सामने की फुल्वाडी में तितली पकडना , आस पास के घरों में चुपके से जाकर बैठ जाना बेहद रास आता था. जबकि इसकी सख्त मनाही होती थी बहां. कई बार जब घर पर लोगों को पता चल जाता था जब वो इस कमेंट के साथ नज़रन्दाज़ कर देते थे कि ‘ उ का जाने इहां के रेवाज़’ औउर उनका कौन हमेशा रहे के बा इहां; पर फिर भी सखत निहरानी रहती थी.
एक दिन मैं बाहर के बरामदे में खडी सामने की फुल्वाडी से तितकी पकडने की सोच ही रही थी कि मुझे दूर से एक बहुत ही मधुर आवाज़ कान में सुनाई दी ....वहां का एक लोकल वाद्य जिसे खडताल कहते हैं उसकी आवाज़ इतना मुग्ध कर रही थी मैं चुपचाप वहां खडी यह ध्यान लगाने में मस्त थी कि यह आवाज़ कहां से आ रही है. कौन गा रहा है ..आवाज़ धीरे धीरे करीब आने लगी थी और स्वर साफ हो रहा था ......... वह एक देवी गीत था जो एक बेहद सुमधुर के साथ मुझे अपने सम्मोहन में ले रहा था ....... निबिया की डाल मईया
लावेली हिलोरवा कि झूमि झूमि
माई मोरा गावेली गीत कि
झूमी झूमी
झुमते झूमत मईया के लागल पियसिया
कि एक छाक मोहि के पनिया
पिया द कि एक छाक

अचानक मैने देखा कि एक बूढा व्यक्ति हाथ में खडताल लिये कुछ और लोगों के साथ दरवाजे पर आ खडा हुआ है. वह अपने हाथ की खडताल को इतने सधे तरीके से बज़ा रहा था कि कान वहीं जमें थे अब तक. मैं पूरे सम्मोहन में थी. ऐसे सम्मोहन में जो अपनी आगोश में ले चुका था. यह भगत लोगों की टोली थी. जो नवरात्रों में देवीगीत गाते थे , जो अपनी भिक्षा मांगते थे और अपना गुजारा करते थे. बहरहाल .......भगत को जैसे ही अन्दर से आकर किसी ने भिक्षा दी वह अगले घर की तरफ बढने लगा. उसके गाने में और स्वर में जो सम्मोहन था मैं उससे अभी उबर नहीं पायी थी . इसी सम्मोहन में मैं उसके पीछे पीछे जहां जहां वह जाता चलती गयी. मुझे इस बात का पता नहीं चला कि मैं गांव के किस किस घर के सामने भीख मांगने वाले इस भगत के साथ घूमती रही. मुझे इस बात का भी आभास नहीं हुआ कि मैं उस भगत के स्वर में स्वर मिलाके गाती रही. और इस बात का भी आभास नहीं हुआ कि किसने मुझे उसके साथ देखा , किसने नहीं देखा. मैं बस उस भगत के पीछे देवीगीत गाते – गुनगुनाते और उस बूढे भगत का स्वर सुनते गांव के बाज़ार तक पहुंच गयी थी. इधर घर में सब तरफ मेरी खोज मच गयी थी. सबने सारा घर छान मारा मैं जब कहीं नहीं मिली. घर पर अफरा तफरी मची हुई थी ....आस पास के हर घर में पूछा जा रहा था कि किसी ने मुझे देखा ? तभी नानी को किसी ने सूचना दी कि मैं बाज़ार में हूं...
बाज़ार इस हवेली के लोगों के लिये सर्वथा वर्जित जगह थी. लडकियां तो दूर की बात घर के लड्के भी वहां नहीं जाते थे और ऐसे में मैं दरबार की नातिन बाज़ार पहुंच गयी थी. यह घूर गुस्ताखी थी मेरी . एक ऐसा अपराध जिसपर बहुत सख्त सज़ा का प्रावधान था. जहां माफी बिल्कुल नहीं थी. जहां नानी की निगाहों , उनके जज्मेंट से बच पाना बेहद मुश्किल था.
थोडी देर बाद मैं पकड कर घर लायी गयी. जो व्यक्ति मुझे बाज़ार से पकड कर ला रहा था उसने मुझे कुछ इस तरह से धमकियां दी थीं कि मैं रास्ते में ही अंज़ाम से परिचित हो गयी थी. वह कह रहा था : भला बतायीं त दरबार के लईकी और ए तरह बज़ार में घूमतानी? र उ आ तनिको डर ना लागल कि बबुई जी राउर का हाल करम ?
चलीं ..अब पता लागी.....मज़ा आयी भागे के मतलब समझ में आयी .......... मेरे अन्दर अज़ीब अज़ीब भाव आ रहे थे. डर भी लग रहा था. पर इस बात का अन्दाज़ा नहीं था कि घर के लोग इस कदर गुस्सा करेंगे ....







एक महल की दास्तान ---------मेरे बचपन के दिन

मैं चुप , नि:शब्द सब् देख रही थी ........ ये हवेली , उसका निर्जन हो जाना, जर्जर हो जाना और इतना बदसूरत हो जाना एक गहरे अवसाद में दाल रहा था और दूसरी तरफ एक खूबसूरत जवान महिला से एक जर्जर काया में तब्दील उस महिला और उसकी आवाज़ मुझे यह सोचने को मज्बूर कर रही थी कि सच मुच यह संसार म्रर्त्यलोक है ............
वहां पहुंचने पर खबर लगते ही धीरे धीरे कई चेहरे घेर लेते हैं मुझे मैं उन चेहरों में से कुछ को ही बडी मुश्किल से पहचान पाती हूं पर वो सभी बुलबुल्ल बबुनी को खूब पहचान लेते हैं. इन चेहरों में से कई आईस पाईस खेल के खिलादी थे. उनकी स्मृतियों में भी मैं कहीं बसी हुई थी इसलिये यादों की पर्तों के साथ हमारे चेहरे पर हल्की मुस्कान दौडी और हवेली के घास के मैदान में ही बैठ गये कुछ देर के लिये ......
मेरे अन्दर इस हवेली में जाकर उसे देखने का साहस अभी नहीं जुट पा रहा, बस एक टक मैं उसे देख रही हूं. हर तरफ से जर्जर, टूट चुकी , बेजान उस हवेली का एक ऐसा चेहरा मेरी स्मृतियों में कैद है जो मुझे जीवन देता है, कल्पना देता है, पीछे लौट्कर सोचने उसे लिखने का साहस देता है और उसी हवेली की यह हालत देखकर रो पडना स्वाभाविक था.. मैं जैसे जैसे कदम बडा रही हूं यह दुख बढता जा रहा है. आंसू इस दुख को व्यत ही नहीं कर सकते जिस भाव ने मुझे घेर रखा है. रात इसी खंडहर में गुज़ारनी है यह सूचना सारी व्यवस्थाओं के बाद मुझे यहां की केयर टेकर ने दे दी है लेकिन मैं तो उजाले में इस बुजुर्ग जैसी हवेली का हाल चाल लेने के लिये आगे बढ रही थी. इस हवेली का बडा हिस्सा या यों कहें कि एक अलग मकान सा हिस्सा बहुत लम्बे अरसे तक अस्पताल रहा था मैं अभी उसी घर के सामने खडी हूं और पलट कर 4-5 साल की बुलबुल बन जाती हूं ............
अम्मा तब नौकरी करती थी. आज़मगढ जी जी आई सी में साईंस की अध्यापिका थी..मेरी हर गर्मी की छुट्टी छपरा जिले के इस छोटे से गांव अमनौर में बीतती थी. हम इसे अपना ननिहाल कहते थे जबकि ये मेरी मां का ननिहाल था.. अम्मा के ननिहाल से कब यह हमारा ननिहाल बन गया यह एक लम्बी कहानी है लेकिन हम चारो भाई बहन के ज़हन में यह हवेली, यह देश , यहां के लोग कुछ ऐसे बसे हैं कि उन्हें हटा पाना हमारे लिये कभी सम्भव नहीं रहा.. सच कहूं तो यहां से जुडी हर एक चीज़ हमारी यादों के बडे महत्व्पूर्ण किरदार बनकर् बैठे हैं. सोच रही हूं कहां से शुरू करूं इस हवेली की दास्तान.... किस मोड से , किस किरदार से या फिर वहां से जहां से स्मृतियों के पहली पर्त की शुरूआत होती है. जहां से आंखों ने इसे देखना और समझना शुरू किया..............
मैं हवेली के बाहरी खम्भे को पकड के पुराने दिनों में लौट जाती हूं ...वही 6-7 साल की बुलबुल के रूप में और इसके एक एक कोने की रौनक को रंग देने लगती हूं........... कई किस्से जो इस हवेली के बारे में नानी से सुने थे वो याद आते हैं.....कई कहानियां जो यहां के पवंरिया सुनाते थे वो याद आते हैं ........ और फिर याद आती है हवेली के जीवंत दिन...... जब चारो तरफ लोग ही लोग थे .....जब चारो तरफ .......आवाज़ें ही आवाज़ें ........हमारी आईस – पाईस , एक्कट –दुक्कट , भागना – दौडना, बिना बात खिलखिलाना, धमा चौकडी करना, आम के पाल से आम चुराना, सज़ा के तौर पर भन्डार घर में बन्द कर दिया जाना और फिर नानी की लाल लाल आंखों का घूरना .......सच कहूं तो वो आंखें आज भी डराती हैं मुझे ............

Friday, April 5, 2013

एक महल की दास्तान ---- मेरे बचपन के दिन

‘बुलबुल’ इसी नाम से मेरे मा – बाप और बडे- बुजुर्ग मुझे घर में पुकारते थे. पापा को छोडकर अब इस नाम से बुलाने वाले इक्का- दुक्का बचे हैं. कई बार कान तरस जाते हैं यह नाम किसी के मुंह से सुनने को. पर आज इस हवेली के हर कोने आवाज आ रही है जैसे कितने ही लोग बुला रहे है. उपर बालकनी से नानी की आवाज़ सुनाई दे रही है और नीचे दरोखे से भंडारी की आवज़ आ रही है ‘ ए बूलबूल बबुनी आ गयीनी’ . चौका अनगना से ललमतिया की माई कह रही हैं कि ए बुलबुल बबुनी हाल्दी हाल्दी हाथ गोड धो लीं........ बीजे बाद में होई रउआ भूख लागल होई खा लीं तनी त खेलम....... सुनी ना का खायेम .... चना के सतुई और धी चीनी........ मैं जवाब देती हूं जैसे ....इस खंडहर हो गयी हवेली की एक एक ईंट में जैसे मेरी यादों का खज़ाना है सब किसी फिल की रील की तरह चल रही है मेरी आंख के सामने. मैं यहां इस बार 1992 के बाद आयी हूं.... इससे पहले नानी की मृत्यु पर आयी थी तब यह नहीं सोचा था कि अगली बार जब आउंगी तब यह इस कदर खंडहर हो चुकी होगी. नहीं सोचा था कि बचपन के सब चेहरे फिर देखने को नहीं मिलेंगे. ललमतिया, सुमतिया, सुदमवा, देवंतिया, संवरिया किसी से मुलाकात नहीं होगी......सोचा नहीं था कि ललमतिया की माई कभी नहीं दिखेंगी .आज सब याद आ रहे हैं. वो सारे चेहरे जिसने मुझे प्यार दिया , खाना खिलाया, मेरे ननिहाल पहुंचने पर ऐसे न्योछवर हुए जैसे मैं उनकी अपनी औलाद हौउ. मुझे अपने ननिहाल का ये देश, यहां के लोग, उनकी जबान, उनका चरित्र, उनके भाव, ये ताड के पेड, यहां मिट्टी की सुगन्ध, यहां का लोक संगीत , यहां की भाषा कुछ इस कदर प्यारे हैं कि मैं इसे दिल एं लिये फिरती हूं. इसी लिये आज जब यहां आयी हूं अभी तक अपनी हवेली के भीतर नहीं गयी हूं. बस बाहर बाहर घूम रही हूं ......... उन चेहरों को खोज रही हूं जो मेरी स्मृतियों को रंग देते हैं. जो मेरे अनतर में जमें बैठे हैं. जो मुझे शब्द देते हैं , सुर देते हैं राग रागिनियों से परिचय कराते हैं और लिखने का अकूत साहस देते हैं........ मैं उनको ही खोज रही हूं बेचैन होकर .......रधिकवा, उसकी माई, भोलवा, शोभवा याद कर कर के सबसे पूछ रही हूं कि कहीं से कोई धागा मिले तो मैं वो मोती पिरोना शुरू करूं ...........पर उनमें से बस एक दो मिली हैं और मेरे अन्दर जैसे एक हूक उठ रही है ......एक कराह ..... एक ऐसी कराह जिसे मैं किसी को सुना भी नहीं सकती ना ही किसी से साझा कर सकती हूं ...............चुपचाप एक पेड के नीचे खडी हो सोच रही हूं कि क्या समय इतना पीछे चूट गया .इतना पीछे .........सब कुछ इतना बदल गया ? इतना बदल गया ? आखिर इतने दिनों के बीच मैं क्यों नहीं आयी यहां ? खां फंसी रही कि नहीं आ पायी ? खुद से सवाल करती रही घंटों .....कोसती रही अपने आप को तभी लगा जैसे पीछे से किसी ने बुलाया ..............बुलबुल चिरई आ गयीली का ? आरे हमर बाछी .......आ गयीनी रउआ ......... आवाज़ इतनी धीमी थी कि शक्क हुआ अपने आप पर कि ये मैं कैसे सुन सकती हूं ? कई बार सोचा कान बज रहे हैं मेरे इसी उमर में ..........पर तभी एक वृद्ध हाथ मे मुझे छुआ .....जैसे आत्मा तृप्त हो गयी ...........मेरी आंखे और उनकी आंखे मिलीं और ........ काहे एज़वा बईठल् बानी बबुनी ? काहे ?
देवंतिया के माई रउआ हमरा पहचान गयीनी ? कइसे ? एतना दिन बाद ?
ए बाबू भला रउआ के ना पहचानेम ? ए हमर बाछी देखी ना केतना बढियां लागता ..... राउर पाहुन केने बानी ? उंहों के आयेल बानी नूं ?

Tuesday, April 2, 2013

अकेले होने के दर्द

लाडली होने का सुख
अकेले होने के दर्द से
बहुत कमतर होता है
लेकिन दुनिया
मेरे अकेले होने को
मेरे सुखी और सौभाग्यशाली
होने से जोडकर देखती रही है
जबकि मैं
इस अकेलेपन की व्यथा
लिये भटकती रही हूं
इधर – उधर
तीन भाइयों के बीच
मेरे मन का हर कोना
टकटकी लगाये देखता रहा है
उनके खेल, उनका बल, उनका मन
उनके आपस का एका
उनकी खुशी , खुशी की कुलांचे
उनके होने से मनो सौभाग्य का बोझ लिये मैं
चुप चाप गिनती रही हूं
अपना सुख
छिपाती रही हूं
अकेलापन
अपनी व्यथा – कथा
आंखों की नमकीन होती कोर
और एक कमजोर मन

...............................................अल्का

Saturday, March 16, 2013

तुम मिले

तुम अनाम थे, अनजान
मिलने से पहले
तुम स्वप्न थे हथेलियों पर
मिलने से पहले

तुम मिले तो
जहन में अचानक
एक नाम तैरने लगा
पहचाना पहचाना
अनजान यह शब्द
गुम हो गया था
तेज़ हवाओं के साथ

तुम मिले तो
जैसे
स्वप्न हथेलियों पर उतर आये
हकीकत बनके
अनजान वह नाम
रफ्ता रफ्ता
हकीकत की तहरीर
लिखने लगा


तुम मिले तो
जिन्दगी जैसे गुनगुनी धूप सी
पसर गयी थी
पोर पोर में
गहरे उतर कर
मन की चाक पर जिन्दगी के
शब्द गढने लगे
तुम्हारे इर्द गिर्द


तुम मिले तो
मरमरी, मखमली अहसास
हवा में तैर गये थे
हौले हौले
क्या तुमने भी
ऐसा ही महसूस किया था
मुझसे मिलने के बाद ?
क्या तुम्हारे लिये भी
मेरे मायने वही हैं ?


तुम्हारी प्रश्न वाचक निगाहों से
पता चल रहा है कि
मेरे सवाल तुमको बेचैन कर रहे हैं
तुम असमंजस में हो
पर क्या करूं
मन में सवाल है
सो पूछ लिया


जवाब चहती हूं
तुमसे
क्योंकि तुम मिले तब से
गुम हो गयी थी मैं

आज खोज़ा है
कई सवालों के
बीच
अकेली खडी खुद को


.................................................अलका








Friday, March 8, 2013

स्त्रियों की कलम से

फेसबुक पर एक मित्र ने मेरी एक पोस्ट पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कमेंट करते हुए कहा था कि साहित्य में भी लिंग भेद ? कई दिग्गजों ने उनका समर्थन किया था ...............पिछले कुछ दिनो से स्त्री विमर्श पर कुछ नयी स्त्री कवियत्रियों को पढ रही हूं .....और कुछ पुरुष रचनाकारों को भी सभी की रचनाओं में उनके होने का ही नहीं बल्कि उनके अहसास , उनके सोचने और उनके परिवेश का रंग साफ साफ नज़र आता है. स्त्रियों ने अपने अह्सास को लिखा है , अपने प्रश्न उठाये हैं और अपनी बात क इस विषय पर उसके पकड की कमी साफ साफ ही है वहीं दूसरी तरफ पुरुष अभी स्त्री को कई मायनों में समझने की प्रक्रिया एं ही है,उसके मन , उसकी अनुभूति और उसके मंथन से दूर बस समझ रहा है उसे.............. स्त्री होने के अब तक के अर्थ और स्त्री के सवाल स्त्रियों ने किस तरह उठाये हैं महिला दिवस पर कम से कम 3 कवियत्रियों की कलम को पढिये ---------
पहली कवियत्री हैं अनामिका ................ दूसरी कवियत्री हैं अपर्णा मनोज और तीसरी कवियत्री हैं लीना मल्होत्रा राव ...........

1.
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
Anamika







2.
तुम स्वीकार करते हो
लिप्साओं के संसार में तुम एक ययाति
याचक
प्रेमी
पति
पिता भी तो हो तुम


तुम्हारा स्वार्थ एक कायांतर पुरु की देह से गुज़रते हुए
शर्मिष्ठा तक !


मैं स्वीकार करती हूँ तुम्हारा अपरिमित स्नेह जैसे "बुद्ध"
मेरी अधीरता के महल से बाहर गमन करता
दुखों को मांजता
अतियों के दुर्निवार जंगल में
सरल रास्ता
जिस पर चल सके आम्रपाली .

हम दो ..
कई अंतर विरोधों में जीते -मरते
अंतत: उस बिंदु पर रुक जाते हैं सहसा
जहाँ से मैं टकटकी लगाये देखती हूँ
अपने भीतर का सुन्दरतम पुरुष कमियों के साथ
और तुम ठगे से चाहते हो भरपूर एक स्त्री मौन में प्रतिवाद करती
अपने भीतर गहन .


अहम् की स्लेटों की अदला -बदली करते
दोनों की निश्छल हंसी और निश्चिन्तता सहज हो लिखती है
सान्द्र प्रेम ..
सूख -सूख पट्टी
चन्दन घट्टी...


बीत चुकी है मावट की बरसात
सूख रही हैं हमारी छोटी -छोटी स्वीकृतियां गुनगुनी धूप में बाहर

कितनी पूरक ..


अपर्णा manoj



3.
ओह बहुरूपिये पुरुष !

पति
एक दिन
तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए
मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तो पर भटक गई
निष्ठा के गहरे गह्वर में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था
उसके विष का गुणधर्म वैसा ही था
जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे
इतनी
कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें.
तभी जान पाई मै कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का
और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर ..
मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी
कुल बढ़ाने वाली बेल
और अर्धांगिनी
तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार
तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा
और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूंगी

मेरे और तुम्हारे बीच
फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग
और इस बार
मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का

यह जानने के बाद
तुम
थे पशु ...
मै वैश्या दुराचारिणी ..

ओ प्रेमी!
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार

तुमने फेका फंदा
वृन्दावन की संकरी गलियों के मोहपाश का
जिनकी आत्मीयता में खोकर
मैंने सपनो के निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर
गर्वीली नई धरती पर प्यार की फसलों का वैभव फूट रहा था
तुमने कहा
राधा !
राधा ही हो तुम..
और
प्रेम पाप नही..

जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..

-लीना मल्होत्रा

Sunday, February 24, 2013

अपनी भतीजी पाखी के नाम

(अपनी भतीजी पाखी के नाम )

मत रम मेरी बच्ची मत रम
फैशन की
इस अन्धेरी दुनिया में
मत रम
ये तुझे दफ्न कर देंगे
जिन्दा
उस कब्रगाह में जो इसी रास्ते
जाता है

मैं तुझे कलम देती हूं
और कुछ किताबें
जो तुझे अवसर देंगे
नये सूरज में
नये तरीके से संवरने के


ले ये हथियार और लिख
नयी इबारतें
पुरानी कब्रगाह में दबी
कुछ जिन्दगियों के नाम
और बदल डाल सारे नक्शे
अपनी जिन्दगी के

...........................अलका


Thursday, February 21, 2013

कवि नरेश सक्सेना की कुछ पंक्तियां और मेरी कलम की गुस्ताखी

मेरे कवि मित्र प्रेम चन्द गान्धी ने नरेश सक्सेना जी की यह् कविता फेसबुक पर कुछ इन विचारों के साथ शेयर की थी :: मेरे प्रिय कवि आदरणीय नरेश सक्से ना की यह कविता पढ़कर भीतर तक हिल गया हूं... कई दिनों से ऐसी ही एक कविता के बिंब ज़ेहन में तैर रहे थे... अब लगता है उसे लिखने की कोई ज़रूरत नहीं। ::
मित्रों, इस कविता पर कुछ लिखने से पहले मैं यह बता दूं कि इस कविता की लयबद्धता , शब्द , साहित्य , लक्षणा व्यंजना मेरी आलोचना का केन्द्र नहीं है बल्कि मेरे लिये इस कविता का केन्द्र बिन्दु स्त्री, उसकी सामाजिक स्थिति. पुरुष वर्चस्व साथ ही स्त्री आज तक जो लिखी गयी है, स्त्री जो आज तक धर्म और समाज में जो बांची गयी है, वह जिस तरह से तैयार की गयी, उसके मानसिक जगत को जिस तरह से गढने की कोशिश रही है, जिन प्रक्रियाओं से वह गुजरी है ......वह है. मिलाकर कहूं तो मैं इस कविता के सामाजिक पक्ष को लिखने की कोशिश कर रही हूं.
नरेश जी की यह कविता कुछ इस तरह है -
मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिनमें स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है

स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हेंग
उनके मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढ़े नहीं मिलता
…………………….नरेश सक्सेना

सच कहूं तो यह कविता पढ कर मैं बेहद हैरान हूं. इतनी हैरान कि इस कविता की कुल जमा 8 लाइनों को मैं हज़ार बार पढ चुकी हूं और सोच रही हूं कि नरेश सक्सेना ने यह कविता किस मनोदशा में लिखी होगी ? एक स्त्री होने के नाते मुझे नरेश सक्सेना की कविता और उसके विषय से नाइत्तफाकी है. और हैरानी से सोच रही हूं कि कभी किसी महिला ने पुरुष के मेनोपाज़ पर कविता लिखने की हिम्मत की है? क्या कभी उसने इस सम्बन्ध में धर्म को समझने की कोशिश की है ? .... और क्या उसी दखल और विश्वास से किसी स्त्री ने भी इस विषय को सबके साथ साझा किया है जिस विश्वास से नरेश जी ने किया है? अगर कभी किया है तो क्या उसे उतना समर्थन और उत्कृष्ट कमेंट पुरुषों की तरफ से मिले हैं जैसे कि इस कविता पर देखने को मिले ? वैसे मुझे याद नहीं आता कि कोई ऐसी कविता मेरी नज़रों से गुजरी है अब तक ..........
बहर हाल मेरी हैरानी की कुछ और भी वजहें हैं ......मैं बडी हैरानी से सोच रही हूं कि एक पुरुष कितने दखल के साथ एक स्त्री ही नहीं बल्कि स्त्रियों की दुनिया के विषय में लिखता है, कितने दखल से स्त्री और उसकी दुनिया को जानने की बात करता है , कितने विश्वास से वह अपनी समझ, स्त्रियों के सम्बन्ध में अपने ज्ञान को दुनिया में बांटता है.मुझे हैरानी इस बात से भी है कि उसे अपनी समझ, अपने ज्ञान पर किस कदर भरोसा है ................और हैरान इसलिये भी हूं कि पुरुष और उसकी कलम स्त्री पर किस हद तक और किस तरह नज़र रखती है. मेरी हैरानी यहीं खत्म नहीं होती यह और भी बहुत से मसलों पर कायम रहती है............यह हैरानी स्त्री को तब तक होती रहेगी जब तक उसके विषय में लिखा जाने वाला हर शब्द उसके भावों से सही अर्थों में मेल नहीं खायेगा.
......इन तमाम प्रश्नों और कौतूहल के बाद भी यह कविता अपने समस्त भावों के साथ पूरा ध्यान खींचती है. ध्यान खीचने की कई वज़हें है –
• यह मेरी जैसी महिला को यह कहने के लिये मजबूर करती है कि कविता स्त्री की दयनीयता को दर्शाने के बहाने ही सही पुरुष , पुरुष वाद और धर्म के साथ पुरुष के सम्बन्ध पर बात करती है ,
• दूसरे स्त्री की दयनीयता उसके दुख को सबके सामने लाने की कोशिश करती है
• यह पुरुष उसके स्वभाव , उसकी नज़र में स्त्री , स्त्री पर उसके वर्चस्व पर बात करती है
• सबसे महत्व्पूर्ण है कि वह इन तीनो स्त्री, पुरुष और धर्म तीनो के अंतर सम्बन्धों पर बात करती है.
• साथ ही साथ यह स्त्रियों की आधी आबादी के प्रति पुरुषों की आबादी की समझ उसकी दुनिया से अज्ञानता भी दिखाती है

मैं यह नहीं जानती कि नरेश सक्सेना जी स्त्री की दुनिया को कितना जानते हैं , कितना समझते है, मैं ये भी नहीं जानती कि उनका स्त्री को लेकर दृष्टि कोण क्या है, उन्होने क्यों बंजर स्त्री की दशा का इस तरह चित्रण किया... किंतु यह कविता अगर पुरुष की दुनिया का स्त्री की दुनिया की समझ और उसकी स्थिति को दर्शाने के लिये है तो तो निश्चय ही कविता कवि के स्त्री की दुनिया की कम जानकारी होने का खुलासा भी करती है. मेरे यह कहने का अपना पर्याप्त कारण और समझ है. अगर मैं कहूं कि एक स्त्री होने के नाते
• स्त्री होने की अपनी स्वानुभूति है
• स्त्रियों की दुनिया की बेहतर समझ है
• मीनोपाज जैसे मसलों पर स्त्रियों की राय जानने का दावा है
• तो शायद मैं ना तो गलत हूं और ना ही मेरी गुस्ताखी है क्योंकि स्वयम स्त्री होने के साथ् लम्बे समय से स्त्रियों के बीच काम करते हुए स्त्री की दुनिया को कमोबेश कवि से बेहतर जानने के दावा तो कर ही सकती हूं
• और अगर यह दावा करती हूं तो मीनोपाज के सम्बन्ध में निम्न बात भी दावे के साथ कह सकती हूं
‘’स्त्रियों के साथ सामाजिक क्षेत्र में काम के 20 साल के अपने अनुभव और ज्ञान को अगर मैं इस कविता के बहाने साझा करूं तो मेरा अनुभव मेनोपाज़ से गुजर रही महिलाओं के सम्बन्ध में बिल्कुल इतर है या यूं कहें कि ठीक इसके विपरीत है. बेतुल की उन अनपढ आदिवासी महिलाओं से लेकर दिल्ली की पढी लिखी विद्वान महिलाओं सहित किसी भी 45 से 50 की उमर की महिला जो मासिक धर्म छूटने के कगार पर है को दुखी होते नहीं देखा. ना ही धर्म से घबराते और डरते देखा है. मैने अधिकतर स्त्रियां इसे स्त्री जीवन के मुक्ति काल के रूप में देखती हैं........
मेनोपाज स्त्री जीवन का एक महत्व्पूर्ण काल होता है जिससे गुजरते हुए वह शारीरिक तौर पर जरूर थोडी कठिनाई महसूस करती है किंतु स्त्री के जीवन की बहुतेरी वर्जनायें इस पडाव तक आते आते खत्म हो जाती हैं इसलिये इस दौर में देखा जाये तो वह ना तो धर्म से डरती है और ना ही समाज से.........इस काल तक आते आते वह घर, घर के पदानुक्रम और व्यक्तिगत रूप से कहीं अधिक मुखर हो जाती है. तो जहां तक मीनोपाज पर बात है मेरे मन में स्त्री के इस चक्र को लेकर कवि के अनुभव और ज्ञान पर शंका उत्त्पन्न होती है.
देखिये नरेश जी का पहला बन्ध –
मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिनमें स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है
किंतु इस कविता का सबसे सकारात्मक पक्ष है इस कविता स्त्री की दयनीयता के बहाने पुरुष की दुनिया के सच को सामने रखना. आप देखें की कविता सभी जगह स्त्री के जीवन उसके जीवन के महत्व पूर्ण प्राकृतिक पडाव पर बात करती है वहीं दूसरी तरफ वह यह भी रहस्य खोलती है कि इस संसार में स्त्री क्या है ? वह इस दुनिया में खुद नहीं डरती .....उसे डराने के लिये , उसे सहमा कर रखने के लिये पुरुष और उसके वाद ने मिलकरएका बनया हुआ है और वह एका धर्म जैसी एक चीज है ......... मजे की बात है कि यह धर्म नाम की चीज़ को विश्वास के साथ जोडा गया है और स्त्री को जबरन इसपर विश्वास करने के लिये बाध्य किया गया...... उन्हें कई मसलों पर रस्सियों पर गतर गतर कर बान्धा गया और उनके द्वारा ना माने जाने की स्थिति में जो उपबन्ध किये गये ...वह ना केवल सोच में डराने वाले रहे बल्कि उस डर को सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाया गया ....... और यही कारण है कि नरेश जी कहते हैं मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को डराते हैं धर्मग्रंथ .........किंतु तमाम डर , टमाम भय के बाद भी स्त्री की दुनिया का अपना एक सच है .....स्त्री की दुनिया की अपनी एक खुशी है .और अपना एक मन ....सही जो ना तो धर्म से संचालित होता है ना ही किसी ग्रंथ से ..........उसकी खुशी को किसी ने अभी तक जाना ही नहीं और उसके सही दुख को भी .........
अब अगर धर्म पर आधारित उपबन्धों को देखा जाये तो दुनिया भर के सभी धर्मग्रंथ सभी स्त्रियों के लिये बहुत से उपबन्ध लिखते हैं किंतु धर्म के अधिक डराने वाले उपबन्ध रजस्वला स्त्री के लिये हैं ‘जिनमें स्त्रियों को पुरुषों की खेतियां बताया जाता है. किंतु कविता की यह दूसरी पंक्ति पूरे पुरुष समाज, उसके वाद और धर्म से उसके अंतर सम्बन्ध को बयान करती है और सोचने को मजबूर करती है कि आखिर यह पुरुष है कौन ? स्त्री कैसे उसकी खेती हो सकती है ?इस कविता के बहाने मैं यह सोच रही हूं कि --
कौन है पुरुष ? कैसे हुआ पुरुष और पुरुष वाद का उद्भव और विकास ? क्या यह एक सहज़ उद्धभव और विकास था या फिर एक रणनीति के तहत किया गया विकास था? अगर यह एक सहज़ विकास था तो फिर यह समाज पर इतना हावी और प्रभावी कैसे हो गया ? क्या पुरुष वाद और धर्म एक दूसरे के पूरक का काम करते हैं? अगर यह पूरक है तो क्या पुरुष और धर्म दोनो ही स्त्री, स्त्री वादी और स्त्री समर्थकों के विरुद्ध हैं ? या फिर उन सबके विरुद्ध जो पुरुष और पुरुषवाद के आलोचक हैं?
सोच रही हूं कि ‘पुरुष’ यह शब्द रोज सुना जाने वाला एक जाना पहचाना शब्द है. एक ऐसा शब्द जिसे हम अपने जीवन से जुडा शब्द समझते हैं. सैधांतिक रूप से इस शब्द की व्याख्या जब जब और जहां जहां की गयी है एक मानव नर रूप की कल्पना ही की गयी है जो बलिष्ठ है, जो अपराजेय है, बुद्धिमान है मतलब इस शब्द के साथ शारीरिक सौष्ठव, बल, वर्चस्व , और विराट का एक ऐसा मिश्रित रूप गढा गया है जो एक अपराजेय नर की ही कल्पना को मूर्त करता है. इस असाधारण नर की कलपना और उसके द्वारा सम्पादित सभी कार्यों को भी कार्य की उत्तम श्रेणी में रखा गया. इस तरह इस नर ‘पुरुष’ द्वारा सम्पादित कार्य को उसका ‘पौरुष’ कहा गया. विराट पुरुष की यह परिकल्पना सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर समाज, हर देश, जाति, वर्ग औत क्षेत्र में किसी ना किसी रूप में की गयी है. विराट पुरुष की इस परिकल्पना में दुनिया के सभी धर्म अद्भुत रूप से समान नज़र आते हैं. इस कल्पना को दुनिया के सभी समाज एक खास तरह के सम्मान और प्रतिष्ठा से नवाज़ते हैं. किंतु आश्चर्य जनक यह है कि विराट पुरुष की इस परिकल्पना के साथ किसी ऐसी विराट स्त्री की परिकल्पना नहीं की गयी विराट पुरुष की इस व्याख्या को पढने पर कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न दिमाग में आते हैं और वो प्रश्न अपना समुचित जवाब मांगते हैं. पहला प्रश्न जो मन को उद्वेलित करत है वो है कि इस अपराजेय, बलिष्ठ और बुद्धिमान नर के सम्बन्ध में पुरुष’ और पौरुष’ की यह परिकलपना सृष्टि के आरम्भ से ही थी ? दूसरा जो मतव्पूर्ण प्रश्न दिमाग को कुरेदता है वह यह कि आखिर इस मानव समाज में नर की प्रधानता की कल्पना क्यों और किन परिस्थितियों में की गयी ? और सबसे महत्व्पूर्ण प्रश्न कि जब इस विराट नर की यह कल्पना की जा रही थी, जब यह कल्पना समाज में आरोपित हो रही थी तब स्त्रियां कहां थीं और वह इस पुरुष की कल्पना और समाज में इसकी स्थापना को किस रूप में ले रही थीं ? देखा जाय तो विराट पुरुष की परिकल्पना के विषय में उपरोक्त सभी प्रश्न जायज़ प्रश्न हैं और गहरे पड्ताल की मांग करते हैं किंतु वहीं दूसरी तरफ इस पुरुष के विराट, उसके पौरुष की व्याख्या और उसके शारीरिक सौष्ठव के विषद वर्णन दुनिया के सभी धर्न ग्रंथों में किसी ना किसी रूप में भरे पडे हैं. सवाल यह भी कि यदि यह ग्रंथ ईश्वर ने नहीं लिखे जैसा कि जाहिर है कि उसने नहीं लिखे तब यह ग्रंथ लिखे किसने हैं ? यह ग्रंथ क्यों लिखा गया ? इस तरह के बहुतेरे सवाल मन में उठते हैं और उन सवालों की पडताल करते करते जो सिरा निष्कर्ष तक पहुंचता है कि क्या धर्म और पुरुष दोनो ने मिलकर स्त्री को पुरुषों की दासी बनाने का काम किया है ? तो इसका मतलब कोई भी धर्म ग्रंथ अपौरुषेय नहीं है. कोई भी धर्म ग्रंथ आसमानी किताब नहीं है. यह पुरुषों के द्वारा स्त्री को नियंत्रित करने का जरिया है. बहर हाल यह कविता यह उत्तेजना पैदा करने में सफल है कि मैं इस हद तक सोचू , समझूं और दुनिया से साझा करूं और यही इस कविता की विशेषता है. कारण यह कि यह कविता किसी भी सजग और चिंतंनशील स्त्री को इसी तरह सोचने को मजबूर करेगी.

कविता का दूसरा बन्ध पूरी तरह स्त्री की सामाजिक स्थिति की बात करती है. दूसरा बन्ध कहता है –
स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हें
उनके मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढ़े नहीं मिलता

कविता का यह दूसरा हिस्सा पढते हुए भी मन कवि से सवाल करने को कहता है. कई ऐसे सवाल जो कविता के अंतर से निकल कर चिल्लाते हैं. सोचती हूं कि स्त्री और पृथवी में साम्य अवश्य हैं किंतु उतने ही गहरे विभेद भी ....स्त्रियां अगर बंजर जमीनों का हश्र जानती हैं तो अपने होने का अर्थ भी तो जानती हैं.. तो क्या कविता का यह बन्द स्त्री की लाचारगी भर बयान करती है ? किंतु मैं इन पंक्तियों को मीनोपाज से बंजर हुई महिलाओं के सम्बन्ध में समग्र रूप से नहीं देख पा रही. लेकिन सोच रही हूं कि यह कविता एक पुरुष की कलम से निकली हुई कविता है जहां स्त्री के सम्बन्ध में पुरुष के मन, पुरुष के समाज उसकी स्त्री के प्रति उसकी भावना को समझने की कोशिश की जा सकती है............ऐसा इसलिये क्योंकि तमाम लाचारियों के बाद भी स्त्री को अपने होने का सच पता है, उसे परिवार में अपने होने का अर्थ पता है. वह मीनोपाज के करीब पहुंच कर अपनी एक दुनिया अपने जीवन के संघर्ष से रच चुकी होती है......अगर स्त्री अकेली है तो भी वह इस काल तक आते आते अपना एक जीवन जी चुकी होती है ....... इसलिये अपनी भूमिका भी उसे पता है तो ऐसे में उसका पति जो अपने सारे अर्थों में पुरुष है उसे अन्य मालिक हो सौंप देगा इस तरह की कोई व्यवस्था किसी समाज में होगी इसपर प्रश्न चिन्ह है ............यदि स्त्री एक ऐसे पेशे में है जो सेक्स पर आधारित है तब भी वह इस दौर तक आते आते ऐसी स्थिति में कम ही रह जाती है कि उसे कोई बेच सके ............... तो कविता की इन पंक्तियों को मैं कुछ इस तरह से समझने के प्रयास में हूं ............ दुनिया भर में आज तक जो भी लिखा गया और समझा गया है वह पुरुष की नज़र से, उसकी कलम से , उसकी कलम ने स्त्री को स्त्री बनाया है, उसके लिये बिम्ब गढे हैं , उसकी परिवार और समाज में भूमिका बतायी है, स्त्री को कई खानों में बांटा, अच्छी –बुरी स्त्री बनायी , यह तय किया है कि वो किन स्थितियों में खुश रहेगी, कब डरेगी , कब हंसेगी. दुनिया भर की सभी प्रेम कवितायें उसकी नज़र से लिखी गयी है, उसके डर क्या हैं ये उसकी कलम ने बयान किये हैं. तो सही मायनों में देखा जाये तो स्त्री का दिमाग , उसका मन और उसके रहने , जीने और तमाम भावों की स्थितियां पुरुष ने ही तैयार की हैं ऐसे में पुरुसः यह कैसे जान सकता है कि स्त्री का अपना स्वतंत्र मन क्या है और वह किन बातों पर वास्तव में खुश और दुखी होती है ...........धर्म के तमाम उपबन्धों और दबावों के बाद भी स्त्री का मन जिन बातों पर खुश होता है वह इस बारे में खुद लिखे गी ...........क्योंकि उसका ग्रंथ जिसे वह धर्म कहेगी वह लिखा जाना अभी बाकी है ................
इसलिये सही मायनों में बंजर होने का दुख स्त्री का नहीं पुरुष और उसके समाज का है. कहीं ना कहीं उसे अपना बंजर काल भी याद आता है किंतु वह और उसका ग्रंथ दोनो मिलकर स्त्री के बंजर काल को रेखांकित करते हैं. पुरुष के लिये स्त्री का बंजर काल भले ही काम की चीज़ ना हो लेकिन हर स्त्री का अपना जीवन उसके लिये खुशी का सबब तो है.

कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता स्त्री के दुख से अधिक पुरुष मन, उसके अंदर के भय और उसके वाद के सच को बेहतर खोलती है.

अलका



Wednesday, February 6, 2013

औरतों के हिस्से का सूरज

औरतों के हिस्से का सूरज
उगा नहीं है अभी
कब उगेगा
ये पता भी नहीं
कुछ काले बादलों ने उसे
छेक रखा है
जारी है जंग इन बादलों से


औरतों ने उधार ली है
कुछ रौशनी पडोस से
पर उस पर भी कानून
और धर्म के पहरे हैं
पर्दा बनाया गया है ढकने को
पर वो लड रही हैं
अनवरत
अन्धेरों से
अपना सूरज उगाने के लिये

औरतों ने उधार की
इस रौशनी से
छांट डाले हैं
आधे से अधिक बादल
दूर से कोई देख रहा है
औरतों की इस जंग को
कुछ शैतानी आत्मा
काबिज़ होना चाहती है
सूरज के इस रथ पर
कि उनके हिस्से का सूरज
उगने से पहले अस्त हो जाये


पर उगेगा
चमकेगा और दमकेगा भी
औरतों के हिस्से का सूरज
इसी के उम्मीद में हैं
दुनिया भर की औरतें
.........................................अल्का

Tuesday, January 29, 2013

तुम फिर मुझे उसी भट्ठी में डालना चाहते हो
जहां से तपकर मैं निकले थी
उसी कब्र में दफन करने को आतुर हो
जहां से मैं उड चली थी

मैं जब भी कुछ पन्ने तलाश
उसपर स्त्री लिखती हूं
तुम सब मिलकर उसे
रद्दी की टोकरी में डाल देते हो
और जब भी अधिकार लिखती हूं
उसे टुकडॉ में बांट बेमानी करने लगते हो

देख रही हूं
तुम्हारे पन्ने पर स्त्री होने का मतलब
एक संकीर्ण वक्तव्य
मां, ममता और माया

इन परिभाषाओं से निकल
अब लिखने लगी हूं स्त्री
समझने लगी हूं स्त्री
और गढने लगी हूं स्त्री

इस नये संकल्प में
भट्ठियां अब
उर्जा बन गयी हैं
और कब्रें
नसीहतों का भण्डार ............................अलका

..................................................................................


Sunday, January 27, 2013

लडकी का बडा होना

लडकी का बडा होना बडे - बडे सपने देखना फिर उन सपनो पर चल पडना कितना मुश्किल होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो हर रोज उसका घर से निकलना निकल कर डग भरना मुकाम तक ठीक –ठाक पहुंच जाना कितना कठिन होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो लडकी का अपने इरादों पर टिका रहना अपने विचारों और आप पर बने रहना कितनो को हज़म होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो जब से वो बडी हो गयी मां सख्त दरबान हो गयी आंखों में जब सपने तिरे कई चाबुक तेज़ हो गयी इन स्थितियों से रोज संघर्ष क्या होता है यह किसी लडकी से पूछ कर देखो घर, गृहस्थी , पति, बच्चे परम्परा , हुक्म बस यहीं तक है/होगी दुनिया इन दायरों में रहना कैसा होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो लडकियां धन नहीं होती ना ही परायी होती हैं इरादे क्या हैं उनसे कभी पूछकर तो देखो ............................................................ अलका

Friday, January 25, 2013

बरसों से सोई नही है वो

मित्रों यह कविता गणतंत्र दिवस पर देश की उन महिलाओं को समर्पित है जो महिलाओं के प्रति समाज , सत्ता और अपने आस पासके लोगों की समझ बदलने के लिये संघर्ष कर रही हैं...............उन महिलाओं के नाम जो जेलों में अत्याचार सह्कर भी अपनी लडाई को आगे बडा रही हैं .......................यह कविता सोनी सोरी जैसी बहादुर महिला के नाम ........................................ 1. बरसों से सोई नही है वो ना ही मेरी आंखों में नीद है वो जब भी सिसक कर कराहती है मैं टहलने लगती हूं वो जब आह भरती है आंसूं मेरी आंखों से निकल पडते हैं वह जब भी , जहां भी लुटती है पिटती है गुम होती है , जीती है मरती है मैं आईने में अपना ही चेहरा देखती हूं क्योंकि हमारा एक नाता है एक रिश्ता एक ही भाषा है और एक ही लिंग स्त्रियां हैं हम 2. वह रोज लिखती है एक खत देश के नाम वह रिश्ता लिखती है नाता लिखती है दुख लिखती है पहाड लिखती है और मैं हर रोज उसे पढ सत्ता समझती हूं शक्ति समझती हूं देश समझती हूं क्योंकि वह खून लिखती है कत्ल लिखती है साजिश लिखती है हम दोनो गाहे बगाहे रोज पढते है एक दूसरे को अपनी अपनी सम्वेदना के साथ अपनी अपनी भाषा के साथ 3. आज उसने देश लिखा गणतंत्र लिखा है परेड लिखा है पुलिस लिखा है करतूत लिखी है अपनी आपबीती भी एक कतरा आंसू भी दबी दबी सिसकी भी पर् बांटने के लिये एक बारूद भरी कलम कुछ दहकते शब्द और कुछ पन्ने दिये है .........................अलका

Thursday, January 24, 2013

‘वह अबोध’

वह ‘अबोध’ मां के आंचल से दूर खींच लाया गया है एक नयी पाठशाला की दुनिया में जहां वह सीखेगा कुछ नये शब्द, नयी भाषा और नयी चेतना कुछ लोग कुछ नये शब्द उसकी तरफ फेंक पढा रहे हैं एक नया ककहरा ल से लाड की जगह बता रहे हैं ‘लडका’ प से प्यार की जगह सिखा रहे हैं ‘पुरुष’ और म से मां के बरक्स ‘मर्द’ होता है समझा रहे हैं वह अबोध लुढकते –पुढकते लौटा है पहला पाठ पढकर और पूछ रहा है तुतला कर लड्का क्या होता है मम्मा ? लडकी क्या होती है मम्मा ? बताओ ना बताओ ना मम्मा मैं तो मर्द हूं ना ? ये मर्द क्या होता है ? तुतलाते बेटे के सवाल अभी बाकी हैं पर भृकुटि टेढी कर मां कभी नाप रही है अपना आंचल कभी समझने की कोशिश में पूछ रही है उससे कि किसने बताया तुमको कि तुम ळडका हो और वो तुम्हारी बहन लडकी ? किसने बताया कि तुम मर्द हो ? वो औरत ? वह अबोध चितनशील है नज़रें झुकाये सोच रहा है मां के सवाल का जवाब और तुतलाती ज़बान में कह रहा है कल मुझसे वो भैया कह रहे थे ‘’तू लडका है लडकियों के खेल मत खेला कर’’ वो कह रहे थे ‘तू मर्द है’ बोलो ना मम्मा मैं मर्द हूं ? मां स्तब्ध, आवाक कभी हंसती है कभी मुस्कुराती , कभी उसे निहार निहार सोचती कि क्या जवाब दूं अभी समझ रही थी उस अबोध ने फिर पूछ लिया मर्द क्या होता है मम्मा ? और ये लडकी क्या होती है ? बोलो ना , बोलो ना मम्मा वह अबोध समझ ही नहीं पाया था उन शब्दों के अर्थ तब तक कुछ और नये शब्द और उसके अर्थ पटक दिये गये थे उसके आगे सीख लेने के लिये ‘उसकी’ बडी बडी अबोध आंखें कदम दर कदम सवाल कर रही थीं पर वहां हर शब्द के साथ बताया जा रहा था औरत और मर्द होने का बुनियादी अंतर और वह बार बार उसी सवाल पर अटका था क्या होता है मर्द ? कौन होता है मर्द ? पर वह अब भी खाली हाथ बस इतना समझ रहा था कि वह लडका है , एक मर्द और समझ रहा था कि यह भी एक दुनिया है जहां वह सीखेगा अभी बहुत कुछ वह अबोध फिर घर लौटा है कुछ सवालों के साथ सर झुकाये, कुछ समझते, कुछ उलझते नाखूनों को बार बार एक दूसरे से रगड समझने की कोशिश के साथ मां की तरफ देख रहा है गूढ नज़रों से कि क्यों जवाब नहीं देती वह कि क्यों हौले हौले मुस्कुराती है वह कि क्यों बार बार भृकुटि तान लेती है वह अपनी तुतलाती जबान सी कदमों के साथ वह थाम्ह लेता है मां का हाथ उन शब्दों के अर्थ के सही मायने जानने के लिये जो अभी तक उसके दिमाग में उलटे लटके हैं ........................................................................अलका