Friday, October 13, 2017

नहीं लगता मन उसके गांव


विवाह कितने साल पहले हुआ
इसके लिये उंग्लियो का सहरा लेना पडता है
पीछे पलट कर देखना पडता है
सीते पिरोते अपने होने के सच को
एक बार फ़िर याद करना पडता है
सालों पहले से बिसर गये अपने नाम को
बार बार गोहराना पडता है
डूबते दिनो के दर्द को याद करने से गुजरना पड्ता है
पलट कर देखने पर
बाबुल का घर और उसका लाड एक खीझ पैदा करता है
पांव मानते ही नहीं जिद में रह्ते हैं
वहीं जाने की कवायद में जुते रह्ते हैं
हर बार जाने कितनी ही मिन्नतों
आग्रहों का सहारा लेना पडता है
कि मन और पांव दोनों को राहत मिले
उठते – बैठते सोचती हूं
तानों- उलाहनों से भरी चौखट
आखिर कैसे दे सकती है सुकून
कैसे बज सकती है रुनझुन
कैसे हो सकती है
किसी फ़िल्मी हेरोईन सी मुस्कान
कैसे हो सकता है ये सब
पूरे मन से , भाव से
जब मन और तन दोनों पर रस्सियों से गतर दिये जाने
का आभास हो
कैसे लग सकता है वह घर अपन
इसलिये
कभी नहीं लगा मुझे पिया का घर प्यारा

Friday, August 4, 2017

अनामिका, कल्पित और अभद्र पोस्ट

अब तक अनामिका का नाम बस एक सुना हुआ नाम था मेरे लिये इस ग्यान के साथ कि वह हिन्दी की एक कवियत्री हैं. लेकिन कल एक कवि की वाल ने मुझे अनामिका के बारे में जानने और उन्हें पढने को मजबूर किया क्योंकि उस कवि ने कुछ ऐसा लिखा था जिसे लेकर फ़ेसबूक पर नाराजगियों और विरोध का दौर शुरू हो गया था. अमूमन हर कवियत्री और उससे जुडी प्रबुद्ध महिलायें उस कवि को लानतें मलानतें भेज रही थीं. जब पडताल करनी शुरू कि तब पता लगा कि कवि महोदय ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के संदर्भ को लेकर ना केवल अनामिका के चुनाव पर प्रश्न उठाये थे बल्कि उनकी निजी जिन्दगी को भी घसीट लिया है. कवि का नाम है कृष्ण कल्पित और वो अपनी वाल पर लिखते हैं,
“ अनामिका पिछले एक वर्ष से बहुत युवा कवियों को अपनी कविता के साथ घर बुलाती रही हैं. उन्होंने उनमें से एक जवान कवि चुनाव किया है. इसमें किसे को क्या ऐतराज हो सकता है ? यह उनका व्यक्तिगत फ़ैसला है , जिसका हमें स्वागत करना चाहिये. ”
इसके बाद वो हैश ट्रैक का निशान बनाकर भारत भूष्ण पुरस्कार _ २०१७ लिखते हैं
और फ़िर लिखा जाता है – किसी को दाढी वाला पसन्द है और किसी को सफ़ाचट. अपनी अपनी सौन्दर्याभिरुचि है.
इसीलिये इस संदर्भ में पहले बात अनामिका और उनके निजी निर्णय की. अनामिका का निजी जीवन कैसा और क्यों रहा इसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है और ना ही दिल चस्पी इसमें है कि उन्होंने फ़िलहाल किसका चुनाव किया क्योंकि कोई भी स्त्री या पुरुष अपने लिये किसी का भी चुनाव कर सकता है. वह जवान भी हो सकता है बूढा भी, दाढी वाला भी और सफ़ाचट भी क्योंकि सबकी अपनी अपनी ......... इसीलिये उनका चुनाव उनके निजी जीवन, निजी फ़ैसले का हिस्सा है और अगर कोई उनके इस चुनाव पर अभद्र टिप्पणी करता है , मज़ाक उडाता है और इस तरह की पोस्ट लिखता है तो उसको सभ्य लोगों सहित स्त्रियों के विरोध का भागी बनना ही पडेगा और इसी लिये कल्पित की इस पोस्ट की पूरे तौर पर भरपूर आलोचना स्त्री, उसके आत्म सम्मान, और उसके चुनाव के संदर्भ में जरूर होनी चाहिये और भरपूर होनी चाहिये क्योंकि उन्होंनें अपनी पोस्ट में अनामिका के लिये जिन शब्दों, जिन व्यंजनाओं और जिन भावों का चुनाव किया है वह बेहद निर्लज्ज, भद्दे और अपमानजनक है. आप देखें, “उन्होंने उनमें से एक जवान कवि का चुनाव किया है’” और फ़िर लिखा जाता है – “किसी को दाढी वाला पसन्द है और किसी को सफ़ाचट. अपनी अपनी सौन्दर्याभिरुचि है” यदि यह मान भी लिया जाये कि अनामिका ने इस पुरस्कार देने, कविता का चुनाव करने और दबाव बनाने में अपनी कोई भूमिका निभाई भी है तो भी उनके निजी जीवन, उसके फ़ैसले को लेकर इस तरह की भाषा और भाव का खुलेआम प्रयोग करना इस बात का प्रमाण है कि कल्पित स्त्री संदर्भों को लेकर एक संवेदन हीन व्यक्ति हैं और इस लिहाज से उनकी कविता भी आधी आबादी की कविता होने में संदेह पैदा करती है. बहर हाल कल्पित के इस कृत्य के लिये उनकी भरपूर आलोचना हो रही है, होगी और होनी भी चाहिये. एक स्त्री होने के नाते, स्त्री संदर्भों के लिये काम करने के नाते मैं कल्पित की इस पोस्ट की कडी निंदा करती हूं. पर सोचती हूं कि आखिर कल्पित को यह मौका मिला क्यों? और क्या वजह थी कि कल्पित ने अनामिका के निजी जीवन पर चोट करने की जुर्रत की..........क्योंकि कल्पित कोई मूढ व्यक्ति नहीं हैं. वह कवि हैं और खुद कहते हैं कि यह अश्लील समय है तो फिर वह इतने अश्लील और अभद्र क्यों और कैसे हो गये ? आखिर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार को लेकर वह इतने चोटिल क्यों हो गये ? क्या वजह थी कि उन्होंने चोट करने के लिये अनामिका को ही चुना ? और समिति के बाकी सदस्यों पर कोई सवाल नहीं उठाये ? यह ना केवल सोचने वाली बात है बल्कि इस पुरस्कार के संदर्भ को लेकर पडताल करने वाली बात भी है .
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार तार सप्तक के कवि भारत भूषण अग्रवाल के नाम पर उनकी पत्नी बिन्दू जी ने इसे १९७८ या ७९ में आरंभ किया था. मंशा यह थी कि इस पुरस्कार के बहाने हर साल एक युवा कवि को पुरस्कृत और प्रोत्साहित किया जायेगा. मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढती थी तब मैं इस पुरस्कार के बारे में परिचित हुई. मेरे ही आस पास के एक दो मित्रों को जब यह पुरस्कार मिला तो अचम्भे से मैं उन्हें देखती रही और कई कानाफ़ूसियों और विवादों को सुनती रही. यह बात मैं १९९० - ९१ की बता रही हूं. इसलिये हिन्दी कविता, उससे जुडे पुरस्कार और विवाद का लम्बा नाता है इस बात से मैं पूरी तरफ़ वाकिफ़ हूं. मैं जिस वक्त का जिकर कर रही हूं उस वक्त भारत भूषण पुरस्कार को लेकर जो चौकडी होती थी उसमें कुछ ऐसे नाम थे जिनके सामने जाने और खडे होने में हिन्दी साहित्य के लोगों की आज भी घिग्घी बंध जाती है. और मैं उसे चौकडी इसलिये कहती हूं क्योंकि वो लोग किसी सामंत की तरह मनमाने तरीके से कविताओं का चुनाव करते और उसे साल की कविता और कवि को साल का कवि घोषित कर देते. ......और मजे की बात तो यह है कि उनकी नज़र में कवियत्रियां कम ही आती थीं जबकि महिलायें उस दौर में भी लिख रही थीं और अच्छा लिख रही थीं. इस तरह भारत भूषण पुरस्कार की जहां तक बात है तो इस पुरस्कार को देने में हमेशा एक चौकडी का हाथ रहा है. चौकडी के सदस्यों का नाम जरूर बदलता रहा है लेकिन तरीका कमोबेश एक ही रहा है. समिति की निणर्नायक मंडल में फ़िलहाल – अशोक बाजपेयी, अरुंण कमल, उदय प्रकाश अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जो हर वर्ष बारी बारी से वर्ष की सर्व श्रेष्ठ कविता का चुनाव कर उन्हें पुरस्कृत करते हैं. कहा जा रहा है कि इस बार अनामिका की भूमिका प्रमुख थी.
जहां तक ताजा संदर्भ का सवाल है यहां मैं यह नहीं जानती कि जिस कविता और कवि का चुनाव किया गया है उसमें और अनामिका के व्यक्तिगत फ़ैसले में कितना लिंक है लेकिन एक बात तो तय है कि यदि उनका निजी जीवन और उसका फ़ैसला उनके निजी जीवन के दायरों से निकल कर लोक जीवन के किसी हिस्से, विधा या अन्य को प्रभावित करेगा तो एक बात वैधानिक चेतावनी की तरह याद रखना होगा कि तब यह सबकुछ विवाद का हिस्सा होगा ही. यह तब और भी होगा जब चुनाव में अहम भूमिका निभाने का भार होगा जैसा कि कहा जा रहा है. .....
पर मुझे यहां एक बात सोचने पर मजबूर कर रही है कि माना कि कविता के चुनाव में अनामिका की अहम भूमिका थी लेकिन अन्य सदस्य क्या माटी के माधो बने बैठे थे ? वो क्या कर रहे थे ? क्या वो अनामिका से डर रहे थे या फ़िर अनामिका इतनी प्रभावशाली हैं कि उनके प्रभाव के आगे उनकी एक ना चली? और अगर ऐसा नहीं है तो मतलब कि जो चुनाव किया गया उसमें सबकी सहमति थी? फ़िर अनामिका की आलोचना पर सब चुप क्यों हैं ? अशोक बाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अरुण कमल और उदय प्रकाश कहां हैं? अगर वो चुप हैं तो मतलब वो कल्पित का कहीं ना कहीं समर्थन कर रहे हैं ............अगर नहीं तो समिति के सदस्य के रूप में सामने आकर कहें कि यह चुनाव हम सब का है और इस तरह की टिप्पणी का हम ना केवल विरोध करते हैं बल्कि ऐसे कवियों का बायकाट करते हैं .............लेकिन पिछले कई दिनों से ऐसा कुछ नहीं हुआ ...............
मैं इसके कई मतलब निकाल रही हूं. मतलब यह कि अनामिका अकेली हैं और उनका चुनाव उनका निज़ी फ़ैसला होते हुए भी उनके साथ के लोगों ( समिति के सद्स्यों ) को भी हज़म नहीं हुआ. मतलब यह कि बडी बडी बातें करने और लिखने वाले अंतत: मर्द वादी ही हैं. मुझे याद है मेरे विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक प्रोफ़ेसर जो इस पुरस्कार से जुडे रहे हैं और जिनके दो शिष्यों को यह पुरस्कार एक के बाद एक मिला भी ...अपनी महिला मित्रों के लिये खासे चर्चित रहे हैं ना केवल इलाहाबाद में बल्कि साहित्य जगत में भी और मैने उनके सहयोगियों को उनके पक्ष में खडे होते और साथ देते हुए देखा है ............. तो अपने फ़ैसलों के साथ अनामिका अकेले क्यों हैं ? क्यों उनके ऊपर होने वाली अभद्र टिप्प णी पर साहित्य के पुरोधा अपनी कलम नहीं उठा रहे हैं ? जो भी हो तमाम बातों के बावजूद भी हिन्दी साहित्य और उसके लेखकों को जेंडर सेंस्टिव होने की जरूरत है , उन्हें इस संदर्भ में एक कडी ट्रेनिंग की भी जरूरत है वर्ना वो हमारा वक्त वैसे ही लिखेंगे जैसे लिख रहे हैं और अनामिका जैसी लेखिकाओं को सजगता से चलते हुए बेहद निष्पक्शः होकर अपना समय लिखना होगा और अपना फ़ैसला लेना होगा .....(मैं निजी फ़ैसले की बात नहीं कर रही) कल्पित और मौन रहकर उनके साथ खडे लोगों को हराने का यही तरीका होना चाहिये
डा. अलका

Saturday, January 21, 2017

कहने सुनने के लमहों से निकल कर

एक कोना रीता ही रह गया है
सूना सूना
कहने सुनने के लमहों से निकल कर
एक अंधेरी कोठरी पकड ली है
सुकून की ठंढ के लिये

सालों जिद की थी
अपने उगने के लिये
सब सील गयी है
छट्पटाहट दम दोडकर
चुप है
कहीं कोने में दुबकी पडी

कलम और शब्द
सब कैद हैं
उस लोहे की आलमारी में
जिसे खोलने में अब हाथ सिहर जाते हैं
और उंगलियां टेढी हो
विफ़र उठती हैं

अजीब वक्त है,
बदला बदला
अजीब जगह है
दुश्मन सरीखी
जो सारे शौक, हुनर और पसंद को
तहखाने में डाल देने को
आमादा कर
सलीका बताती है
और मुंह पर जबरन उंगली रख
चुप हो जाने को
बेहतर चरित्र का लाबाद ओढा
मुस्कुराती है

अजीब लोग हैं
बडी बडी डिग्रियों के साथ
अनपढ
कलम से चिढे
शब्द से डरे
सारे अधिकारों कानूनों से
अनजान

इस गहरे अवसाद
उसके घात के बाद भी
मन अभी जिन्दा है
सोचता है,
स्थितियों पर विचार करता हुआ
टपक भी जाता है
कौन समझेगा कि
एक अंधेरा कमरा फ़िर
जीना चहता है
फ़िर से उगने के लिये


अल्का