Saturday, April 6, 2013

एक महल की दास्तान ..............मेरे बचपन के दिन

सोचती हूं, नानी और अपने रिश्ते की कहानी से ही शुरू करूं इस दास्तान को. उनकी और अपनी वैचारिक लडाई से. इस लडाई की बहुत सी वज़हें थीं. सबसे बडी वज़ह देश काल और परिवेश का था. दरअसल अमनौर छपरा जिले से कोई 25 किलोमीटर पर बसा एक ऐसा गांव है जिसकी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. अंग्रेजों के समय में उनकी जमीदारी प्रथा के अंतर्गत यह एक छोटी सी स्टेट थी जो किसानो से ;लगान् वसूल कर अंग्रेजों को देती थी. इसलिये इस गांव की संरचना , जातीय गणित , सोच और जीवन जीने का तरीका बेहद सामंतवादी था. जातियों के बीच के अंतरसम्बन्ध बेहद जटिल और बहुत हद तक शोषण पर आधारित स्त्रियों की सोच समाज में उनकी स्थिति सब बेहद जटिल थे. नानी और मेरे बीच जो वैचारिक मतभेद और अन्तर् विरोध था वह इन्हीं के इर्द गिर्द था. नानी अमनौर के उस बबुआन की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं जो एक खास तरह के समाज में जीने की आदी थीं और मेरा पालन पोषण शहर के एक ऐसे माता पिता के साथ हो रहा था जो दोनो नौकरी पेशा थे. फिर आज़म गढ के गांव और उसका समाज बिहार के इस गांव से बेहद अलग सोच वाले थे जो रैयत व्यवाडी व्यव्स्था के अंग थे.
आज जब भी नानी का चेहरा आंखों के सामने आता है एक घटना जैसे चिपकी चली आती है जहन में... एक हल्की सी मुस्कान, तैर जाती है होठों पर, अपनी चंचलता , बचपना और शरारत के बीच नानी का वो क्रोध और वो सजा अब बहुत गुदगुदाती है. सोचती हूं कि अब वह पीढी भी खतम हो गयी जो पहले बच्चों में बेहतर संस्कार डालने के लिये ऐसी ऐसी सजायें देती थीं कि अब भी उसे सोचकर रुह कांप जाये. मैने यहां ऐसी कई सजायें काटी हैं......
वह नवरात्र का महीना था. नवदुर्गे के दिन. बिहार में नवरात्र का महीना कुछ अलग ही रौनक वाला होता था तब. मैं कोई 6-7 साल की ही थी. दशहरे की छुटियों में गयी थी नानी के घर. उस दौर में इस हवेली की लडकियां चाहे वो 5 – 6 साल की भी हों तो उनका बाहर जाना एक तरह से प्रतिबन्धित था. हर लडकी और उसको खिलाने वाली को यह सख्ती से सिखाया जाता था कि बेहत्र हो कि वो घर के भीतर ही खेलें. किंतु मैं इस जमात से अलग घर के अन्दर के वातावरण से अलग बाहर खेलना पसन्द करती थी. मुझे बाहर ताड खज़ूर के पेड देखना, सामने की फुल्वाडी में तितली पकडना , आस पास के घरों में चुपके से जाकर बैठ जाना बेहद रास आता था. जबकि इसकी सख्त मनाही होती थी बहां. कई बार जब घर पर लोगों को पता चल जाता था जब वो इस कमेंट के साथ नज़रन्दाज़ कर देते थे कि ‘ उ का जाने इहां के रेवाज़’ औउर उनका कौन हमेशा रहे के बा इहां; पर फिर भी सखत निहरानी रहती थी.
एक दिन मैं बाहर के बरामदे में खडी सामने की फुल्वाडी से तितकी पकडने की सोच ही रही थी कि मुझे दूर से एक बहुत ही मधुर आवाज़ कान में सुनाई दी ....वहां का एक लोकल वाद्य जिसे खडताल कहते हैं उसकी आवाज़ इतना मुग्ध कर रही थी मैं चुपचाप वहां खडी यह ध्यान लगाने में मस्त थी कि यह आवाज़ कहां से आ रही है. कौन गा रहा है ..आवाज़ धीरे धीरे करीब आने लगी थी और स्वर साफ हो रहा था ......... वह एक देवी गीत था जो एक बेहद सुमधुर के साथ मुझे अपने सम्मोहन में ले रहा था ....... निबिया की डाल मईया
लावेली हिलोरवा कि झूमि झूमि
माई मोरा गावेली गीत कि
झूमी झूमी
झुमते झूमत मईया के लागल पियसिया
कि एक छाक मोहि के पनिया
पिया द कि एक छाक

अचानक मैने देखा कि एक बूढा व्यक्ति हाथ में खडताल लिये कुछ और लोगों के साथ दरवाजे पर आ खडा हुआ है. वह अपने हाथ की खडताल को इतने सधे तरीके से बज़ा रहा था कि कान वहीं जमें थे अब तक. मैं पूरे सम्मोहन में थी. ऐसे सम्मोहन में जो अपनी आगोश में ले चुका था. यह भगत लोगों की टोली थी. जो नवरात्रों में देवीगीत गाते थे , जो अपनी भिक्षा मांगते थे और अपना गुजारा करते थे. बहरहाल .......भगत को जैसे ही अन्दर से आकर किसी ने भिक्षा दी वह अगले घर की तरफ बढने लगा. उसके गाने में और स्वर में जो सम्मोहन था मैं उससे अभी उबर नहीं पायी थी . इसी सम्मोहन में मैं उसके पीछे पीछे जहां जहां वह जाता चलती गयी. मुझे इस बात का पता नहीं चला कि मैं गांव के किस किस घर के सामने भीख मांगने वाले इस भगत के साथ घूमती रही. मुझे इस बात का भी आभास नहीं हुआ कि मैं उस भगत के स्वर में स्वर मिलाके गाती रही. और इस बात का भी आभास नहीं हुआ कि किसने मुझे उसके साथ देखा , किसने नहीं देखा. मैं बस उस भगत के पीछे देवीगीत गाते – गुनगुनाते और उस बूढे भगत का स्वर सुनते गांव के बाज़ार तक पहुंच गयी थी. इधर घर में सब तरफ मेरी खोज मच गयी थी. सबने सारा घर छान मारा मैं जब कहीं नहीं मिली. घर पर अफरा तफरी मची हुई थी ....आस पास के हर घर में पूछा जा रहा था कि किसी ने मुझे देखा ? तभी नानी को किसी ने सूचना दी कि मैं बाज़ार में हूं...
बाज़ार इस हवेली के लोगों के लिये सर्वथा वर्जित जगह थी. लडकियां तो दूर की बात घर के लड्के भी वहां नहीं जाते थे और ऐसे में मैं दरबार की नातिन बाज़ार पहुंच गयी थी. यह घूर गुस्ताखी थी मेरी . एक ऐसा अपराध जिसपर बहुत सख्त सज़ा का प्रावधान था. जहां माफी बिल्कुल नहीं थी. जहां नानी की निगाहों , उनके जज्मेंट से बच पाना बेहद मुश्किल था.
थोडी देर बाद मैं पकड कर घर लायी गयी. जो व्यक्ति मुझे बाज़ार से पकड कर ला रहा था उसने मुझे कुछ इस तरह से धमकियां दी थीं कि मैं रास्ते में ही अंज़ाम से परिचित हो गयी थी. वह कह रहा था : भला बतायीं त दरबार के लईकी और ए तरह बज़ार में घूमतानी? र उ आ तनिको डर ना लागल कि बबुई जी राउर का हाल करम ?
चलीं ..अब पता लागी.....मज़ा आयी भागे के मतलब समझ में आयी .......... मेरे अन्दर अज़ीब अज़ीब भाव आ रहे थे. डर भी लग रहा था. पर इस बात का अन्दाज़ा नहीं था कि घर के लोग इस कदर गुस्सा करेंगे ....







No comments:

Post a Comment