तुम अनाम थे, अनजान
मिलने से पहले
तुम स्वप्न थे हथेलियों पर
मिलने से पहले
तुम मिले तो
जहन में अचानक
एक नाम तैरने लगा
पहचाना पहचाना
अनजान यह शब्द
गुम हो गया था
तेज़ हवाओं के साथ
तुम मिले तो
जैसे
स्वप्न हथेलियों पर उतर आये
हकीकत बनके
अनजान वह नाम
रफ्ता रफ्ता
हकीकत की तहरीर
लिखने लगा
तुम मिले तो
जिन्दगी जैसे गुनगुनी धूप सी
पसर गयी थी
पोर पोर में
गहरे उतर कर
मन की चाक पर जिन्दगी के
शब्द गढने लगे
तुम्हारे इर्द गिर्द
तुम मिले तो
मरमरी, मखमली अहसास
हवा में तैर गये थे
हौले हौले
क्या तुमने भी
ऐसा ही महसूस किया था
मुझसे मिलने के बाद ?
क्या तुम्हारे लिये भी
मेरे मायने वही हैं ?
तुम्हारी प्रश्न वाचक निगाहों से
पता चल रहा है कि
मेरे सवाल तुमको बेचैन कर रहे हैं
तुम असमंजस में हो
पर क्या करूं
मन में सवाल है
सो पूछ लिया
जवाब चहती हूं
तुमसे
क्योंकि तुम मिले तब से
गुम हो गयी थी मैं
आज खोज़ा है
कई सवालों के
बीच
अकेली खडी खुद को
.................................................अलका
Saturday, March 16, 2013
Friday, March 8, 2013
स्त्रियों की कलम से
फेसबुक पर एक मित्र ने मेरी एक पोस्ट पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कमेंट करते हुए कहा था कि साहित्य में भी लिंग भेद ? कई दिग्गजों ने उनका समर्थन किया था ...............पिछले कुछ दिनो से स्त्री विमर्श पर कुछ नयी स्त्री कवियत्रियों को पढ रही हूं .....और कुछ पुरुष रचनाकारों को भी सभी की रचनाओं में उनके होने का ही नहीं बल्कि उनके अहसास , उनके सोचने और उनके परिवेश का रंग साफ साफ नज़र आता है. स्त्रियों ने अपने अह्सास को लिखा है , अपने प्रश्न उठाये हैं और अपनी बात क इस विषय पर उसके पकड की कमी साफ साफ ही है वहीं दूसरी तरफ पुरुष अभी स्त्री को कई मायनों में समझने की प्रक्रिया एं ही है,उसके मन , उसकी अनुभूति और उसके मंथन से दूर बस समझ रहा है उसे.............. स्त्री होने के अब तक के अर्थ और स्त्री के सवाल स्त्रियों ने किस तरह उठाये हैं महिला दिवस पर कम से कम 3 कवियत्रियों की कलम को पढिये ---------
पहली कवियत्री हैं अनामिका ................ दूसरी कवियत्री हैं अपर्णा मनोज और तीसरी कवियत्री हैं लीना मल्होत्रा राव ...........
1.
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
Anamika
2.
तुम स्वीकार करते हो
लिप्साओं के संसार में तुम एक ययाति
याचक
प्रेमी
पति
पिता भी तो हो तुम
तुम्हारा स्वार्थ एक कायांतर पुरु की देह से गुज़रते हुए
शर्मिष्ठा तक !
मैं स्वीकार करती हूँ तुम्हारा अपरिमित स्नेह जैसे "बुद्ध"
मेरी अधीरता के महल से बाहर गमन करता
दुखों को मांजता
अतियों के दुर्निवार जंगल में
सरल रास्ता
जिस पर चल सके आम्रपाली .
हम दो ..
कई अंतर विरोधों में जीते -मरते
अंतत: उस बिंदु पर रुक जाते हैं सहसा
जहाँ से मैं टकटकी लगाये देखती हूँ
अपने भीतर का सुन्दरतम पुरुष कमियों के साथ
और तुम ठगे से चाहते हो भरपूर एक स्त्री मौन में प्रतिवाद करती
अपने भीतर गहन .
अहम् की स्लेटों की अदला -बदली करते
दोनों की निश्छल हंसी और निश्चिन्तता सहज हो लिखती है
सान्द्र प्रेम ..
सूख -सूख पट्टी
चन्दन घट्टी...
बीत चुकी है मावट की बरसात
सूख रही हैं हमारी छोटी -छोटी स्वीकृतियां गुनगुनी धूप में बाहर
कितनी पूरक ..
अपर्णा manoj
3.
ओह बहुरूपिये पुरुष !
पति
एक दिन
तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए
मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तो पर भटक गई
निष्ठा के गहरे गह्वर में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था
उसके विष का गुणधर्म वैसा ही था
जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे
इतनी
कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें.
तभी जान पाई मै कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का
और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर ..
मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी
कुल बढ़ाने वाली बेल
और अर्धांगिनी
तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार
तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा
और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूंगी
मेरे और तुम्हारे बीच
फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग
और इस बार
मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का
यह जानने के बाद
तुम
थे पशु ...
मै वैश्या दुराचारिणी ..
ओ प्रेमी!
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार
तुमने फेका फंदा
वृन्दावन की संकरी गलियों के मोहपाश का
जिनकी आत्मीयता में खोकर
मैंने सपनो के निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर
गर्वीली नई धरती पर प्यार की फसलों का वैभव फूट रहा था
तुमने कहा
राधा !
राधा ही हो तुम..
और
प्रेम पाप नही..
जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..
-लीना मल्होत्रा
पहली कवियत्री हैं अनामिका ................ दूसरी कवियत्री हैं अपर्णा मनोज और तीसरी कवियत्री हैं लीना मल्होत्रा राव ...........
1.
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
Anamika
2.
तुम स्वीकार करते हो
लिप्साओं के संसार में तुम एक ययाति
याचक
प्रेमी
पति
पिता भी तो हो तुम
तुम्हारा स्वार्थ एक कायांतर पुरु की देह से गुज़रते हुए
शर्मिष्ठा तक !
मैं स्वीकार करती हूँ तुम्हारा अपरिमित स्नेह जैसे "बुद्ध"
मेरी अधीरता के महल से बाहर गमन करता
दुखों को मांजता
अतियों के दुर्निवार जंगल में
सरल रास्ता
जिस पर चल सके आम्रपाली .
हम दो ..
कई अंतर विरोधों में जीते -मरते
अंतत: उस बिंदु पर रुक जाते हैं सहसा
जहाँ से मैं टकटकी लगाये देखती हूँ
अपने भीतर का सुन्दरतम पुरुष कमियों के साथ
और तुम ठगे से चाहते हो भरपूर एक स्त्री मौन में प्रतिवाद करती
अपने भीतर गहन .
अहम् की स्लेटों की अदला -बदली करते
दोनों की निश्छल हंसी और निश्चिन्तता सहज हो लिखती है
सान्द्र प्रेम ..
सूख -सूख पट्टी
चन्दन घट्टी...
बीत चुकी है मावट की बरसात
सूख रही हैं हमारी छोटी -छोटी स्वीकृतियां गुनगुनी धूप में बाहर
कितनी पूरक ..
अपर्णा manoj
3.
ओह बहुरूपिये पुरुष !
पति
एक दिन
तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए
मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तो पर भटक गई
निष्ठा के गहरे गह्वर में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था
उसके विष का गुणधर्म वैसा ही था
जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे
इतनी
कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें.
तभी जान पाई मै कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का
और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर ..
मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी
कुल बढ़ाने वाली बेल
और अर्धांगिनी
तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार
तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा
और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूंगी
मेरे और तुम्हारे बीच
फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग
और इस बार
मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का
यह जानने के बाद
तुम
थे पशु ...
मै वैश्या दुराचारिणी ..
ओ प्रेमी!
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार
तुमने फेका फंदा
वृन्दावन की संकरी गलियों के मोहपाश का
जिनकी आत्मीयता में खोकर
मैंने सपनो के निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर
गर्वीली नई धरती पर प्यार की फसलों का वैभव फूट रहा था
तुमने कहा
राधा !
राधा ही हो तुम..
और
प्रेम पाप नही..
जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..
-लीना मल्होत्रा
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