Tuesday, January 29, 2013

तुम फिर मुझे उसी भट्ठी में डालना चाहते हो
जहां से तपकर मैं निकले थी
उसी कब्र में दफन करने को आतुर हो
जहां से मैं उड चली थी

मैं जब भी कुछ पन्ने तलाश
उसपर स्त्री लिखती हूं
तुम सब मिलकर उसे
रद्दी की टोकरी में डाल देते हो
और जब भी अधिकार लिखती हूं
उसे टुकडॉ में बांट बेमानी करने लगते हो

देख रही हूं
तुम्हारे पन्ने पर स्त्री होने का मतलब
एक संकीर्ण वक्तव्य
मां, ममता और माया

इन परिभाषाओं से निकल
अब लिखने लगी हूं स्त्री
समझने लगी हूं स्त्री
और गढने लगी हूं स्त्री

इस नये संकल्प में
भट्ठियां अब
उर्जा बन गयी हैं
और कब्रें
नसीहतों का भण्डार ............................अलका

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Sunday, January 27, 2013

लडकी का बडा होना

लडकी का बडा होना बडे - बडे सपने देखना फिर उन सपनो पर चल पडना कितना मुश्किल होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो हर रोज उसका घर से निकलना निकल कर डग भरना मुकाम तक ठीक –ठाक पहुंच जाना कितना कठिन होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो लडकी का अपने इरादों पर टिका रहना अपने विचारों और आप पर बने रहना कितनो को हज़म होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो जब से वो बडी हो गयी मां सख्त दरबान हो गयी आंखों में जब सपने तिरे कई चाबुक तेज़ हो गयी इन स्थितियों से रोज संघर्ष क्या होता है यह किसी लडकी से पूछ कर देखो घर, गृहस्थी , पति, बच्चे परम्परा , हुक्म बस यहीं तक है/होगी दुनिया इन दायरों में रहना कैसा होता है यह किसी लडकी से पूछ्कर देखो लडकियां धन नहीं होती ना ही परायी होती हैं इरादे क्या हैं उनसे कभी पूछकर तो देखो ............................................................ अलका

Friday, January 25, 2013

बरसों से सोई नही है वो

मित्रों यह कविता गणतंत्र दिवस पर देश की उन महिलाओं को समर्पित है जो महिलाओं के प्रति समाज , सत्ता और अपने आस पासके लोगों की समझ बदलने के लिये संघर्ष कर रही हैं...............उन महिलाओं के नाम जो जेलों में अत्याचार सह्कर भी अपनी लडाई को आगे बडा रही हैं .......................यह कविता सोनी सोरी जैसी बहादुर महिला के नाम ........................................ 1. बरसों से सोई नही है वो ना ही मेरी आंखों में नीद है वो जब भी सिसक कर कराहती है मैं टहलने लगती हूं वो जब आह भरती है आंसूं मेरी आंखों से निकल पडते हैं वह जब भी , जहां भी लुटती है पिटती है गुम होती है , जीती है मरती है मैं आईने में अपना ही चेहरा देखती हूं क्योंकि हमारा एक नाता है एक रिश्ता एक ही भाषा है और एक ही लिंग स्त्रियां हैं हम 2. वह रोज लिखती है एक खत देश के नाम वह रिश्ता लिखती है नाता लिखती है दुख लिखती है पहाड लिखती है और मैं हर रोज उसे पढ सत्ता समझती हूं शक्ति समझती हूं देश समझती हूं क्योंकि वह खून लिखती है कत्ल लिखती है साजिश लिखती है हम दोनो गाहे बगाहे रोज पढते है एक दूसरे को अपनी अपनी सम्वेदना के साथ अपनी अपनी भाषा के साथ 3. आज उसने देश लिखा गणतंत्र लिखा है परेड लिखा है पुलिस लिखा है करतूत लिखी है अपनी आपबीती भी एक कतरा आंसू भी दबी दबी सिसकी भी पर् बांटने के लिये एक बारूद भरी कलम कुछ दहकते शब्द और कुछ पन्ने दिये है .........................अलका

Thursday, January 24, 2013

‘वह अबोध’

वह ‘अबोध’ मां के आंचल से दूर खींच लाया गया है एक नयी पाठशाला की दुनिया में जहां वह सीखेगा कुछ नये शब्द, नयी भाषा और नयी चेतना कुछ लोग कुछ नये शब्द उसकी तरफ फेंक पढा रहे हैं एक नया ककहरा ल से लाड की जगह बता रहे हैं ‘लडका’ प से प्यार की जगह सिखा रहे हैं ‘पुरुष’ और म से मां के बरक्स ‘मर्द’ होता है समझा रहे हैं वह अबोध लुढकते –पुढकते लौटा है पहला पाठ पढकर और पूछ रहा है तुतला कर लड्का क्या होता है मम्मा ? लडकी क्या होती है मम्मा ? बताओ ना बताओ ना मम्मा मैं तो मर्द हूं ना ? ये मर्द क्या होता है ? तुतलाते बेटे के सवाल अभी बाकी हैं पर भृकुटि टेढी कर मां कभी नाप रही है अपना आंचल कभी समझने की कोशिश में पूछ रही है उससे कि किसने बताया तुमको कि तुम ळडका हो और वो तुम्हारी बहन लडकी ? किसने बताया कि तुम मर्द हो ? वो औरत ? वह अबोध चितनशील है नज़रें झुकाये सोच रहा है मां के सवाल का जवाब और तुतलाती ज़बान में कह रहा है कल मुझसे वो भैया कह रहे थे ‘’तू लडका है लडकियों के खेल मत खेला कर’’ वो कह रहे थे ‘तू मर्द है’ बोलो ना मम्मा मैं मर्द हूं ? मां स्तब्ध, आवाक कभी हंसती है कभी मुस्कुराती , कभी उसे निहार निहार सोचती कि क्या जवाब दूं अभी समझ रही थी उस अबोध ने फिर पूछ लिया मर्द क्या होता है मम्मा ? और ये लडकी क्या होती है ? बोलो ना , बोलो ना मम्मा वह अबोध समझ ही नहीं पाया था उन शब्दों के अर्थ तब तक कुछ और नये शब्द और उसके अर्थ पटक दिये गये थे उसके आगे सीख लेने के लिये ‘उसकी’ बडी बडी अबोध आंखें कदम दर कदम सवाल कर रही थीं पर वहां हर शब्द के साथ बताया जा रहा था औरत और मर्द होने का बुनियादी अंतर और वह बार बार उसी सवाल पर अटका था क्या होता है मर्द ? कौन होता है मर्द ? पर वह अब भी खाली हाथ बस इतना समझ रहा था कि वह लडका है , एक मर्द और समझ रहा था कि यह भी एक दुनिया है जहां वह सीखेगा अभी बहुत कुछ वह अबोध फिर घर लौटा है कुछ सवालों के साथ सर झुकाये, कुछ समझते, कुछ उलझते नाखूनों को बार बार एक दूसरे से रगड समझने की कोशिश के साथ मां की तरफ देख रहा है गूढ नज़रों से कि क्यों जवाब नहीं देती वह कि क्यों हौले हौले मुस्कुराती है वह कि क्यों बार बार भृकुटि तान लेती है वह अपनी तुतलाती जबान सी कदमों के साथ वह थाम्ह लेता है मां का हाथ उन शब्दों के अर्थ के सही मायने जानने के लिये जो अभी तक उसके दिमाग में उलटे लटके हैं ........................................................................अलका