Saturday, April 11, 2015

कवि उदय प्रकाश, पापुलर चेहरे और ब्राह्मणवाद ...


’ब्राह्मण’ और ’ब्राह्मणवाद अक्सर इन दो शब्दों की विशद चर्चा मेरे तमाम मित्रों द्वारा फ़ेसबुक से लेकर तमाम जगहों पर की जाती है. कई बार तो व्यक्तिगत बहसों में भी इन दोनों शब्दों को लेकर लम्बी लम्बी चर्चा यहां तक की विवाद होते रहते हैं. अभी ताज़ा विवाद फ़ेसबुक पर पढने को मिला दिव्या शुक्ला, पंकज झा और कवि उदय प्रकाश की वाल पर. यह विवाद कुछ इतना बडा हुआ कि पान्चजन्य में छपे एक लेख में कवि उदय प्रकाश को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार को वापस ले लेने की मांग की गयी. तो क्या इस देश में ब्राह्मणवाद इतना बडा और मजबूत तंत्र है कि इस वाद पर अपनी सोच रख देने भर से आपके जीवन की सबसे बडी उपलब्धी पर ग्रहण लग जाता है? क्या यह इतना तगडा और मजबूत तंत्र है कि यह आपकी जडें खोदने के लिये काफ़ी है ? क्या यह इतना तगडा और मजबूत तंत्र है कि यह आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी जगह और अवसर नहीं देता? अगर ऐसा है तो यह बेहद गम्भीरता से सोचने और समझने वाला विषय है क्योंकि इतनी बडी आबादी वाले देश में एक छोटे से समूह का इतना तगडा नेटवर्क? इतनी बडी आबादी वाले देश में एक ऐसा समूह जिसके हाथ में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीधा हथियार है ? अगर ऐसा है तो सच में सोचने वाली बात है. वैसे फ़ेसबुक पर ब्राह्मणवाद की यह बहस फ़ेसबुक पर क्यों और कैसे शुरू हुई यह पता नहीं लेकिन कवि उदय प्रकाश के खिलाफ़ आगबबूला होना का कारण उनकी यह पोस्ट थी...
“इस समय, इस देश में, जो सबसे बड़ी अलगाववादी, देशद्रोही ताक़त है, वह कुछ और नहीं , ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद है।
वह किसी भी 'पाप्युलर' चेहरे के साथ अवतरित हो सकता है।
यह एक ऐसा सच है, जिसे स्वीकार करना, इस देश की मुक्ति और स्वतंत्रता की दिशा में पहला ज़रूरी क़दम होगा। इसे स्वीकार करने के लिए सच्ची देशभक्ति, सामाजिक प्रतिबद्धता और साहस चाहिए।”

मैं उदय प्रकाश जी की यह पोस्ट बार बार पढने और समझने की कोशिश कर रही हूं और यह भी समझने की कोशिश कर रही हूं कि कवि उदय प्रकाश आखिर यह क्यों लिख रहे हैं ? फ़िर सोच रही हूं कि आखिर उनके लिखने में ऐसा क्या है जिसके कारण पंकज कुमार झा साहेब इतना मुखर विरोध कर रहे हैं? क्या यह एक ब्राह्मण और एक गैर ब्राह्मण की व्यक्तिगत लडाई भर है ? लेकिन इस बढते विवाद पर कुछ और टिप्पडियां भी आयीं जिसमे प्रमुख रूप से अर्चना वर्मा जी की की ८ पोस्टेंम हैं ब्राह्मण वाद पर और उसके जवाब में अरुण माहेशवरी जी की लम्बी पोस्ट. यह बडी अज़ीब बात है कि किसी की अभिव्यक्ति पर इस कदर विरोध जाहिर किया जाये कि उसे मिले सम्मान को छीन लेने की बात कर दी जाये? यह बडी अज़ीब बात है कि इस पर एक सम्पादकीय लिख दिया जाये. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की इतनी भी जगह इस देश में नहीं ताकि हम अपनी बात एक मंच पर कह सकें. पन्कज कुमार झा के विरोध और उस अखबार के सम्पादकीय ने यह साबित तो किया ही है कि इस देश में ब्राहमणवाद है और वह एक विषेश जाति के एक समूह द्वारा ही सन्चालित किया जाता है . यह और बात है कि उस वाद में अन्य वर्ग भी शामिल हैं. ऐसा इसलिये है क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि बिना राजसत्ता के ब्राह्मण का वर्चस्व कायम नहीं हो सकता. आईये जरा करीने से ब्राह्मण उसके वाद और राजसत्ता से उसके सम्बन्ध को समझा जाये क्योंकि इसी को उदय प्रकाश ’पापुलर चेहरा’ कह रहे हैं. इस समझ को सबके सामने रखने के लिये मैं भारत के सामाजिक ताने बाने, साहित्य और प्राचीन इतिहास का सहारा लेना चाहती हूं. इसीलिये मैं उदय प्रकाश जी के पूरे कथन को दो हिस्सों में समझना चाहती हूं. पहला ब्राह्मण और ब्राह्मण वाद और दूसरा हिस्सा पापुलर चेहरा. आईये पहले ’पापुलर चेहरे’ के सहारे की बात करें. पापुलर चेहरे की बात पहले इसलिये क्योंकि इसी के सहारे हम सत्ता, सत्ता में एक वाद के हावी होने और उसके काम करने के तरीके को आसानी से समझ सकते हैं. क्योंकि कोई भी विचारधारा शासन और सत्ता पर तभी हावी हो सकती है जब उसे किसी चेहरे के माध्यम से पर सफ़लता से पहुंचाया जासके.
पापुलर चेहरा इसका मतलब क्या है ? और इस वाद के पापुलर चेहरे के माध्यम से अवतरित होने का आश्य क्या है ? अगर हम इन दो के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को सही तरीके से समझें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि ब्राहमण और उसका वाद क्या है और कैसे काम करता है? कैसे वो सत्ता और सत्ता के सिंहासन तक पहुंचकर जनता के जीवन के हर काम भाव और नीति को प्रभावित करता है . कैसे वो एक घेरा बनाता है जिसमें सत्ता बंधती चली जाती है. दूसरी तरफ़ यह पूरा वाद धर्म और कर्म कांड के नाम पर आम जन के भीतर भी गहरे काम करता है जो इस जनता में दो तरह से काम करती है. नम्बर एक – यह पूरा तन्त्र जनता में एक तरह का भय पैदा करता है और दूसरा यह कि वह सत्ता के साथ जनता के भीतर कई तरह के भेद विभेद और मतभेद भी पैदा करने में सफ़ल होता है जो सत्ता के लिये एक महव्पूरण हथियार बनके ऊभरती है. दुनिया के कई देशों में समय समय पर इस तरह के उदाहरण मिलते हैं. आयातुल्ला खोमेनी इसका सबसे बडा उदाहरण है लेकिन हम यहां इसे भारतीय इतिहास और मिथकों से समझने की कोशिश करेंगे.
भारतीय इतिहास उठाकर देखें तो राजसत्ता के अनेक ऐसे पापुलर चेहरे दीखेंगे जिनका वजूद आज भी कायम है. इन पापुलर चेहरों में सबसे पापुलर चेहरा राम का है. राम ब्राह्मण नहीं थे लेकिन वह इस वाद का सबसे बडा हथियार रहे हैं और आज भी हैं. क्या इसके पीछे राम का हाथ रहा होगा कि उन्हें इस रूप में स्थापित किया जाये ? क्या उन्होंने वाल्मिकी को रामायण लिखने के लिये प्रेरित किया था ? शायद नहीं, किन्तु इस चेहरे को अनेक काल खण्डों में भारत के अलग अलग जगहों पर ना केवल ग्रन्थ लिखे. समझने वाली बात है कि क्या कथा लिखने भर से राम का चरित्र पापुलर हो गया ? शायद नहीं बल्कि इस कथा को प्रचारित और प्रसारित करने के लिये इसके पीछे एक पूरा तन्त्र था जिसने उसे उसी रूप में मूर्त करने की कोशिश की जिस रूप में उस तन्त्र ने चाहा ......मैं यहां राम का विरोध नहीं कर रही बल्कि एक पापुलर चेहरे और राजसत्ता के समीकरण को समझने की कोशिश कर रही हूं. राम के विरोध के भी कई कारण उनके ऊपर लिखित चरित्र के माध्यम से किया जा सकता है लेकिन यह अग्यात है कि राम का वास्तविक चरित्र क्या था. राम को हम उतना ही जानते और समझते हैं जितना रामायण और राम कथा से सुनते और समझते हैं. राम को लेकर यह तन्त्र और समीकरण इतना तगडा था कि आने वाले दिनो में भी राम राज ही हो ऐसी कल्पना की गयी........
इसी तरह का एक चेहरा कृष्ण का भी है. इस चेहरे के पीछे भी बहुत काम किया गया है. इस चेहरे के बचपन से लेकर हर काल की छवि का चित्रण कुछ इस तरह किया गया है और उसे देव रूप से जोड कर इस तरह प्रचारित किया गया है कि आपके विरोध के लिये कहीं जगह नहीं. इस चेहरे की बायगेमी पवित्र, इस चेहरे की रास लीला पवित्र, उसकी हर नीति पवित्र. यहां मैं कृष्ण का भी विरोध नहीं कर रही बल्कि यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि उस पूरे तन्त्र द्वारा किसी व्यक्ति का चरित्र लिख और प्रचारित भर कर देने से पूरा मानव समाज किस तरह उसे उसी रूप में भजने और देखने लगता है जैसा वह चाहता है. इसी क्रम में बहुत से चेहरे इतिहास में बुने गये और जनता को उसे उसी रूप में भजने और देखने को बाध्य किया गया है. बहु सन्खयक जनता इस पापुलर चेहरे के मोह पाश में अक्सर बंधती भी रही.
पापुलर चेहरे के साथ अवतरित होने के क्रम में कभी कभी यह वाद ठंढा भी पडःआ और शान्त भी रहा लेकिन इसकी जडें फ़िर भी काम करती रहीं और वह अपना पापुलर चेहरा गढता रहा. यह जरूरी नहीं है कि यह पापुलर चेहरा किसी विषेश जाति या वर्ग का होगा बल्कि यह जरूरी है कि यह पापुलर चेहरा उस पूरे वाद विन्यास के साथ काम करेगा जिसके बूते सत्ता और सत्ता की रणनीति पर कायम हुआ जा सकता है.
तो अगर पन्कज कुमार झा और वह अखबार इस पूरे वक्तव्य के विरोध में लिखते और छापते हैं और यह मांग कर डालते हैं कि उन्हें दिया गया साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लिया जाये तो यह बात अपने आप ही सिद्ध होती है कि आज भी यह वाद एक पापुलर चेहरे के पीछे से ना केवल हावी होने की कोशिश कर रहा है बल्कि वह विन्यास गढने में लगा हुआ है ताकि सफ़ल हुआ जा सके. आगे बात ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की
-------------------डा. अलका सिंह